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पाकिस्तान में अज़्म-ए-इस्तेहकाम नाम का नया आतंकवाद विरोधी अभियान शुरू किया गया है. हालांकि, देखा जाए तो पाकिस्तानी सेना द्वारा इस्लामिक कट्टरपंथियों एवं आतंकवादियों के विरुद्ध चलाए जाने वाले सैन्य अभियान कहीं न कहीं देश के वार्षिक बजट की तरह होते हैं. कहने का मतलब है कि पाकिस्तान के वार्षिक बजट में जिस प्रकार से देश की बड़ी-बड़ी समस्याओं का समाधान करने के लिए क़दम उठाने का दिखावा किया जाता है, लेकिन हक़ीक़त में वे सारे क़दम नाक़ाम साबित हो जाते हैं, क्योंकि वे समस्याओं की जड़ को समाप्त नहीं कर पाते हैं. पाकिस्तान के बजट की तरह ही आतंकवादियों के ख़िलाफ़ शुरू होने वाले अभियान भी समस्या के मूल पर हमला नहीं करते हैं, बल्कि इन अभियानों के ऐलान और इन्हें संचालित करने का मक़सद सिर्फ़ दूसरे देशों को संतुष्ट करना होता है. यानी पाकिस्तानी सरकार के बजट में चिकनी-चुपड़ी बातें करने का उद्देश्य जिस प्रकार से अंतर्राष्ट्रीय मुद्रा कोष (IMF) को भरमाने का होता है, उसी तरह से पाकिस्तानी फ़ौज के आतंकवाद विरोधी अभियानों का मकसद चीन को ख़ुश करना होता है.
पाकिस्तान के बजट की तरह ही आतंकवादियों के ख़िलाफ़ शुरू होने वाले अभियान भी समस्या के मूल पर हमला नहीं करते हैं, बल्कि इन अभियानों के ऐलान और इन्हें संचालित करने का मक़सद सिर्फ़ दूसरे देशों को संतुष्ट करना होता है.
आतंकवाद के ख़िलाफ़ एक और अभियान
पाकिस्तान की सरकार ने एक बार फिर अज़्म-ए-इस्तेहकाम (स्थिरता के लिए संकल्प) नाम के एक और मिलिट्री ऑपरेशन का ऐलान किया है. इस सैन्य अभियान का मकसद "देश में सिर उठा रहे इस्लामिक कट्टरपंथ और आतंकवाद के ख़तरों का व्यापक और निर्णायक रूप से मुक़ाबला करना है." वर्ष 2007 के बाद से यह पाकिस्तानी सेना का बारहवां बड़ा इस्लामिक आतंकवाद विरोधी ऑपरेशन है. हालांकि, इन प्रमुख सैन्य अभियानों के अलावा पाकिस्तान में समय-समय पर कई छोटे आतंकवाद विरोधी ऑपरेशन भी संचालित किए जा चुके हैं. इससे पहले पाकिस्तान में जो भी आतंकवाद विरोधी अभियान चलाए गए थे, वे किसी क्षेत्र विशेष पर केंद्रित थे और रणनीतिक लिहाज़ से चलाए गए थे. यानी ये ऑपरेशन उन ख़ास इलाकों में संचालित किए गए थे, जहां आतंकवादियों ने अपनी हरकतों से परेशानी पैदा की थी. उदाहरण के तौर पर ऑपरेशन राह-ए-रस्त और राह-ए-हक़ पाकिस्तान के स्वात रीजन में चलाया गया था, जबकि ऑपरेशन शेरदिल बाजौर इलाक़े में संचालित किया गया था और राह-ए-निजात अभियान दक्षिण वज़ीरिस्तान में चलाया गया था. इनके अलावा, पाकिस्तान में दो और बड़े सैन्य अभियान भी संचालित किए गए थे और इनका दायरा बहुत व्यापक था. ऑपरेशन ज़र्ब-ए-अज़ब पाकिस्तान के उत्तरी वज़ीरिस्तान में शुरू किया गया था और फिर इसका विस्तार दूसरे इलाक़ों में कर दिया गया था. इसके बाद रद्द-उल-फ़साद नाम का सैन्य अभियान चलाया गया, जो इंटेलिजेंस पर आधारित ऑपरेशन था और इसका मकसद पाकिस्तान में फैले आतंकवादी नेटवर्क पर निशाना साधना था.
पाकिस्तानी फ़ौज द्वारा अज़्म-ए-इस्तेहकाम नाम का जो नया ऑपरेशन शुरू किया गया है उसका उद्देश्य देश में फैले इस्लामिक आतंकवादी नेटवर्क पर शिकंजा कसना है. ज़ाहिर है कि अफ़ग़ानिस्तान में अफ़ग़ान तालिबान का शासन स्थापित होने के बाद और उनके द्वारा वहां से अमेरिका और उसके सहयोगी देशों को खदेड़ने के बाद, यानी “गुलामी की जंजीरों” को तोड़ने के बाद से वहां आतंकवादियों और कट्टरपंथियों की ताक़त बढ़ी है और वे अधिक आक्रामक हो गए हैं. हैरानी की बात यह कि इन चरमपंथियों और दहशतगर्दों को बढ़ाने में पाकिस्तान ने भी अपनी ओर से दिल खोलकर सहायता की है. अज़्म-ए-इस्तेहकाम ऑपरेशन का उद्देश्य “आतंकवाद और उग्रवाद को कुचलने के लिए सेना को खुली छूट देना है, इसके साथ ही इसमें देश की पुलिस व दूसरी सुरक्षा एजेंसियों का सहयोग मिलेगा और प्रभावशाली क़ानूनों के ज़रिए इस अभियान को मज़बूती दी जाएगी. यानी आतंकवाद से संबंधित मामलों में आतंकवादियों को सख़्त से सख़्त सज़ा दिलाने में आड़े आने वाली क़ानूनी अड़चनों को दूर करने के लिए सभी ज़रूरी प्रावधान भी किए जाएंगे.” ज़ाहिर है कि पाकिस्तान में पूर्व में जितने भी सैन्य अभियान संचालित किए गए हैं उनमें तत्कालीन सैन्य प्रमुखों की सोच और उसका नज़रिया साफ झलकता है.
अज़्म-ए-इस्तेहकाम ऑपरेशन का उद्देश्य “आतंकवाद और उग्रवाद को कुचलने के लिए सेना को खुली छूट देना है, इसके साथ ही इसमें देश की पुलिस व दूसरी सुरक्षा एजेंसियों का सहयोग मिलेगा और प्रभावशाली क़ानूनों के ज़रिए इस अभियान को मज़बूती दी जाएगी.
जैसे कि जनरल अशफाक कियानी आतंकवाद के विरुद्ध चलाए जाने वाले अभियानों को लेकर न सिर्फ़ बहुत सजग थे, बल्कि उसके प्रतिकूल नतीज़ों को लेकर भी उन्हें बहुत चिंता थी. यही वजह है कि जनरल कियानी ने बहुत बड़े सैन्य अभियान नहीं चलाए, बल्कि छोटे और सीमित क्षेत्रों में ही अभियान चलाने को प्राथमिकता दी थी. जबकि जनरल राहील शरीफ़ सैन्य अभियानों के परिणामों को लेकर ज़्यादा फिक्रमंद नहीं थे और इसीलिए उन्होंने अपने कार्यकाल में आतंकवाद के ख़िलाफ़ व्यापक स्तर पर ऑपरेशन चलाए. वहीं अगर जनरल कमर बाजवा की बात की जाए, तो उन्होंने अपने कार्यकाल के दौरान देश में छोटे, रणनीतिक और इंटेलिजेंस पर आधारित सैन्य अभियानों को प्रमुखता दी थी. जहां तक वर्तमान पाक आर्मी चीफ जनरल असीम मुनीर की बात है, तो उन्होंने हाल ही अज़्म-ए-इस्तेहकाम अभियान की शुरुआत की है और आने वाले दिनों में पता चलेगा कि आतंकवाद के ख़िलाफ़ ऑपरेशन चलाने के पीछे उनका क्या नज़रिया है.
चीन जो चाहता है, उसे वह मिलता है
कुल मिलाकर यह स्पष्ट है कि पाकिस्तान द्वारा चरपंथियों और आतंकवादियों के ख़िलाफ़ जो यह अज़्म-ए-इस्तेहकाम नाम का ऑरेशन चलाया जा रहा है, उसका एक मात्र मक़सद चीन को संतुष्ट करना है. इतना ही नहीं चीन को ख़ुश करने के लिए इस प्रकार का यह तीसरा सैन्य अभियान है. वर्ष 2007 में लाल मस्जिद में चलाया गया सैन्य अभियान भी चीन को ख़ुश करने के लिए किया गया था. तब एक चीनी मसाज पार्लर पर हमला करने के बाद इस्लामिक चरमपंथी चीनी नागरिकों को अगवा करके लाल मस्जिद में छिप गए थे. यही वो अभियान था, जो तहरीक़-ए-तालिबान पाकिस्तान (TTP) नाम के आतंकी संगठन के अस्तित्व में आने की वजह बना था. इसके साथ ही इसी घटना के बाद पाकिस्तान में आतंकवादी वारदातों में ज़बरदस्त इज़ाफा भी हुआ था. कहा जाता है कि उस दौरान चीनी सरकार ने पाकिस्तान के तत्कालीन सैन्य तानाशाह परवेज़ मुशर्रफ पर लाल मस्जिद में सेना भेजकर उसे नेस्तनाबूद करने के लिए बहुत अधिक दबाव डाला था. इसी प्रकार से पाकिस्तानी सेना द्वारा पूर्व में चलाया गया ज़र्ब-ए-अज़ब मिलिट्री ऑपरेशन भी कहीं न कहीं चीन को संतुष्ट करने के लिए था. इस ऑपरेशन का उद्देश्य पाकिस्तान से उइगर आतंकवादियों को समाप्त करना था. अब पाकिस्तान में चरमपंथियों और दहशतगर्दों के ख़िलाफ़ जो यह ताज़ा सैन्य अभियान शुरू किया गया है वो भी देखा जाए तो चीनी सरकार द्वारा पाकिस्तान पर दबाब बनाकर शुरू कराया गया है.
बिजनेस रिकॉर्डर समाचार पत्र में 29 मई को छपी ख़बर के मुताबिक़ पाकिस्तानी प्रधानमंत्री शहबाज़ शरीफ़ की यात्रा की तैयारी के लिए जब पाकिस्तानी प्रतिनिधिमंडल बीजिंग गया था, तब चीन के उप विदेश मंत्री सुन वेइदोन्ग ने उनसे कहा था कि “पाकिस्तान में टीटीपी, मजीद ब्रिगेड, बीएलए यानी बलूचिस्तान लिबरेशन आर्मी और दूसरे आतंकवादी संगठनों का सफाया करने के लिए ज़र्ब-ए-अज़्ब जैसे एक नए ऑपरेशन की आवश्यकता है.” ज़ाहिर है कि हाल में पाकिस्तान में चीनी नागरिकों पर हुए आतंकी हमलों ने चीन की नाराज़गी को बढ़ा दिया है. मार्च के महीने में चीनी नागरिकों पर सबसे ताज़ा आत्मघाती आतंकी हमला तब हुआ था, जब दासू बांध प्रोजेक्ट में कार्य करने वाले चीनी इंजीनियरों को ले जा रही एक बस पर आतंकवादियों ने विस्फोटकों से भरी कार द्वारा फिदायीन अटैक किया था. पाकिस्तान द्वारा चीनी नागरिकों को पुख़्ता सुरक्षा का आश्वासन दिए जाने के बावज़ूद हुए इस आतंकी हमले ने चीनियों के गुस्से को भड़का दिया था.
पाकिस्तान में चीन का काफ़ी कुछ दांव पर लगा हुआ है. चाइना-पाकिस्तान इकोनॉमिक कॉरिडोर (CPEC) के अंतर्गत किया गया चीनी निवेश न सिर्फ़ घाटे की क़वायद साबित हो रहा है, बल्कि पाकिस्तान में चीनी वर्कर्स की सुरक्षा पर भी ज़बरदस्त ख़तरा छाया हुआ है. बताया जा रहा है कि चीन की ओर से पाकिस्तानी सरकार को स्पष्ट शब्दों में बता दिया गया है कि भविष्य में चीनी निवेश इस बात पर निर्भर करेगा कि पाकिस्तान द्वारा विभिन्न परियोजनाओं में कार्यरत चीनी कर्मचारियों की सुरक्षा को लेकर क्या उपाय किए जाते हैं. पाकिस्तानी प्रधानमंत्री शहबाज़ शरीफ़ के पिछले साल जून में हुए बीजिंग दौरे में चीन और पाकिस्तान के बीच हमेशा की तरह तमाम मुद्दों पर खूब लंबी-चौड़ी बातचीत हुई थी, लेकिन उसका कोई ख़ास नतीज़ा देखने को नहीं मिला था. इस तरह की चर्चा आम है कि चीन और पाकिस्तान के द्विपक्षीय रिश्तों में उदासीनता आ गई है, यानी अब पहले जैसी गर्मजोशी नहीं दिख रही है. ऐसा प्रतीत हो रहा है कि पाकिस्तान में चीन की आर्थिक दिलचस्पी अब पहले जैसी नहीं रही है. कहने का मतलब है कि दस साल पहले चीन-पाकिस्तान आर्थिक गलियारा प्रोजेक्ट की शुरुआत के समय दोनों के संबंध बहुत प्रगाढ़ थे और तब इस परियोजना को दोनों देशों के सुरक्षा व सामरिक रिश्तों मज़बीती देने वाला समझा जाता था. चीन द्वारा पिछले कुछ वर्षों के दौरान पाकिस्तान को लगातार यह बताने की कोशिश की जा रही है CPEC के तहत बनाई जा रही परियोजनाओं को आगे बढ़ाने के लिए देश में राजनीतिक स्थिरता (इस्तेहकाम) और पुख़्ता आंतरिक सुरक्षा बेहद ज़रूरी है, क्योंकि इसके बगैर इन परियोजनाओं पर कार्य करना बेहद मुश्किल है. पीएम शहबाज़ शरीफ़ ने जब चीन की यात्रा की थी, तब चीनी राष्ट्रपति शी जिनपिंग ने यह बात उनसे भी कही थी. इतना ही नहीं पाकिस्तान द्वारा आतंकवादियों के ख़िलाफ़ अज़्म-ए-इस्तेहकाम ऑपरेशन का ऐलान करने से ठीक एक दिन पहले पाक दौरे पर आए चीनी मंत्री लियो जियान चाओ ने पाकिस्तानी नेताओं और अधिकारियों के साथ बैठक के दौरान साफ तौर पर कहा था कि “पाकिस्तान में डंवाडोल आंतरिक सुरक्षा एक गंभीर ख़तरा है, साथ ही CPEC के तहत बनाई जा रही परियोजनाओं को आगे बढ़ाने में भी यह सबसे बड़ा रोड़ा है.” उन्होंने यह भी कहा कि “पाकिस्तान में सुरक्षा के लचर हालात चीनी निवेशकों का भरोसा डगमगाने का सबसे बड़ा कारण है.”
इस तरह की चर्चा आम है कि चीन और पाकिस्तान के द्विपक्षीय रिश्तों में उदासीनता आ गई है, यानी अब पहले जैसी गर्मजोशी नहीं दिख रही है. ऐसा प्रतीत हो रहा है कि पाकिस्तान में चीन की आर्थिक दिलचस्पी अब पहले जैसी नहीं रही है.
ज़ाहिर है कि चीन द्वारा लंबे अर्से से पाकिस्तानी सरकार से कहा जा रहा है कि अगर वह देश में कार्यरत चीनी वर्कर्स की सुरक्षा करने में असमर्थ है, तो चीन को अपने सुरक्षा कर्मियों को लाने की मंजूरी दी जानी चाहिए. लेकिन पाकिस्तान द्वारा चीन की मांग को अस्वीकार करते हुए देश में काम करने वाले सभी चीनी नागरिकों को पुख़्ता सुरक्षा मुहैया कराने का आश्वासन दिया गया था. ऐसा लगता है कि इस मामले में अब केवल पाकिस्तान के कोरे आश्वासनों के काम नहीं चलने वाला है, बल्कि पाकिस्तानी सरकार को चीनी नागरिकों की सुरक्षा के मुद्दे पर हक़ीक़त में कुछ ठोस कदम उठाने की ज़रूरत है, ताकि चीनी सरकार को उसकी बातों पर भरोसा हो सके. निसंदेह तौर पर चीन आर्थिक लिहाज़ से पाकिस्तान के लिए बेहद महत्वपूर्ण है और चीनी नागरिकों की सुरक्षा के लिए गंभीर व सख़्त कार्रवाई न केवल चीन को संतुष्ट करने के लिए आवश्यक है, बल्कि पाकिस्तान में आए दिन अपने ख़तरनाक मंसूबों को अंज़ाम देने वाले टीटीपी और बलोच अलगाववादियों समेत दूसरे हथियारबंद आतंकी समूहों को सबक सिखाने के लिए भी ज़रूरी है. इन दिनों पाकिस्तान की अर्थव्यवस्था बुरी तरह से चरमाई हुई है. ख़राब आर्थिक हालातों में घिरे पाकिस्तान को इस समय विदेशी और घरेलू दोनों तरह के निवेश की सबसे अधिक ज़रूरत है. पाकिस्तान में फैली राजनीतिक अस्थिरता और लगातार बदहाल होते जा रहे सुरक्षा हालातों के मद्देनज़र घरेलू और विदेशी, दोनों निवेशक वहां निवेश करने से बच रहे हैं. हालांकि, पाकिस्तान में जिस प्रकार से व्यापक स्तर पर आतंकवाद विरोधी अभियान शुरू किया गया है, कई वजहों से उसे चलाना और मंज़िल तक पहुंचाना बहुत आसान भी नहीं होगा.
दो मुश्किल हालातों में से एक को चुनने की मज़बूरी
सबसे पहली वजह तो यह है कि पाकिस्तान में चलाए जा रहे इस सैन्य ऑपरेशन को लेकर राजनीतिक तौर पर कोई रज़ामंदी नहीं है. ज़ाहिर है कि पाकिस्तान का राजनीतिक माहौल सौहार्दपूर्ण नहीं है, यानी सभी दल एक दूसरे की टांग खिंचाई में लगे हुए है. विपक्ष द्वारा पहले से ही इस अभियान की जमकर आलोचना की जा रही है. इतना ही नहीं, एक सच्चाई यह भी है कि पाकिस्तानी सरकार के पास सही मायने में शासन करने का जनादेश नहीं है, क्योंकि देश की सत्ता पर काबिज राजनीतिक दल ज़बरदस्त विवादों से घिरे और गड़बड़ियों से भरे चुनाव के बाद सरकार में बैठे हुए हैं. दूसरी वजह यह है कि किसी भी मिलिट्री ऑपरेशन में बेतहाशा ख़र्चा होता है. पाकिस्तान के रक्षा बजट में हालांकि लगभग 18 प्रतिशत की बढ़ोतरी की गई है, लेकिन इस सैन्य अभियान के लिए और ज़्यादा राशि की ज़रूरत पड़ेगी. ज़ाहिर है कि आतंकवादियों और कट्टरपंथियों के विरुद्ध शुरू किया गया है यह ऑपरेशन एक लिहाज़ से जंग की तरह है, जिसमें कई जगहों पर तो बेहद भीषण टकराव जैसे हालात पैदा हो सकते हैं. तीसरी वजह यह है कि अगर इस सैन्य अभियान से व्यापक स्तर पर हिंसा फैलती है, तो निश्चित रूप से इससे पाकिस्तान में निवेश करने के इच्छुक ज़्यादातर निवेशकों में भय का वातावरण बन जाएगा. पाकिस्तान में आर्थिक संकट मुंह बाए खड़ा है और अगर ऐसे में देश में बड़े आतंकवादी हमले देखने को मिलते हैं, तो देश की अर्थव्यवस्था के पटरी पर आने की जो थोड़ी-बहुत उम्मीद नज़र आ रही है, वो भी समाप्त हो जाएगी. चौथी वजह यह है कि पाकिस्तान इस सैन्य अभियान के ज़रिए एक ऐसी लड़ाई में फंसने की ओर बढ़ रहा है, जिसका कोई ओर-छोर नज़र नहीं आता है. दरअसल, तहरीक-ए-तालिबान पाकिस्तान यानी टीटीपी का अफ़ग़ान तालिबान के साथ पक्का गठजोड़ है और वो किसी भी सूरत में पाकिस्तानी तालिबान को छोड़ नहीं सकते हैं. इन हालातों में पाकिस्तानी सेना को अफ़गान तालिबान पर शिकंजा कसना होगा और इसके लिए अपने इस अभियान को अफ़ग़ानिस्तान की सीमा में भी ले जाना होगा. ज़ाहिर है कि अगर ऐसा होता है, तो पाकिस्तान फिर से अफ़ग़ानिस्तान के साथ एक लंबी लड़ाई में फंस जाएगा.
विपक्ष द्वारा पहले से ही इस अभियान की जमकर आलोचना की जा रही है. इतना ही नहीं, एक सच्चाई यह भी है कि पाकिस्तानी सरकार के पास सही मायने में शासन करने का जनादेश नहीं है, क्योंकि देश की सत्ता पर काबिज राजनीतिक दल ज़बरदस्त विवादों से घिरे और गड़बड़ियों से भरे चुनाव के बाद सरकार में बैठे हुए हैं.
पांचवी वजह यह है कि पाकिस्तान में आतंकवाद के प्रति बेहद लचर रवैया है. यानी वहां की सरकार और अवाम दोनों में ही बुनियादी स्तर पर आतंकवाद को लेकर वैचारिक स्पष्टता नहीं है और कहीं न कहीं जो सोच है, वो आतंकवाद के ख़िलाफ़ सख़्त रुख अख़्तियार करने का विरोध करने वाली है. ज़ाहिर है कि पाकिस्तान में एक तरफ तो भारत के ख़िलाफ़ जिहाद को प्रोत्साहित किया जाता है और भारत के विरुद्ध साज़िश रचने वाले आतंकवादी समूहों को बढ़ावा देकर उनका सहयोग किया जाता है, वहीं दूसरी ओर पाकिस्तान पर हमला करने वाले इसी तरह के दूसरे आतंकवादी गुटों के ख़िलाफ़ कार्रवाई की जाती है. देखा जाए तो इन विरोधाभासी चीज़ों को एक साथ करना कतई संभव नहीं है. इसके अलावा, पाकिस्तान में चरमपंथ और इस्लामिक कट्टरपंथ का भी जमकर समर्थन किया जाता है, ऐसे में आतंकवाद के ख़िलाफ़ लड़ाई और इस तरह से अभियानों को मज़बूती के साथ आगे बढ़ाना और भी जटिल हो जाता है. पाकिस्तान में न केवल कट्टरपंथी मजहबी राजनीतिक दल तहरीक-ए-लब्बैक के बरेलवी चरमपंथियों जैसे गुटों को बढ़ावा दिया जा रहा है, बल्कि लोगों में कट्टरपंथी विचारधार को भी थोपा जा रहा है. इस तरह के कृत्यों को नज़रंदाज़ किया जाना भी आतंकवाद के ख़िलाफ़ अभियान की राह में और ज़्यादा मुश्किलें खड़ी करेगा. हैरानी की बात यह है कि पाकिस्तानी फ़ौज यह समझ ही नहीं पा रही है कि आतंकवाद का खात्मा चरमपंथ को बढ़ावा देने से नहीं होगा. आतंकवाद के ख़िलाफ़ छेड़े गए पाक सेना के इस अभियान की सफलता इसलिए भी संदिग्ध नज़र आती है, क्योंकि हाल ही में जम्मू में हुए आतंकवादी हमले के बाद पाकिस्तान और भारत के बीच तनाव बढ़ गया है. ऐसे में सवाल उठना लाज़िमी है कि क्या पाकिस्तान अपने ख़िलाफ़ खुले हुए तीन मोर्चों, यानी भारत, अफ़ग़ानिस्तान और आंतरिक अस्थिरता का एक साथ मुक़ाबला करने में सक्षम है?
इसके अलावा, पाकिस्तान में बिगड़ते आर्थिक हालात भी इस सैन्य अभियान की सफलता में एक बड़ी समस्या हैं. हालांकि, पाकिस्तान की आर्थिक दुश्वारियों को आमेरिका (जो आतंकवाद के मुद्दे पर पाकिस्तान के साथ सहयोग करने के विचार से इत्तेफाक रखता है) एवं चीन की मदद से दूर किया जा सकता है, लेकिन इसके लिए सबसे बड़ी दिक़्क़त देश में चल रही राजनीतिक उठापटक है, जिसके आने वाले दिनों में और गहराने की संभावना बनी हुई है. इसकी वजह यह है कि पहले से ही तमाम परेशानियों में घिरे देश के लोगों को भयानक आर्थिक तंगी से जूझना पड़ रहा है और अवाम अपनी ज़्यादातर मुश्किलात के लिए पाकिस्तानी फ़ौज एवं वर्तमान सरकार को ज़िम्मेदार मान रही है. एक अहम बात यह भी है कि अब पानी सिर से ऊपर आ चुका है और पाकिस्तान के पास इतना वक़्त नहीं बचा है कि वो पहले देश की आर्थिक मज़बूती और राजनीतिक स्थिरता का इंतज़ार करे और उसके बाद आतंकवाद का खात्मा करने के लिए कार्रवाई करे. ज़ाहिर है कि पाकिस्तान आतंकवाद और चरमपंथ को कुचलने के लिए जितना ज़्यादा इंतज़ार करेगा, तालिबान का दबदबा उतना ही अधिक बढ़ता जाएगा और फिर आतंकवादियों एवं कट्टरपंथियों पर लगाम लगाना और भी मुश्किल हो जाएगा.
सुशांत सरीन ऑब्ज़र्वर रिसर्च फाउंडेशन में सीनियर फेलो हैं.
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