Expert Speak Raisina Debates
Published on Oct 28, 2024 Updated 0 Hours ago

रूस के सुदूर पूर्व में चीन और रूस के तटरक्षकों के बीच हाल ही में हुआ संयुक्त युद्ध अभ्यास और आर्कटिक क्षेत्र में दोनों देशों की गश्त असल में इस क्षेत्र में अपने अपने हितों की हिफ़ाज़त की साझा रणनीति का हिस्सा है.

आर्कटिक क्षेत्र में चीन-रूस सहयोग का विस्तार

Image Source: Getty

16 सितंबर 2024 को चीन के तटरक्षकों के जहाज़ों और रूस की संघीय सुरक्षा सेवा के सीमा सेवा के जहाज़ों ने ‘पैसिफिक पेट्रोल 2024’ के नाम से एक संयुक्त नौसैनिक अभ्यास किया था. ये साझा अभ्यास रूस के सुदूर पूर्व में पीटर दि ग्रेट खाड़ी में किया गया था. पांच दिनों तक चले इस अभ्यास के बाद दोनों देशों के जहाज़ों ने उत्तरी प्रशांत महासागर, बेरिंग सागर, चुकची सागर और आर्कटिक महासागर 35 दिनों तक गश्त भी लगाई थी. इससे पहले जुलाई 2024 में भी दोनों देशों के सुरक्षाबलों के बीच सहयोग का उदाहरण देखने को मिला था, जब रूस और चीन के चार सामरिक बमवर्षक विमानों ने अलास्का के पास गश्त लगाई थी, जिसकी वजह से अमेरिकी विमानों को उनका पीछा करना पड़ा था.

इस लेख में हम रूस के साथ चीन के संबंधों में आ रहे नए बदलाव और इस वजह से आर्कटिक क्षेत्र में अपने तटरक्षक जहाज़ों को तैनात करने की चीन की बाध्यता की पड़ताल करेंगे.

वैसे तो रूस और चीन ने प्रशांत महासागर या फिर इसके आस-पास के सागरों में अक्सर संयुक्त सैन्य अभ्यास किए हैं. लेकिन, आर्कटिक क्षेत्र में ये हालिया साझा गश्त, दोनों के केंद्रबिंदु में आए एक ख़ास परिवर्तन की तरफ़ इशारा करते हैं. रूस के लिए आर्कटिक का क्षेत्र एक सामरिक इलाक़ा है. वहीं, चीन के प्राथमिक हित प्रशांत महासागर में ही निहित हैं और आर्कटिक पर ध्यान देना उसके लिए उतना अहम नहीं है. इसलिए, इस लेख में हम रूस के साथ चीन के संबंधों में आ रहे नए बदलाव और इस वजह से आर्कटिक क्षेत्र में अपने तटरक्षक जहाज़ों को तैनात करने की चीन की बाध्यता की पड़ताल करेंगे.

 

आर्कटिक क्षेत्र और रूस का रिश्ता

 

ज़ार शासकों के दौर से ही आर्कटिक क्षेत्र, बड़ी गहराई से रूस की राष्ट्रीय चेतना से जुड़ा रहा है, और शीत युद्ध के दौरान ये इलाक़ा दो महाशक्तियों के बीच सामरिक जंग का मैदान बन गया था. हालांकि, जब शीत युद्ध समाप्त हो गया तो महाशक्तियों की इस क्षेत्र में दिलचस्पी भी ख़त्म हो गई. हाल के वर्षों में पिघलते सागरों, नए व्यापारिक मार्गों के खुलने और इस क्षेत्र में तेल, गैस और खनिजों की प्रचुर प्राकृतिक संपदा के साथ साथ पर्यटन और जहाज़ों की आवाजाही के लिहाज़ से इस क्षेत्र की संभावनाओं ने एक बार फिर से आर्कटिक क्षेत्र में दुनिया की दिलचस्पी जगा दी है. इनमें चीन और आर्कटिक क्षेत्र से दूर स्थित तमाम अन्य देश भी शामिल हैं.

 

जब 2007 में संयुक्त राष्ट्र के समुद्र से संबंधित नियमों की संधि (UNCLOS) के तहत आर्कटिक क्षेत्र पर रूस के 12 लाख वर्ग किलोमीटर के समुद्री इलाक़े पर दावे को ख़ारिज कर दिया गया था, तब अपनी महत्वाकांक्षा को रेखांकित करने के लिए रूस ने परमाणु शक्ति से लैस एक बर्फ़ तोड़ने वाला जहाज़ और दो छोटी पनडुब्बियां आर्कटिक क्षेत्र में भेजी थीं और रूस के जहाज़ों ने आर्कटिक की समुद्री तलहटी में लोमोनोसोव रिज के पास टाइटेनियम से बना रूस का झंडा स्थापित कर दिया था. उसके बाद से रूस आर्कटिक क्षेत्र को विकसित करने और उत्तरी समुद्री मार्गों को खोलने पर अपना पूरा ध्यान केंद्रित किए हुए है, ताकि इस क्षेत्र पर अपनी संप्रभुता को स्थापित कर सके, अपने आर्थिक हितों की रक्षा कर सके और एक बड़ी ताक़त की अपनी हैसियत को बनाए रख सके.

 

यही नहीं, 2007 के बाद से रूस ने आर्कटिक क्षेत्र में अपनी नौसेना, थल सेना की तैनाती बढ़ाने के साथ ही कारोबारी मौजूदगी में भी इज़ाफ़ा किया है. पुनर्गठित की गई संयुक्त सामरिक कमान उत्तरी, रूस के आर्कटिक क्षेत्र में तैनात सैन्य बलों को नियंत्रित करती है. इनमें ध्रुवों पर तैनात टैंक, बोरेई दर्जे की एटमी पनडुब्बियां, सामरिक बमवर्षक, गाइडेड मिसाइलों से लैस जंगी जहाज़ और परमाणु हमले के ख़तरे से निपटने वाले सैन्य बल सामिल हैं. रूस के पास बर्फ़ तोड़ने वाला दुनिया का सबसे बड़ा बेड़ा और विशेष रूप से आर्कटिका दर्जे के जहाज़ भी हैं. रूस की इस सैन्य शक्ति को कई वायु सैनिक अड्डों से और ताक़त मिलती है. इनमें 545 सैन्य सुविधा केंद्र, परमाणु ऊर्जा के तैरते केंद्र, गैस निकालने के अड्डे, ऊर्जा के टर्मिनल और दो अहम समुद्री मार्ग: स्वेज़ नहर की तुलना में एशिया और यूरोप के बीच की दूरी कम करने वाला(20 हज़ार किलोमीटर के बजाय 13 हज़ार किलोमीटर लंबा) उत्तरी समुद्री मार्ग और उत्तर पश्चिम जाने का मार्ग. हालांकि इन दोनों ही रास्तों से गुज़रना एक चुनौती बना हुआ है. रूस का पहल करके बढ़त हासिल करने और भौगोलिक रूप से आर्कटिक के क़रीब होने की वजह से इस इलाक़े में उसका लगभग एकाधिकार है. अब उसकी इस हैसियत को पश्चिमी ताक़तें लगातार चुनौती देने की कोशिश कर रही हैं.

 

नैटो (NATO) और आर्कटिक में फिर बढ़ती सैन्य मौजूदगी

 

वैसे तो आर्कटिक में रूस द्वारा अपना झंडा लगाने से पश्चिमी देशों की चिंता बढ़ गई थी. लेकिन, कनाडा से लेकर आइसलैंड तक पश्चिमी देशों के बीच आपसी मतभेदों ने उनकी तरफ़ से संयुक्त जवाबी कार्रवाई करने में देर कर दी. हालांकि, उसके बाद के वर्षों में अमेरिका की अगुवाई में नैटो ने अधिक सक्रियता वाला रवैया अपनाया है. 2022 और फिर 2024 में अमेरिकी सरकार ने इस क्षेत्र में अपने सहयोगियों को सैनाओं की तैनाती बढ़ाने के लिए प्रोत्साहित करने के साथ साथ अपने हितों की रक्षा के लिए अपनी आर्कटिक रणनीति को अपडेट किया था. अमेरिका ने अलास्का में अपने पांच और ग्रीनलैंड में एक सैनिक अड्डे की क्षमताओं को भी बेहतर बनाया है. इन अड्डों पर अमेरिका ने अपने उन्नत लड़ाकू विमान और दूसरे हवाई संसाधन तैनात किए हैं और अपनी सेना की 11वीं एयरबॉर्न डिवीजन का रुख़ भी बदला है. इसके अतिरिक्त अमेरिकी संसद ने आर्कटिक सिक्योरिटी इनिशिएटिव बिल को भी मंज़ूरी दे दी है, जिससे उत्तरी इलाक़ों में अमेरिका की रक्षा क्षमताओं को बेहतर बनाने के लिए एक नया बजट स्थापित किया गया है.

रूस का पहल करके बढ़त हासिल करने और भौगोलिक रूप से आर्कटिक के क़रीब होने की वजह से इस इलाक़े में उसका लगभग एकाधिकार है. अब उसकी इस हैसियत को पश्चिमी ताक़तें लगातार चुनौती देने की कोशिश कर रही हैं.

इन कोशिशों में नाटो के अन्य सदस्य देशों ने भी अपना योगदान दिया है. ब्रिटेन ने अपनी आर्कटिक नीति की कई रूप-रेखाओं को लागू किया है और एक कमांडो सैन्य बल को खड़ा किया है. वहीं फ्रांस ने अपनी 2030 के लिए ध्रुवीय रणनीति के तहत अपनी पनडुब्बियां और जहाज़ आर्कटिक क्षेत्र में भेजने शुरू कर दिए हैं. स्वीडन, नॉर्वे, फिनलैंड, आइसलैंड और डेनमार्क ने भी अपनी नौसैनिक और सैन्य क्षमताओं में बढ़ोत्तरी की है, जिनका मक़सद आर्कटिक में अपनी सामरिक स्थिति को और मज़बूत बनाना है.

 

नैटो देशों ने आपसी तालमेल के साथ आर्कटिक क्षेत्र में कई संयुक्त सैन्य अभ्यास भी किए हैं, जिनमें कोल्ड रिस्पॉन्स 2022, इमीडिएट रिस्पॉन्स 2024, आर्कटिक एज 2024, आइस कैंप 2024 और नॉर्डिक रिस्पॉन्स 2024 शामिल है. रूस और चीन इन गतिविधियों को आर्कटिक क्षेत्र में अपनी विश्वसनीयता और सैन्य मौजूदगी बढ़ाने के लिए नाटो द्वारा उठाए गए सामरिक क़दम के तौर पर देखते हैं.

 

रूस यूक्रेन युद्ध के बाद से आर्कटिक की स्थिति

 

फरवरी 2022 में रूस और यूक्रेन के बीच युद्ध शुरू होने के बाद, रूस को छोड़कर आर्कटिक परिषद के सात सदस्यों ने एक संयुक्त बयान जारी करके रूस के हमले की आलोचना की थी और रूस की इस परिषद के अध्यक्ष की हैसियत को ख़ारिज कर दिया था. इसके जवाब में रूस ने नॉर्दर्न डायमेंशन और बैरेंट्स सी यूरो- आर्कटिक काउंसिल से ख़ुद को अलग कर लिया था, जिसकी वजह से आर्कटिक के संयुक्त प्रबंधन के सारे मंच निष्प्रभावी हो गए थे. इसकी वजह से व्यापार,, आर्थिक सहयोग, क्षेत्रीय परियोजनाओं में निवेश, जहाज़ों के मार्गों, वैज्ञानिक रिसर्च और सुरक्षा एवं आपातकालीन स्थिति से निपटने में सहयोग समेत सब पर इसका बुरा असर पड़ा है.

आर्कटिक का प्रशासन निष्प्रभावी हो जाने की वजह से इस क्षेत्र में सैन्य मौजूदगी बढ़ गई है. क्योंकि, रूस और पश्चिमी देश दोनों ही यहां अपना अपना दबदबा क़ायम करने में जुट गए हैं. 

आर्कटिक का प्रशासन निष्प्रभावी हो जाने की वजह से इस क्षेत्र में सैन्य मौजूदगी बढ़ गई है. क्योंकि, रूस और पश्चिमी देश दोनों ही यहां अपना अपना दबदबा क़ायम करने में जुट गए हैं. 2023 में फिनलैंड और 2024 में स्वीडन के नाटो का सदस्य बनने की वजह से आर्कटिक के तीन प्रमुख पक्षों (अमेरिकी गुट, रूसी गुट और निरपेक्ष नॉर्डिक समूह) के बीच का संतुलन भी बिगड़ चुका है. अमेरिका और नॉर्डिक गुट के विलय की वजह से आर्कटिक में नाटो देशों का दबदबा बढ़ गया है, जिससे रूस के लिए बहुत बड़ी चुनौती खड़ी हो गई है. इसी वजह से अब रूस, चीन के साथ तालमेल करके आर्कटिक क्षेत्र में दोबारा संतुलन साधने की कोशिश कर रहा है. इसके साथ साथ रूस को अलग करके नॉर्डिक प्लस मॉडल स्थापित करने की परिचर्चाएं भी रूस को चीन से सहयोग बढ़ाने को मजबूर कर रही हैं, ताकि वो इलाक़े के प्रबंधन का एक वैकल्पिक मॉडल खड़ा करे और पश्चिमी देशों के मक़सद में रोड़ा डाल सके.

 

आर्कटिक क्षेत्र में चीन के हित

 

चीन, 2013 में आर्कटिक परिषद में पर्यवेक्षक बना था और वो ख़ुद को आर्कटिक क्षेत्र का क़रीबी देश मानता है. जबकि चीन आर्कटिक से 900 मील की दूरी पर स्थित है. यही नहीं, चीन आर्कटिक के प्रशासन में अपनी भागीदारी की महत्वाकांक्षा को भी नहीं छुपाता है. चीन इस क्षेत्र में एक शांतिपूर्ण और स्थिर व्यवस्था क़ायम करने का समर्थक है और वो यहां सेनाओं की बढ़ती मौजूदगी का विरोध करता है. 

 

हालांकि, आर्कटिक को लेकर चीन की रणनीति में चार अहम विरोधाभास हैं. पहला, ख़ुद को आर्कटिक की एक वैध शक्ति के तौर पर स्थापित करने के लिए चीन को अभी और प्रयास करने होंगे. दूसरा, उसको रूस और आर्कटिक क्षेत्र के अन्य देशों के साथ संबंधों में संतुलन बिठाना होगा. तीसरा, आर्कटिक के मामलों में चीन की ज़रूरत से ज़्यादा आक्रामकता, अमेरिका के साथ संघर्ष की स्थिति पैदा कर सकती है. आख़िर में, रूस के साथ चीन की नज़दीकी साझेदारी से अमेरिका और चीन के बीच तनाव बढ़ सकता है. ये विरोधाभास चीन के लिए एक जटिल चुनौती पेश करते हैं, जिससे वो कुशलता से निपटना चाहता है. यही वजह है कि आर्कटिक क्षेत्र को लेकर चीन बहुत सावधानी से क़दम उठा रहा है.

 

इसके बावजूद, आर्कटिक का इलाक़ा चीन के लिए मूल्यवान है. क्योंकि वहां के ऊर्जा स्रोतों में निवेश करना और वहां से आयात करना उसके लिए जल्दी पहुंचने वाला और सस्ता विकल्प होगा और इससे मलक्का जलसंधि को लेकर चीन की दुविधा भी समाप्त हो जाएगी. अपेक्षा के मुताबिक़ रूस लगातार चीन के निवेश का स्वागत कर रहा है और इस क्षेत्र से जहाज़ों की आवाजाही का रास्ता खोलने और इसके रखरखाव में चीन से सहयोग कर रहा है. इसी वजह से चीन ने इस क्षेत्र में विकास कार्यों को ‘आइस सिल्क रोड’ के नाम से अपने बेल्ट ऐंड रोड इनिशिएटिव का हिस्सा बना लिया है.

 

निष्कर्ष

 

आर्कटिक क्षेत्र के विकास में चीन के प्रयास काफ़ी ठोस दिख रहे हैं. इनमें ज़रुबिनो बंदरगाह, अर्खांगेलस्क का गहरे समुद्र वाला बंदरगाह और संभवत: अर्खांगेलस्क को एक रेलवे लाइन से साइबेरियन रेलवे से जोड़ने की परियोजना भी शामिल है. अपने निवेशों, ऊर्जा संसाधनों और जहाज़ों के मार्गों की हिफ़ाज़त के लिए चीन, पिछले कुछ वर्षों के दौरान रूस के साथ अपने सैन्य सहयोग को लगातार बढ़ावा दे रहा है. वोस्तोक 2018, रूस की अगुवाई वाले किसी सैन्य अभियान में पहले बड़े पैमाने पर चीन की भागीदारी वाला सैन्य अभ्यास था, और उसके बाद से ही दोनों देशों के बीच अलग अलग क्षेत्रों में तमाम संयुक्त सैन्य अभ्यास हो रहे हैं.

चीन जानबूझकर आर्कटिक क्षेत्र में सैन्य मौजूदगी बढ़ाने में अपनी दिलचस्पी को कम करके पेश करता है और अपने तटरक्षकों की गश्त के ज़रिए क़ानून व्यवस्था क़ायम करने में दिलचस्पी दिखाकर अपनी उपस्थिति को सीमित रखना चाहता है.

रूस के सुदूर पूर्वी इलाक़े में रूस और चीन के तटरक्षकों का हालिया संयुक्त अभ्यास और आर्कटिक क्षेत्र में उनकी गश्त भी युद्ध अभ्यासों के इसी सिलसिले की एक कड़ी था, जिसमें दोनों देशों ने आपस में सहयोग करके रणनीतियां साझा कीं, ताकि इस क्षेत्र में अपने हितों की रक्षा कर सकें. इसके बावजूद, चीन जानबूझकर आर्कटिक क्षेत्र में सैन्य मौजूदगी बढ़ाने में अपनी दिलचस्पी को कम करके पेश करता है और अपने तटरक्षकों की गश्त के ज़रिए क़ानून व्यवस्था क़ायम करने में दिलचस्पी दिखाकर अपनी उपस्थिति को सीमित रखना चाहता है. वहीं रूस के लिए चीन एक आर्थिक रूप से ताक़तवर शक्ति है, जो आर्कटिक क्षेत्र में उसका ऐसा जूनियर पार्टनर है, जिससे रूस को ख़तरा नहीं है. इससे रूस को यहां पर अपने दबदबे और प्रमुख हैसियत के लिए चुनौती खड़ी किए बग़ैर अहम परियोजनाओं को आगे बढ़ाने का मौक़ा मिलता है. इसीलिए रूस और चीन के संयुक्त सैन्य अभ्यास और सामरिक बमवर्षक विमानों की गश्त, दोनों देशों के मौजूदा साझा हितों की पूर्ति करती है.

The views expressed above belong to the author(s). ORF research and analyses now available on Telegram! Click here to access our curated content — blogs, longforms and interviews.