Published on Jul 03, 2017 Updated 13 Days ago

आर्थिक दमन के औज़ार के रूप में राष्ट्रवाद अब असरदार नहीं है.

एयर इंडिया ने भरी टाटा ग्रुप में वापसी की उड़ान; जानिये भारत की सबसे बड़ी नीतिगत नाक़ामी का संक्षिप्त इतिहास!

जिस वक़्त देश भारत के सबसे ख़राब सार्वजनिक उपक्रमों (पब्लिक सेक्टर अंडरटेकिंग यानी पीएसई) में से एक एयर इंडिया में सरकारी ख़ज़ाने और वित्तीय बर्बादी के बोझ को लेकर राहत महसूस कर रहा है, क्योंकि उस पर अब टाटा समूह का मालिकाना हक़ होने जा रहा है, उस वक़्त दो शख़्स और एक बहादुर कंपनी को शुक्रिया अदा करने की ज़रूरत है.

पहले शख़्स प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी हैं जिन्होंने आर्थिक सुधार के लिए राजनीतिक दृढ़ निश्चय मुहैया कराया. ये एक ऐसे संगठन के इर्द-गिर्द साहसिक फ़ैसला है जो आम लोगों के टैक्स के पैसे वाली राजनीति पर अधिकार जमाकर मौज मनाता है, जिसने प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह की सरकार के दौरान विनिवेश की प्रक्रिया को बाधित कर दिया. सुधार को लेकर मोदी के दृढ़ विश्वास का समय और उसे लागू करने की ताक़त उस वक़्त लोगों को आकर्षित करती है जब तीन कृषि क़ानूनों के ज़रिए वो भारत के सबसे बड़े कृषि सुधारों पर मोल-तोल कर रहे हैं. दूसरे शख़्स पूर्व नागरिक उड्डयन मंत्री हरदीप पुरी हैं जिन्होंने 2017 से लगातार इस प्रक्रिया की देखरेख की. इस दौरान हरदीप पुरी को विनिवेश के पहले दौर की नाकामी के लिए आलोचनाओं का सामना भी करना पड़ा और फिर सरकार और संभावित बोली लगाने वालों के लिए पूरी प्रक्रिया को आकर्षक बनाने के नाम पर इसमें बदलाव भी करना पड़ा. इस बात के लिए पुरी की तारीफ़ करनी पड़ेगी कि उन्होंने पूरी प्रक्रिया की बारीकियों का ध्यान रखा, अलग-अलग हितों को संतुलित किया और नीतिगत प्रक्रिया को सुनिश्चित किया.

हरदीप पुरी को विनिवेश के पहले दौर की नाकामी के लिए आलोचनाओं का सामना भी करना पड़ा और फिर सरकार और संभावित बोली लगाने वालों के लिए पूरी प्रक्रिया को आकर्षक बनाने के नाम पर इसमें बदलाव भी करना पड़ा. 

इस प्रक्रिया में टैलेस प्राइवेट लिमिटेड, जो कि टाटा संस की एक सहायक कंपनी है, के ज़रिए बहादुर कंपनी टाटा समूह है. टाटा समूह बहादुर इसलिए है क्योंकि एयर इंडिया कर्मचारियों की, कर्मचारियों के लिए और कर्मचारियों के द्वारा कंपनी में तब्दील हो गई है. वो कर्मचारी जिन्हें काफ़ी ज़्यादा वेतन और सुविधाएं (ऐसी सुविधाएं भी शामिल हैं जिसके तहत ऐसे पायलट को भी उड़ान भत्ता मिलता है जो विमान उड़ाते ही नहीं और कर्मचारियों को अपने और अपने परिवार के लिए मुफ़्त इंटरनेशनल टिकट मिलते हैं) दी जाती हैं. इस तरह के कर्मचारियों को संभालना, जिनके हितों का “ख्याल रखा जाएगा,” एक ऐसे उद्योग के लिए चुनौती है जिसकी कामयाबी सेवा की कार्यक्षमता पर निर्भर है लेकिन सेवा की ये दक्षता एयर इंडिया के डीएनए का हिस्सा ही नहीं है.

18,000 करोड़ रुपये के एंटरप्राइज़ वैल्यू वाले इस सौदे में एयर इंडिया की सहायक कंपनी एयर इंडिया एक्सप्रेस और एयर इंडिया सैट्स एयरपोर्ट सर्विसेज़ शामिल हैं लेकिन एयर इंडिया की 14,718 करोड़ रुपये की क़ीमत की ग़ैर-मूलभूत संपत्तियां शामिल नहीं हैं, जिनमें प्रमुख जगहों पर स्थित उसकी रियल एस्टेट संपत्तियां शामिल हैं, जिन्हें एयर इंडिया एसेट होल्डिंग को ट्रांसफर किया जाएगा. पांच अन्य बोली लगाने वालों को अयोग्य करार दिए जाने के बाद एयर इंडिया के लिए प्रतिस्पर्धी बोली अजय सिंह के नेतृत्व वाले कंसोर्टियम ने भी लगाई जिसका एंटरप्राइज़ वैल्यू 15,100 करोड़ रुपये था.

टाटा के लिए एयर इंडिया को ख़रीदना कारोबारी फ़ैसले के साथ-साथ भावनात्मक भी है. भावनात्मक इसलिए क्योंकि 1953 में एयर इंडिया को अचानक छीन लिया गया था. 

ये लेन-देन दो महीनों में यानी दिसंबर 2021 तक पूरा हो जाएगा और इसके लिए टाटा समूह को हर तरह के कौशल की ज़रूरत पड़ेगी. 2002 में टाटा समूह ने इसी तरह के एक और संगठन वीएसएनएल के लिए ये काम सफलतापूर्वक किया है. इसलिए टाटा समूह एयर इंडिया के साथ भी उस सफ़लता को दोहरा सकता है. टाटा के लिए एयर इंडिया को ख़रीदना कारोबारी फ़ैसले के साथ-साथ भावनात्मक भी है. भावनात्मक इसलिए क्योंकि 1953 में एयर इंडिया को अचानक छीन लिया गया था.

अतीत में संपत्तियों के राष्ट्रीयकरण की कहानी

68 साल के बाद जब हम उस क़ानून को देखते हैं जिसके ज़रिए टाटा समूह से एयर इंडिया को छीना गया था तो हमें अर्थव्यवस्था की ठीक ढंग से देखभाल करने के कई सबक़ मिलते हैं. भारत के पूरे नागरिक उड्डयन उद्योग के राष्ट्रीयकरण के साथ एयर इंडिया का राष्ट्रीयकरण प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू के सबसे ख़राब आर्थिक नीतिगत फ़ैसलों में से एक है. ये सिर्फ़ फ़ैसले की वजह से नहीं है क्योंकि कई प्रधानमंत्रियों ने कई नीतिगत ग़लतियां की हैं. ये इस वजह से भी नहीं है कि फ़ैसला व्यापक अर्थव्यवस्था के लिए नागरिक उड्डयन सेक्टर के महत्व को नज़रअंदाज़ करके लिया गया था. इस बात को भी छोड़ा जा सकता है. लेकिन जिस चीज़ को नज़रअंदाज़ नहीं किया जा सकता है वो हैं- अर्थव्यवस्था के ऊपर इस वैचारिक बोझ की राजनीतिक जीत, कारोबार के लिए प्रोत्साहन का उल्लंघन, दौलत बनाने वालों के लिए अनिश्चितता और नौकरी पैदा करने वालों के लिए डर. एयर कॉरपोरेशन एक्ट, 1953 के तहत नेहरू ने 9 एयरलाइंस- एयर इंडिया, एयर सर्विसेज़ ऑफ इंडिया, एयरवेज़ (इंडिया), भारत एयरवेज़, डेक्कन एयरवेज़, हिमालयन एयरवेज़, इंडियन नेशनल एयरवेज़, कलिंग एयरलाइंस और एयर इंडिया इंटरनेशनल का राष्ट्रीयकरण किया और इन कंपनियों को दो सार्वजनिक उपक्रमों- इंडियन एयरलाइंस और एयर इंडिया इंटरनेशनल के तहत लाया गया. रातों-रात किसी व्यक्ति के द्वारा एयरलाइंस चलाने के कारोबार को अवैध बना दिया गया. ऐसा करने पर धारा 18(2) के तहत हर विमान के लिए न्यूनतम 1,000 रुपये के जुर्माने से लेकर अधिकतम तीन महीने की सज़ा या दोनों का प्रावधान किया गया.

भारत के पूरे नागरिक उड्डयन उद्योग के राष्ट्रीयकरण के साथ एयर इंडिया का राष्ट्रीयकरण प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू के सबसे ख़राब आर्थिक नीतिगत फ़ैसलों में से एक है. ये सिर्फ़ फ़ैसले की वजह से नहीं है क्योंकि कई प्रधानमंत्रियों ने कई नीतिगत ग़लतियां की हैं

एक तरफ़ जहां नेहरू के 1948 के प्रस्ताव ने कारोबारियों को भारत की आर्थिक गतिविधियों से पहले ही अलग-थलग कर दिया था, वहीं इस इकलौते प्रयोग की राजनीतिक सफ़लता ने प्राइवेट सेक्टर के ख़िलाफ़ सरकार के रुख़ को मज़बूत कर दिया (पूंजीवाद विरोधी नीतियों ने वैचारिक-राजनीतिक शाबाशी दी). इसने नेहरू के 1956 के औद्योगिक नीति प्रस्ताव और उनकी बेटी प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी की 1973 और 1980 की औद्योगिक नीति की रचना के विचार को प्रेरित किया. इससे भी बढ़कर, इसने कई और क्षेत्रों के सिलसिलेवार राष्ट्रीयकरण की बाधा को दूर किया. राष्ट्रीयकरण अर्थव्यवस्था की किसी भी समस्या के इलाज की नीति बन गया.

उदाहरण के लिए, नागरिक उड्डयन सेक्टर के राष्ट्रीयकरण के तीन साल के बाद नेहरू ने 1956 में जीवन बीमा का भी राष्ट्रीयकरण कर दिया. इस दौरान नेहरू ने एक आडंबरपूर्ण बयान दिया जिसकी वैचारिक जड़ें तो थीं लेकिन कोई आर्थिक शाखा नहीं थी: “समाजवादी समुदाय की तरफ़ हमारे कूच में जीवन बीमा का राष्ट्रीयकरण एक महत्वपूर्ण क़दम है.” जीवन बीमा निगम अधिनियम, 1956 के ज़रिए नेहरू ने 154 भारतीय बीमा कंपनियों, 16 विदेशी बीमा कंपनियों और 75 प्रॉविडेंट सोसायटी का राष्ट्रीयकरण करके एक संस्था, भारतीय जीवन बीमा निगम (एलआईसी), में बदल दिया. लेकिन एलआईसी भी बिगड़कर एजेंट का, एजेंट के द्वारा और एजेंट के लिए संगठन में बदल गया है, जहां उपभोक्ताओं के लिए या उपभोक्ताओं के हितों में थोड़ी सी ही चिंता है; इसका आंशिक विनिवेश हर हाल में पूर्ण निजीकरण में तब्दील होना चाहिए.

व्यवस्थित रूप से कारोबारियों को भारत के ख़राब लोगों में शामिल कर दिया गया. इस हद तक राष्ट्रीयकरण के साथ पहला प्रयोग, एयर इंडिया और आठ अन्य एयरलाइंस का, 1991 तक बेहद कामयाब रहा. लेकिन उसके बाद प्रधानमंत्री पीवी नरसिम्हा राव ने इस रुझान को पलटना शुरू कर दिया और मोदी के नेतृत्व में इसमें तेज़ी आई. 

इंदिरा गांधी भी नेहरू के क़दमों पर चलीं. 19 जुलाई 1969 को उन्होंने बैंकिंग कंपनीज़ (उपक्रमों का अधिग्रहण और हस्तांतरण) अधिनियम, 1970 के ज़रिए 15 बैंकों का राष्ट्रीयकरण किया. ये क़ानून आठ महीने बाद 31 मार्च 1970 को लागू किया गया लेकिन इसे पहले से ही शुरू माना गया. इस राष्ट्रीयकरण की तथाकथित वजह कुछ लोगों के नियंत्रण को हटाना बताया गया. साथ ही कृषि, छोटे उद्योगों और निर्यात के लिए पर्याप्त कर्ज़ मुहैया कराना; बैंक प्रबंधन को पेशेवर प्रवृत्ति देना और कारोबारियों के नये वर्ग को प्रोत्साहित करना भी राष्ट्रीयकरण की वजहों में शामिल थे. लेकिन इनमें से किसी में भी कामयाबी नहीं मिली. साफ़ तौर पर इस नीतिगत नाकामी के बावजूद इंदिरा गांधी ने 1980 में बैंकों के राष्ट्रीयकरण के दूसरे चरण को लागू किया. इस बार 6 और बैंकों का राष्ट्रीयकरण किया गया.

बैंकों के राष्ट्रीयकरण के इन दो चरणों के बीच इंदिरा गांधी ने 1972 में सामान्य बीमा का राष्ट्रीयकरण किया. सामान्य बीमा व्यवसाय (राष्ट्रीयकरण) अधिनियम, 1972 के द्वारा उन्होंने 55 भारतीय कंपनियों और 52 विदेशी बीमा कंपनियों के सामान्य बीमा व्यवसाय का राष्ट्रीयकरण किया. 1971, 1972, 1973 और 1975 में चार चरणों के दौरान उन्होंने कोयला खदानों का भी राष्ट्रीयकरण किया. जिस किसी सेक्टर का राष्ट्रीयकरण हुआ वो कमज़ोर होता गया. ज़िम्मेदारी की कमी, आडंबरपूर्ण और ‘ऊंचे’ उद्देश्यों ने सिर्फ़ राजनीतिक वर्ग और उससे जुड़ी नौकरशाही की सेवा की. काला पत्थर (1979) जैसी फ़िल्मों ने राष्ट्रीयकरण के रूप में इस वित्तीय आपातकाल की शक्तिशाली सोच को बनाया और उसे मज़बूत किया. व्यवस्थित रूप से कारोबारियों को भारत के ख़राब लोगों में शामिल कर दिया गया. इस हद तक राष्ट्रीयकरण के साथ पहला प्रयोग, एयर इंडिया और आठ अन्य एयरलाइंस का, 1991 तक बेहद कामयाब रहा. लेकिन उसके बाद प्रधानमंत्री पीवी नरसिम्हा राव ने इस रुझान को पलटना शुरू कर दिया और मोदी के नेतृत्व में इसमें तेज़ी आई.

आगे का रास्ता

जितने भी निजीकरण हुए हैं, उनमें एयर इंडिया का निजीकरण सबसे विवादित रहा है. इस काम में मोदी, जो पीवी नरसिम्हा राव के बाद सबसे सुधारवादी प्रधानमंत्री हैं, को भी सात साल लग गए. इससे पता चलता है कि ये विचार और इसके चारों और जमा इकोसिस्टम कितना गहरा है. अब जब ये बाधा दूर हो गई है और करदाताओं का पैसा एयर इंडिया के कर्मचारियों की शानो-शौकत को पूरा करने में बर्बाद नहीं होगा तो मोदी को दूसरे सार्वजनिक उपक्रमों के निजीकरण को आगे बढ़ाना होगा. इसकी शुरुआत तेल कंपनी बीपीसीएल और बीमा कंपनी एलआईसी से की जानी चाहिए. लेकिन ये दोनों कंपनियां सिर्फ़ शुरुआत करने के लिए हैं. इंडियन ऑयल, एचपीसीएल जैसी तेल कंपनियां, टेलीकॉम सेक्टर के सफ़ेद हाथी एमटीएनएल और बीएसएनएल और कई बैंक भी निजीकरण का इंतज़ार कर रहे हैं.

भारत के भविष्य के कारोबार सरकार, नौकरशाह या सार्वजनिक उपक्रमों के कर्मचारियों के द्वारा नहीं बल्कि उन व्यवसायियों के द्वारा चलाया जाना चाहिए जिन्हें इस तरह के कारोबार को चलाने की समझ हो. 

भारत के भविष्य के कारोबार सरकार, नौकरशाह या सार्वजनिक उपक्रमों के कर्मचारियों के द्वारा नहीं बल्कि उन व्यवसायियों के द्वारा चलाया जाना चाहिए जिन्हें इस तरह के कारोबार को चलाने की समझ हो. सरकार की भूमिका एक क़ानूनी और नियामक तौर-तरीक़े बनाने और सुनिश्चित करने की हो जिससे निजी कारोबार आकार ले, नौकरी बने, कर मिले और दौलत का निर्माण करे. 21वीं शताब्दी में और 2.7 ट्रिलियन अर्थव्यवस्था के किनारे पर बैठे देश के लिए उड़ान भरने और वैश्विक सीढ़ी चढ़ने की ज़रूरत है. इन कारोबार के द्वारा दिए गए कर और वैल्यू की रचना से सरकार वो सभी कुछ कर सकती है जो भारत जैसे मध्यम आय वाले देश में करने की ज़रूरत है जैसे- स्वास्थ्य देखभाल का विस्तार, शिक्षा को मज़बूत करना और इंफ्रास्ट्रक्चर का निर्माण.

यहां पर हमें ये सुनिश्चित करने की ज़रूरत है कि राष्ट्रीयकरण जैसे छीनने वाले विचार को उस जगह रखने की ज़रूरत है, जहां से वो आते हैं यानी नीतिगत लाइब्रेरी के अंधेरे तख्त़े पर. निश्चित रूप से उनका अध्ययन होना चाहिए और उन पर सावधानी से विश्लेषण करना चाहिए ख़ास तौर पर आरोपित लाभार्थियों और निजी फ़ायदे के लिए करदाताओं के पैसे पर कब्ज़ा करने के नज़रिये के हिसाब से. एयर इंडिया में विनिवेश और टाटा को उसकी वापसी इस दिशा में एक प्रशंसनीय क़दम है.

एकमात्र बाधा जो इस प्रक्रिया को रोक सकती है वो है न्यायपालिका. करदाताओं के रूप में हम उम्मीद करते हैं कि अदालतें ऐसी किसी भी जनहित याचिका पर विचार नहीं करेंगी जो विनिवेश की इस प्रक्रिया को पीछे की ओर ले जाती है. पिछले कुछ दशकों के दौरान हमने कई चालें देखी हैं जो क़ानून की प्रक्रिया का दुरुपयोग करती हैं और निजी लाभ के लिए न्यायपालिका का इस्तेमाल करती हैं. 1991 में नरसिम्हा राव की मजबूरी के साथ विनिवेश की जो प्रक्रिया शुरू हुई वो 2021 में नरेंद्र मोदी के दृढ़ निश्चय में परिपक्व हो चुकी है. ये यात्रा हर हाल में जारी रहनी चाहिए.

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