घाटी में आतंकवाद के ख़िलाफ़ सुरक्षाबलों के जारी अभियान की वजह से इस सर्दी में शून्य से नीचे तापमान में भी घाटी उबल रही है। इस बार सुरक्षाबलों ने अपनी रणनीति बदली है और सर्दी के मौसम में भी आतंकवाद के ख़िलाफ़ ऑपरेशन में कमी नहीं करने का रास्ता अख़्तियार किया है, क्योंकि इस मौसम में आतंकी अपने बर्फ़ से ढके ठिकाने से बाहर आने और ख़ुद को एक्सपोज़ करने को मजबूर होते हैं और ऐसे में सुरक्षाबलों के लिए उन्हें बेअसर करना आसान हो जाता है।
सिर्फ़ पिछले दो महीनों में, सुरक्षाबलों ने 62 आतंकियों को ढेर कर दिया है। अकेले नवंबर में 40 आतंकी मारे गए, दिसंबर में 19 और जनवरी में अब तक 3। इन तीन महीनों में मारे गए आतंकियों की संख्या पिछले तीन सालों में इस अवधि में मारे गए आतंकियों की संख्या से काफ़ी ज़्यादा है। हालांकि, दिसंबर का हमला सुर्ख़ियों में रहा जब सुरक्षाबलों ने गज़वात-उल-हिंद के ज़्यादातर सदस्यों को मार गिराया, जिसका मुखिया ज़ाकिर मूसा है।
सर्दियों के महीनों में, सुरक्षित ठिकानों की तलाश मेंआतंकवादी आमतौर पर जंगलों और पहाड़ों में अपने ठिकानों को छोड़कर घाटी में शहरों और गांवों के आबादी वाले इलाक़ों में आ बसते हैं। दूसरी ओर, यदि मजबूरन आतंकियों को बर्फ़ से ढके पहाड़ों में रहना होता है तो वो अपनी गतिविधियों को लेकर बेहद चौकन्ना होते हैं क्योंकि सेना के गश्ती वाले इलाक़ों में उनके पैरों के निशान उनके ठिकाने और संख्याबल के बारे में महत्वपूर्ण सुराग़ दे सकते हैं।
घाटी में नए भर्ती होने वाले आतंकी बड़ी संख्या में मुठभेड़ों में मारे जा रहे हैं, इनमें कई नाबालिग़ लड़के भी शामिल हैं जो आतंकवाद के प्रलोभन में आ गए हैं। वहीं, दूसरी ओर बर्फ़ की मोटी चादर और 24×7 बढ़ी हुई सतर्कता की वजह से लाइन ऑफ़ कंट्रोल के पास बड़े पैमाने पर घुसपैठ रुका है।
आतंकवादियों के लिए, कश्मीर में छिपना मुश्किल नहीं है। स्थानीय एरिया कमांडर आमतौर पर अपने इलाक़े में रहते हैं क्योंकि वो उस जगह से अच्छी तरह से वाक़िफ़ होते हैं। वे बड़ी लोकप्रियता और स्थानीय लोगों की वफ़ादारी का फ़ायदा उठाते हैं। जहां घुमावदार जंगली रास्ते और घने जंगलों के साथ पर्वत श्रृंखलाएं आतंकवादियों को प्राकृतिक छुपने की जगह प्रदान करती हैं, वहीं संकीर्ण गलियां और पास-पास में बने घर आतंकियों को आरामदायक ठिकाने के साथ-साथ भागने के रास्ते भी उपलब्ध कराते हैं। स्थानीय भीड़ के बारे में बताना ज़रूरी नहीं है जो सुरक्षाबलों से मुठभेड़ की स्थिति में आतंकियों को मौक़े से भागने में मदद करती है।
2017 और 2018 में राष्ट्रीय राइफ़ल्स यूनिट, सेना, टेरिटोरीअल आर्मी बटालियन, सीआरपीएफ़ और जम्मू-कश्मीर पुलिस ने आतंकियों के ख़िलाफ़ अपने अभियान की गति को बनाए रखा और मौजूदा सर्दी के महीनों में भी इस रफ़्तार को धीमा करने के कोई संकेत नहीं हैं। ठीक उसी समय, क़रीब 15 सालों के लंबे अंतराल के बाद पुलवामा, कुलगाम, त्राल, बडगाम और शोपियां के अशांत इलाक़ों में कॉर्डन ऐंड सर्च ऑपरेशन (CASO) की वापसी का नतीजा दिखा है। CASO और सर्च ऐंड डिस्ट्रॉय ऑपरेशन्स (SADO) अपनी निष्ठुरता के लिए बदनाम हैं, लेकिन आतंकियों को उनके ठिकानों से बाहर निकालने के लिए ये मिलिट्री की ज़रूरतें हैं। घाटी में नए भर्ती होने वाले आतंकी बड़ी संख्या में मुठभेड़ों में मारे जा रहे हैं, इनमें कई नाबालिग़ लड़के भी शामिल हैं जो आतंकवाद के प्रलोभन में आ गए हैं। वहीं, दूसरी ओर बर्फ़ की मोटी चादर और 24×7 बढ़ी हुई सतर्कता की वजह से लाइन ऑफ़ कंट्रोल के पास घुसपैठ बड़े पैमाने पर रुका है।
हालांकि, पहले से उलट पाकिस्तानी सेना भारतीय गश्ती दल को निशाना बनाने के लिए स्नाइपर्स का इस्तेमाल कर एक बार फिर जम्मू के सांबा सेक्टर में अंतरराष्ट्रीय सीमा के पास घुसपैठ के रास्ते खोलने में कामयाब रही है। रिपोर्ट्स के मुताबिक़, क़रीब 40 आतंकी जम्मू भेजे गए हैं । माना जा रहा है कि ओवर ग्राउंड वर्कर्स की मदद से वो कश्मीर घाटी में पहुंच गए हैं। ओवर ग्राउंड वर्कर्स चुनिंदा स्थानीय नौजवानों का नेटवर्क होता है जो आतंकियों को उनके टारगेट्स चुनने के लिए विस्तृत जानकारी जानकारी मुहैया कराता है। जम्मू को सीमा पार से अपनी गतिविधियों का अगला अड्डा बनाने के लिए ये पाकिस्तान की रणनीति में सोचा-समझा बदलाव है। लश्कर-ए-तैयबा और जैश-ए-मोहम्मद के आतंकियों की ताज़ी खेप के जम्मू के रास्ते घाटी में दाख़िल होने से आनेवाले महीनों में ख़तरे की आशंका बढ़ सकती है, क्योंकि ये आतंकी समूह सैन्य प्रतिष्ठानों पर हमले और आत्मघाती मिशन के लिए जाने जाते हैं। हाल के वर्षों में घाटी में स्थानीय नौजवानों में लश्कर-ए-तैयबा और जैश-ए-मोहम्मद में शामिल होने की प्रवृत्ति काफ़ी तेज़ी से बढ़ी है, जिससे स्थानीय आतंकी समूह हिज़्बुल मुजाहिदीन के साथ तालमेल और बढ़ा है और सेना की सिरदर्दी बढ़ गई है। नतीजतन, तीनों आतंकी समूह ,लश्कर, जैश और हिज़्बुल, अपने बीच की सीमाएं मिटाकर एक-दूसरे के साथ आ गए और अपने अभियान का दायरा भी बढ़ाया।
2017 और 2018 में राष्ट्रीय राइफ़ल्स यूनिट, सेना, टेरिटोरीअल आर्मी बटालियन, सीआरपीएफ़ और जम्मू-कश्मीर पुलिस ने आतंकियों के ख़िलाफ़ अपने अभियान की गति को बनाए रखा और मौजूदा सर्दी के महीनों में भी इस गति को धीमा करने के कोई संकेत नहीं हैं।
अगर हालिया भर्तियों के आंकड़ों पर नज़र डालें तो, हिज़्बुल मुजाहिदीन में सबसे ज़्यादा आतंकी शामिल हुए हैं। हालांकि जैश-ए-मोहम्मद और लश्कर-ए-तैयबा भी इस मामले में बहुत पीछे नहीं हैं। इन आतंकी समूहों ने स्थानीय कश्मीरी नौजवानों पर असर डालने, उन्हें चरमपंथी बनाने और उनके हाथों में हथियार थमाने में भरपूर सफलता पाई है। ये समूह इन नौजवानों को फ़िदायीन हमलों को अंजाम देने और धार्मिक चरमपंथ फैलाने के लिए तैयार करते हैं। स्थानीय आतंकी संगठन हिज़्बुल मुजाहिदीन के आतंकियों की तुलना में पाकिस्तानी मूल के जैश-ए-मोहम्मद और लश्कर-ए-तैयबा के आतंकी अच्छी तरह प्रशिक्षित और लक्ष्य के प्रति समर्पित होते हैं, जबकि हिज़्बुल मुजाहिदीन के आतंकियों को मिशन की ख़ातिर तैयार होने के लिए कश्मीर के जंगलों में प्रशिक्षण की बहुत कम सुविधाएं मिलती हैं।
सर्दी के मौसम की शुरुआत के बाद जो मुठभेड़ें हुई हैं, उनमें ज़्यादातर सुरक्षाबलों और हिज़्बुल मुजाहिदीन आतंकियों के बीच हुई हैं। यहां जैश-ए-मोहम्मद, लश्कर-ए-तैयबा और अलगाववादियों की अपेक्षाकृत खामोशी साफ़ झलकती है। बर्फ़ से ढकी घाटी में आत्मघाती मिशन और सतर्क आतंकी हमले मुश्किल हैं, हड़ताल और बंद का भी वही हाल है। सुरक्षाबलों की मौजूदा कामयाबी सराहनीय है, लेकिन उनकी असली परीक्षा पाकिस्तानी मूल के हार्ड कोर और अच्छी तरह से प्रशिक्षित जैश-ए-मोहम्मद और लश्कर-ए-तैयबा के आतंकवादियों के ख़िलाफ़ होगी, जो आसानी से स्थानीय लोगों से घुल-मिल जाते हैं और स्थानीय हिज़्बुल मुजाहिदीन के लड़ाकों से अलग सोशल मीडिया पर उनकी पहचान जाहिर नहीं होती।
आतंकवाद के ख़िलाफ़ पिछले कुछ सालों में अभूतपूर्व जवाबी कार्रवाई हुई है, यहां तक कि सर्दियों के मौसम में भी कोई ढिलाई न बरत कर भारत ने अपने इरादे साफ़ कर दिए हैं। पिछले 30 महीने आतंकियों के लिए विनाशकारी रहे हैं। भला हो नियमित और सावधानीपूर्वक जवाबी कार्रवाईयों का, अकेले 2018 में 9 शीर्ष आतंकी कमांडर मार गिराए गए। अगर ऑपरेशन की मौजूदा रफ़्तार जारी रहती है तो, सुरक्षाबल 240-250 बचे आतंकियों का सफ़ाया करने के लिए दृढ़ प्रतिज्ञ दिख रहे हैं। सड़कों पर सुरक्षाबलों का जंग जीतने का सिलसिला जारी रहेगा, लेकिन कश्मीरी युवाओं के बढ़ते अलगाव की क़ीमत पर। यह न तो कश्मीर के लिए और न ही भारत के लिए सही है।
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