9 और 10 अप्रैल की दरम्यानी रात को पाकिस्तान के पूर्व प्रधानमंत्री इमरान ख़ान को विवादित और नाटकीय ढंग से सत्ता से बेदख़ल कर दिया गया. इससे पाकिस्तान एक बार फिर से अनजानी सियासी राह पर चल पड़ा है. पाकिस्तान मुस्लिम लीग- नवाज़ (PML-N) की अगुवाई वाले विपक्षी गठबंधन की नई सरकार के सामने न सिर्फ़ पाकिस्तान की सिकुड़ती अर्थव्यवस्था को स्थिर बनाने की अभूतपूर्व चुनौती है, बल्कि उसे इमरान ख़ान और उनकी तहरीक-ए-इंसाफ़ पार्टी के तगड़े सियासी विरोध के बीच देश में स्थिरता और अमन भी क़ायम करना होगा.
जनता में अपनी छाप छोड़ते हैं इमरान
पाकिस्तान के पूर्व प्रधानमंत्री इमरान ख़ान पहले ही खुद को पीड़ित बताने का दांव चल चुके हैं, और जबसे विपक्ष उनकी हुकूमत के ख़िलाफ़ ‘अविश्वास प्रस्ताव’ ले आया था, तब से ही वो विपक्ष के ख़िलाफ़, अमेरिका के ख़िलाफ़ और पाकिस्तानी फ़ौज के विरुद्ध बड़ा माहौल बनाने और अवाम का समर्थन हासिल करने में कामयाब हो चुके हैं. अवाम के बीच ऐसे जज़्बात से पाकिस्तान में सियासी अराजकता और हिंसा में और इज़ाफ़ा होने की आशंका है, जिसके चलते पाकिस्तान की फ़ौज को दख़ल देने के लिए मजबूर होना पड़ सकता है.
फ़ौज को लग रहा है कि इमरान ख़ान जिस तरह से अमेरिका पर ‘हुकूमत बदलने’ का इल्ज़ाम लगा रहे हैं, उससे अमेरिका से पाकिस्तान के कूटनीतिक रिश्ते और भी बिगड़ सकते हैं.
फ़ौज के जनरलों के बीच चिंता
अब तक पाकिस्तानी फ़ौज ने ख़ुद को इस सियासी ड्रामे से अलग और ‘निष्पक्ष खिलाड़ी’ बनाए रखा है और मौजूदा संकट के दौरान किसी एक दल की तरफ़ से हस्तक्षेप करने से परहेज़ किया है. हालांकि, इमरान ख़ान जिस तरह से सियासी संकट पैदा करने की कोशिश कर रहे हैं, उससे पाकिस्तानी फ़ौज के जनरलों के बीच चिंता बढ़ गई है. फ़ौज को लग रहा है कि इमरान ख़ान जिस तरह से अमेरिका पर ‘हुकूमत बदलने’ का इल्ज़ाम लगा रहे हैं, उससे अमेरिका से पाकिस्तान के कूटनीतिक रिश्ते और भी बिगड़ सकते हैं.
मीडिया में आई कुछ ख़बरों के मुताबिक़, इमरान ख़ान ने 9 अप्रैल की रात को मौजूदा आर्मी चीफ़ जनरल क़मर जावेद बाजवा को बर्ख़ास्त करने की कोशिश और हुकूमत की कमान विपक्ष के हवाले करने के बजाय मार्शल लॉ लागू करने की धमकी तक दे डाली थी. शायद, इमरान ख़ान पाकिस्तान की फ़ौज के लिए एक ऐसा बोझ बन गए थे, जिसे ख़ुद फ़ौज ही 2018 में सत्ता में ले आई थी.
ज़ाहिर है कि इमरान ख़ान, अवाम के इन जज़्बात का इस्तेमाल करके नई सरकार पर जल्द से जल्द चुनाव कराने का दबाव बनाएंगे. पाकिस्तान के चुनाव आयोग ने राष्ट्रपति आरिफ़ अल्वी को पहले ही बता दिया है कि अक्टूबर से पहले चुनाव कराने मुमकिन नहीं है
वहीं दूसरी तरफ़ पाकिस्तान के सुप्रीम कोर्ट ने इमरान ख़ान सरकार के ख़िलाफ़ लाए गए अविश्वास प्रस्ताव पर अपने फ़ैसले से साफ़ कर दिया था कि वो इस मामले में किसकी तरफ़ है. यानी पाकिस्तान के दो ताक़तवर संस्थान, फ़ौज और न्यायपालिका संभवत: इमरान ख़ान की ख़तरनाक राजनीति के हक़ में नहीं हैं, क्योंकि इससे देश में सियासी उथल-पुथल पैदा हो गई है.
इन सबके बावजूद अभी भी इमरान ख़ान के भविष्य या मुल्क की सियासत में उनकी अहमियत को कम करके आंकना बहुत जल्दबाज़ी होगी. वो अभी भी एक लोकप्रिय नेता बने हुए हैं, जो पाकिस्तान के युवा और शहरी मध्यम वर्ग और देश के बाहर रहने वाले पाकिस्तानियों के बीच काफ़ी लोकप्रिय हैं. इमरान ख़ान की अपील पर 10 अप्रैल को बड़ी तादाद में लोग तहरीक-ए-इंसाफ़ की हुकूमत हटाए जाने का विरोध करने के लिए सड़कों पर उतरे थे. पिछले एक महीने के दौरान इमरान ख़ान ने अपनी जज़्बाती तक़रीरों और अपनी हुकूमत के ख़िलाफ़ विदेशी (अमेरिकी) साज़िश का ढोल जमकर पीटा है, जिससे उनकी पार्टी के कार्यकर्ताओं और समर्थकों में बहुत नाराज़गी है. आज वो शहबाज़ शरीफ़ की ‘आयातित हुकूमत’ के विरोध में जज़्बाती तौर पर इमरान ख़ान का समर्थन करने को तैयार हैं.
ज़ाहिर है कि इमरान ख़ान, अवाम के इन जज़्बात का इस्तेमाल करके नई सरकार पर जल्द से जल्द चुनाव कराने का दबाव बनाएंगे. पाकिस्तान के चुनाव आयोग ने राष्ट्रपति आरिफ़ अल्वी को पहले ही बता दिया है कि अक्टूबर से पहले चुनाव कराने मुमकिन नहीं हैहैं. इसलिए, आने वाले समय में तहरीक-ए-इंसाफ़ की तरफ़ से शहबाज़ हुकूमत पर दबाव बनाने के लिए तरह तरह के नुस्खे आज़माए जाने तय हैं. इनमें अवामी असेंबली और सूबों की विधानसभाओं से पार्टी सदस्यों के इस्तीफ़े जैसे दांव शामिल हैं, ताकि चुनाव जल्द से जल्द कराए जाएं.
शहबाज़ शरीफ़ के लिए सबसे बड़ी चुनौती तो आर्थिक संकट और इमरान के विरोधी दलों के बीच गठबंधन को बनाए रखना है. शहबाज़ सरकार को तहरीक-ए-इंसाफ़ और इमरान ख़ान की तरफ़ से एक मज़बूत विपक्ष का सामना करना होगा, क्योंकि उन्हें सड़कों पर उतरकर विरोध प्रदर्शन करने में महारत हासिल है.
आर्थिक मोर्चे पर
आर्थिक मोर्चे पर, नई सरकार की सबसे बड़ी प्राथमिकता तो अंतरराष्ट्रीय मुद्रा कोष से 6 अरब डॉलर की फ़ौरी मदद हासिल करने, बढ़ती महंगाई, खाने पीने के सामान और ईंधन की बढ़ती क़ीमतों पर क़ाबू पाने की होगी. पाकिस्तान का 35 अरब डॉलर का व्यापार घाटा भी ऐतिहासिक स्तर पर पहुंच चुका है. दिलचस्प बात ये है कि जब से सुप्रीम कोर्ट ने 7 अप्रैल को इमरान सरकार के ख़िलाफ़ अविश्वास प्रस्ताव पर अपना फ़ैसला सुनाया है, तब से डॉलर की तुलना में पाकिस्तानी रुपया भी सुधरा है और पाकिस्तान का शेयर बाज़ार भी संभला है.
शहबाज़ सरकार को तहरीक-ए-इंसाफ़ और इमरान ख़ान की तरफ़ से एक मज़बूत विपक्ष का सामना करना होगा, क्योंकि उन्हें सड़कों पर उतरकर विरोध प्रदर्शन करने में महारत हासिल है.
ये भी तय है कि सत्ता में आया तमाम दलों का गठबंधन भी आने वाले कुछ महीनों के दौरान अहम फ़ैसलों पर मतभेद का शिकार होगा. इमरान हुकूमत को सत्ता से बेदख़ल करने के मक़सद ने इन दलों को अब तक एकजुट बनाए रखा था. अब इस गठबंधन का असली इम्तिहान तो तब होगा, जब इसमें शामिल सियासी दल अपने अपने दूरगामी फ़ायदों की सोचने लगेंगे. सूबों के बीच आपसी मतभेदों, स्थानीय सियासी मक़सदों, अगले चुनाव की तैयारियों और बजट के ज़रिए वित्तीय संसाधनों के बंटवारे जैसे मुद्दे नई गठबंधन सरकार में दरार डालने का काम कर सकते हैं. ये भी मुमकिन है कि गठबंधन के मुख्य दल, पाकिस्तान मुस्लिम लीग-नवाज़ और पाकिस्तान पीपुल्स पार्टी, इस गठबंधन सरकार के दौर का इस्तेमाल अगले चुनाव के लिए अवाम का समर्थन जुटाने के लिए करें.
विदेश नीति के मोर्चे पर
विदेश नीति के मोर्चे पर पाकिस्तान के नए विदेश मंत्री के सामने सबसे बड़ी चुनौती तो अमेरिका के साथ रिश्ते बेहतर बनाने की होगी. ख़ुशक़िस्मती से इस मामले में शहबाज़ शरीफ़ की हुकूमत को सैन्य तंत्र का समर्थन हासिल होगा. अंतरराष्ट्रीय मुद्रा कोष से मदद हासिल करने के साथ साथ कूटनीतिक संतुलन बनाने और रक्षा हथियार ख़रीदने से लेकर फाइनेंशियल एक्शन टास्क फ़ोर्स तक में पाकिस्तान के लिए अमेरिका का समर्थन हासिल करना बहुत अहम होगा.
अंतरराष्ट्रीय मुद्रा कोष से मदद हासिल करने के साथ साथ कूटनीतिक संतुलन बनाने और रक्षा हथियार ख़रीदने से लेकर फाइनेंशियल एक्शन टास्क फ़ोर्स तक में पाकिस्तान के लिए अमेरिका का समर्थन हासिल करना बहुत अहम होगा.
वैसे ये पाकिस्तान की किसी भी हुकूमत की बुनियादी हक़ीक़त है: उसे अपना अस्तित्व बचाने के लिए फ़ौज के समर्थन की दरकार होती है. वज़ीर-ए-आज़म शहबाज़ शरीफ़ और पाकिस्तान पीपुल्स पार्टी के आसिफ़ अली ज़रदारी के पाकिस्तान के फ़ौजी तंत्र से संबंध काफ़ी हद तक अच्छे हैं. इससे यही संकेत मिलता है कि नई हुकूमत को पाकिस्तान आर्मी का समर्थन मिल सकता है.
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