Author : Sunjoy Joshi

Published on Mar 03, 2021 Updated 0 Hours ago

क्या हम आज भी उस स्वप्निल दुनिया के वासी हैं जिसमें फ्री-इकॉनमी या बाज़ारवादी अर्थव्यवस्था का रॉकेट इंजन हमें सीधे सुपरपावर लक्ष्य की दिशा में उछाल सकता है? या फिर वह मोड आ गया है जब हम पुनः वेलफेयर-स्टेट यानी कल्याणकारी राज्य की ओर लौटने के बारे में सोच-विचार करें?

कोविड-19 के बाद: फ्री-इकॉनमी या वेलफेयर स्टेट, क्या हो आगे की राह?

प्रश्न: कोविड-19 की महामारी ने भारत समेत दुनिया के तमाम देशों को अमीरों और ग़रीबों के बीच निरंतर बढ़ते फ़ासला से रू-बरू करा दिया. वह फासला जो पिछले दशक से बढ़ता जा रहा था और जिसे इस महामारी ने और भी गहरा दिया. देश भर में बेबसी और मुफ़लिसी का ऐसा आलम देखने को मिला जिसने हमारी संस्थागत कमजोरियों को उजागर कर हमें अंदर से झकझोर कर रख दिया.

ऐसे में ये सवाल उठता है कि हम एक आज़ाद और संप्रभु देश के तौर पर क्या बनना चाहते हैं? भारत की आज़ादी के बाद देश के पहले प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू ने अपने बहुचर्चित भाषण ‘ट्रिस्ट विथ डेस्टनी’ में जिन संकल्पों और भावी देश की कल्पनाओं का ज़िक्र किया आज हम वहां खड़े हैं, इस सफ़र में हमने क्या पाया और क्या हमारे हाथ से फिसलता जा रहा है?

क्या हम आज उस स्वप्निल दुनिया के वासी बन गए हैं जिसमें फ्री-इकॉनमी या बाज़ारवादी अर्थव्यवस्था का रॉकेट इंजन हमें सीधे सुपरपावर बनने के लक्ष्य की दिशा में उछाल सकता है? या फिर वह मोड़ आ गया है जब हम पुनः वेलफेयर-स्टेट यानी कल्याणकारी राज्य की ओर लौटने के बारे में सोच-विचार करें? दोनों के बीच संतुलन कैसे हासिल किया जाए?

उत्तर: वर्ष 2020 ने ऐसा वक्त दिखाया जिसमें दुनिया की सबसे बड़ी आर्थिक महाशक्ति अमेरिका भी कोविड-19 के सामने लचर और लाचार नज़र आई. अमेरिकी जैसी विश्व शक्ति अपने नागरिकों को सेहत की बुनियादी सुविधाएं देने के लिए भी संघर्ष करती देखी गयी. लाखों की जानें गईं. आख़िर इतनी शक्ति संपन्न शासन-व्यवस्था इस विपत्ति काल के समय इतनी नाकाम क्यों साबित हुई — ऐसा लगने लगा मानो ‘बड़ा हुआ तो क्या हुआ, जैसे पेड़ खजूर, पंछी को छाया नहीं-फल लागे अति दूर’. 

देश की असल शक्ति की परख़ उसके नागरिकों के जीवन की गुणवत्ता में है. किसी भी देश की आर्थिक संपदा से अधिक महत्वपूर्ण है उसकी सामाजिक संपदा. सामाजिक संपत्ति में शामिल हैं पब्लिक हेल्थ, स्वछता, शिक्षा और आसरा

इतिहास में पहले भी यह दौर आया है जब राष्ट्रों और उनकी सरकारों को इस बात का एहसास हुआ कि किसी भी देश की असल ताक़त उसकी आर्थिक तरक्क़ी और पैसों की ताकत में नहीं, बल्कि अपने लोगों को सामाजिक सुरक्षा मुहैया कराने में है. देश की असल शक्ति की परख़ उसके नागरिकों के जीवन की गुणवत्ता में है. किसी भी देश की आर्थिक संपदा से अधिक महत्वपूर्ण है उसकी सामाजिक संपदा. सामाजिक संपत्ति में शामिल हैं पब्लिक हेल्थ, स्वछता, शिक्षा और आसरा. कोरोना काल में सबसे बड़ी चुनौती रह गयी सिर्फ़ एक – कैसे स्थिर समाज में जनता को सामाजिक सुरक्षा मुहैया कराई जाए. वास्तव में बाज़ारवादी अर्थव्यवस्था भी सुचारु ढंग से तभी चल पाती है जब सरकारें अपने देश में तमाम समुदायों को मूलभूत सामाजिक सुरक्षा का कवच प्रदान करने में सक्षम हों अन्यथा वे भी विफल हो जाती हैं.

इन हालात में ये सवाल उठना लाज़िमी है कि आख़िर इन परिस्थितियों में सरकारों की कितनी भूमिका है और व्यवसायिक व्यवस्था की कितनी? प्रथम विश्व युद्ध से पहले भी दौर आया था जब ये माना जाने लगा था कि आर्थिक उदारीकरण हर मर्ज़ की दवा है — लेकिन इस विचाराधारा पर 1930 की महामंदी का कुठाराघात हुआ जिसकी परिणीति हुई द्वित्तीय विश्व-युद्ध में. इस विश्व-युद्ध के विकराल अंधकार से उभरती सरकारों ने जो राह पकड़ी उसका केंद्र बना एक मज़बूत लोक-कल्याण कारी राज्य.   

अच्छे बजट वो नहीं होते जो बाज़ार में शोले भड़का दें. अच्छा बजट वो होता है जिसका असर बाज़ार पर कम से कम पड़े. स्थायी अर्थव्यवस्था का अर्थ है स्थायी नीतियाँ जिनमें अप्रत्याशित कदम न हों. 

आज हम सब पुनः इतिहास के ऐसे मुहाने पर खड़े हैं जो पहले से कहीं ज़्यादा पेचीदा है. ऐसे में यह प्रश्न तमाम देशों में उठ रहा है कि भविष्य की शासन व्यवस्था का स्वरूप कैसा होना चाहिए? सरकारों या स्टेट का क्या स्वरूप होगा, राज्य व्यवस्था किस तरह से काम करेगी? इसी पर रौशनी डालने की कोशिश करते हुए ये बातचीत की गई:

प्रश्न: आख़िर आर्थिक नीति निर्माण का भविष्य क्या है? हम आर्थिक व्यवस्था में किस तरह के सुधार होते देख सकते हैं? और ख़ासकर भारत की बात करें तो साल 2021-22 के बजट में कल्याणकारी उपायों का किस हद तक ख़याल रखा गया है?

उत्तर: हर साल की तरह, इस बार भी बजट में कुछ अच्छे क़दम उठाए गए हैं, तो कुछ नकारात्मक बातें भी हैं. सच तो यह है की किसी भी स्थायी आर्थिक नीति वाले देश का बजट उबाऊ होना चाहिए. अच्छे बजट वो नहीं होते जो बाज़ार में शोले भड़का दें. अच्छा बजट वो होता है जिसका असर बाज़ार पर कम से कम पड़े. स्थायी अर्थव्यवस्था का अर्थ है स्थायी नीतियाँ जिनमें अप्रत्याशित कदम न हों. भारत के बजट में पहली बार कर-व्यवस्था में कोई छेड़-छाड़ नहीं करने की कोशिश की गई है. और विडंबना देखिए बाज़ार को यही स्थायित्व इतना अप्रत्याशित लगा कि 2021 का बजट शेयर बाज़ार में ज़बरदस्त उछाल ले आया.

पहली बार बजट में राजस्व और व्यय को लेकर पारदर्शिता देखने को मिली. ख़ासतौर पर खाद्यान्न पर दी जाने वाली सब्सिडी को लुकाने-छिपाने के प्रयास नहीं किए गए. अनुमान के विपरीत किसी तरह का नया कर नहीं लगाया गया जिससे आत्मविश्वास पैदा हुआ. आशा है भविष्य में यही रुख़ अन्य प्रकार की तमाम सब्सिडी के लिए भी लागू किया जाएगा ताकि आर्थिक नीति में स्थायित्व का भान हो.

हमें इस बात का भी ध्यान रखना होगा कि सुधार ऐसे हों जो जनता को केंद्र में रखकर किए जाएं. सुधार तभी सफल होंगे जब हमारी सामाजिक व्यवस्था में वह शक्ति हो जिससे वह बदलाव की आंच सह सके. 

बजट का सबसे नकारात्मक पहलू था बजट निर्माताओं की यह मान्यता कि कोरोना पर भारत देश विजय हासिल कर चुका है. इस खतरनाक सोच के चलते हेल्थ सेक्टर के लिए सुरक्षित व्यय में असंबंधित आवंटनों को जोड़ कर मात्र दिखाने की कोशिश की गई है, वो ये कि स्वास्थ्य सेवाओं के आवंटन में भारी इज़ाफा हुआ है, जबकि वास्तव में वहां आवंटन या राशि की कमी हीं होने का अंदेशा है. यह सोच कि कोविड-19 की महामारी इतिहास बन चुकी है और हम V के आकार की आर्थिक रिकवरी की ओर निर्विघ्न अग्रसर हो चुके हैं – यही काश न करे कि हमारी सबसे बड़ी कमजोरी बन जाए .

प्रश्न: साल 2021-22 के बजट में कल्याणकारी उपायों का किस हद तक ख़याल रखा गया है?

उत्तर: यह सोच की भले ही कोरोना रहे या न रहे हमारी अर्थव्यवस्था कोरोना से उबर चुकी है वाली सोच ही कहीं न कहीं, इस बजट की सबसे कमज़ोर नब्ज़ है. यदि यह मान भी लिया जाए कि कोरोना को हम अलविदा कह चुके हैं और द्वितीय चरण में इसका कोई ख़ास प्रभाव नहीं होगा, तो यह मान लेना कहाँ तक उचित है की 2020 की दौरान इस संक्रमण की भयावह मार से ग्रसित सभी बड़े छोटे उद्यमी बाहर निकल अब तेज़ी से दौड़ करने को तैयार हैं. यह सोच बाज़ार की भले ही हो, सच तो यह है कि हमारे मज़दूर और कमज़ोर वर्ग को महामारी से लगे आघात से निकलने में अभी काफी वक्त़ लगेगा. यही हाल देश भर में फैले कई छोटे उद्यमियों ओर व्यापारियों का है.

प्रश्न: तो क्या अब रोटी बनाम बंदूक की बहस, धीरे-धीरे हमारी आर्थिक सोच में बदलाव की ओर बढ़ रही है?

उत्तर: पिछले कुछ दशकों से यह सोच की बाजारवादी व्यवस्था में मुक्त बाज़ार एक ऐसी बूटी है जो स्वतः ही अर्थ, धन और संपत्ति, धीरे-धीरे समाज की निचली पायदानों तक रिसा कर सबको अंततः तरक़्क़ी का प्रसाद दे ही देगी – ग़लत साबित होती दिखी. विश्व भर में अमीर और गरीब के बीच फासला बढ़ा.  

दूसरे, यदि ये मान भी लिया जाए कि अंततः संपन्नता का पनपता सागर घर-घर पानी दे ही देगा ,तब भी कोरोना जैसी आपात स्थिति से निपटने के लिए आर्थिक व्यवस्थाओं में गुंजाइश होनी ज़रूरी है. और यह तभी संभव है जब कल्याणकारी नीतियाँ ऐसी सामाजिक व्यवस्थाओं का निर्माण करें. उदाहरण के लिए, नागरिकों को स्वास्थ्य सेवाएं उपलब्ध कराने की ज़िम्मेदारी, अकेले बाज़ार की ताक़तों के भरोसे कभी नहीं छोड़ी जा सकती. इसमें कोई दो राय नहीं है कि आर्थिक सुधार ज़रूरी हैं. लेकिन, हमें इस बात का भी ध्यान रखना होगा कि सुधार ऐसे हों जो जनता को केंद्र में रखकर किए जाएं. सुधार तभी सफल होंगे जब हमारी सामाजिक व्यवस्था में वह शक्ति हो जिससे वह बदलाव की आंच सह सके. इन व्यवस्थाओं में स्वास्थ्य, शिक्षा, भोजन और मकान कि सुरक्षा अहम है.

दुर्भाग्य से कोविड-19 ने विश्व भर में सरकारी तंत्र को अपरिहार्य शक्तियाँ प्रदान कीं, जैसा कि किसी भी आपातकाल में आम होता है. सरकारी तंत्र के हाथों में लोगों के निजी तथा दैनिक जीवन का नियंत्रण आ गया. कई प्रजातांत्रिक देशों में इसी कारण विरोध के स्वर भी बार-बार सुनाई देने लगे.

दुनिया के तमाम लोकतांत्रिक देशों में हमने देखा कि लोगों का अपनी-अपनी सरकारों पर विश्वास कम हुआ है. वास्तव में जब लोकतंत्र सामूहिक हित या सामुदायिक नेतृत्व पर आधारित दृष्टिकोण पर चलते हैं, तब वे अपनी जड़ें मज़बूत करते हैं. जब वे चीन के अंदाज़ में केंद्रीकृत शैली अपनाते हैं तो अपनी ही जनता का विश्वास खोते हैं.

रिफ़ॉर्म या सुधार निस्संदेह बेहद ज़रूरी हैं लेकिन लोकतंत्र में उनकी भी मार्केटिंग आवश्यक है. जनता को ये नहीं लगना चाहिए कि सरकारें जो फैसले ले रही हैं वो उन पर थोपे जा रहे हैं.

भारत में इस काल का उपयोग दूरगामी आर्थिक सुधार लाने के लिए भी किया गया. हमने सरकार को कई प्रकार के कानून ordinance के माध्यम से लागू करते देखा है. पर समस्या यह है कि सुधार बिना आम सहमति के लागू नहीं किए जा सकते ख़ासतौर पर जब उन सुधारों का सीधा संबंध आम लोगों से हों. ऐसे में सुधार लाने के लिए जनता को समझानेबुझाने की ज़रूरत होती है. ऐसा नहीं करने पर सरकार और नागरिकों के बीच अविश्वास कि भावना जन्म लेती है. रिफ़ॉर्म या सुधार निस्संदेह बेहद ज़रूरी हैं लेकिन लोकतंत्र में उनकी भी मार्केटिंग आवश्यक है. जनता को ये नहीं लगना चाहिए कि सरकारें जो फैसले ले रही हैं वो उन पर थोपे जा रहे हैं. इसलिए ज़रूरी है कि सरकार और जनता के बीच तारतम्य कायम रहें, नीतियां कल्याणकारी हैं यह विश्वास कायम रखना सरकार कि ज़िम्मेदारी है।

प्रश्न: आज दुनिया भर में सबको न्यूनतम बुनियादी आमदनी (Universal Basic Income) उपलब्ध कराने की चर्चा भी हो रही है, पर क्या ये उपाय भारत के लिए भी कारगर होगा?

आर्थर केम्प जैसे विचारकों के अनुसार UBI सरीख़ी योजना प्रयास हैं, कल्याणकारी राज्य के बिना लोक कल्याण करने का. भारत में तो राजी के माध्यम से कल्याण की प्रथा बहुत पुरानी है. यहां तो आकाल राहत उपायों का लंबा इतिहास रहा है. इनका उद्देश्य ही राहत कार्यों के माध्यम से बेबस नागरिकों को न्यूनतम आमदनी उपलब्ध कराना रहा है. साथ ही साथ ये राहत से भरी प्रयास इसलिए भी करते थे ताकि इनसे स्थायी लोक-परिसंपत्तियों का निर्माण भी होता जाए. सही रूप में मनरेगा (MNREGA) जैसी योजनाएं उसी परंपरा को आगे बढ़ा रहीं हैं.

कोरोना के चलते, प्रवासी मज़दूरों की दयनीय हालत देखकर आशा व्यक्त की जा रही थी कि शायद अब समय आ गया है कि मनरेगा (MNREGA) सरीख़ी योजना शहरी क्षेत्रों के लिए भी लागू कर दी जाए, किंतु बजट में मनरेगा के आवंटन में ही कटौती देखी गयी जो बहुत उत्साहवर्धक कदम नहीं है.

स्पष्ट है की यह बजट अभूतपूर्व तंगी की हालत में बनाया गया बजट है. जिस बहस की हम बात कर रहे हैं उसे किसी एक या दो बजट के दायरे में समेटकर नहीं देखा जाना चाहिए. बल्कि, ज़रूरत है कि 21वीं सदी ने आकर जिन नए अंदेशों के संकेत दिये हैं, उसकी छाया में इस नयी सदी की नयी परिस्थितियों के मद्देनजर स्थिर और दूरगामी आर्थिक नीति के विषय पर वृहद चर्चा की जाए. 

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