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370 के बाद, केंद्र सरकार का ये कर्तव्य है कि वो लोगों की सोच को बदले और बेहतर प्रशासन देकर आम लोगों का भरोसा जीतने की कोशिश करे.
गिरीश चंद्र मुर्मू को नए केंद्र शासित प्रदेश जम्मू-कश्मीर का पहला उप-राज्यपाल बनाया गया है. वो एक वरिष्ठ आईएएस अधिकारी हैं और प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी जब गुजरात के मुख्यमंत्री थे, तो मुर्मू उनके साथ नज़दीकी से काम कर चुके हैं. मुर्मू की नियुक्ति के एलान के एक हफ़्ते के भीतर ही, यानी 31 अक्टूबर को लेफ्टिनेंट गवर्नर पद की शपथ दिलाई गई. 5 अगस्त 2019 को केंद्र सरकार ने जम्मू-कश्मीर को विशेष दर्जा देने वाली धारा 370 ख़त्म करने और राज्य को दो हिस्सों में बांटने का एलान किया था. जम्मू-कश्मीर और लद्दाख को अलग-अलग केंद्र शासित प्रदेश बनाया गया था. इस के बाद ही गिरीश चंद्र मुर्मू को उप-राज्यपाल बनाए जाने का ऐलान किया गया.
केंद्र सरकार के मुताबिक़ अनुच्छेद 370 को सीमित करने से जम्मू-कश्मीर का बाक़ी देश के साथ ‘एकीकरण’ होगा और इससे जम्मू-कश्मीर के आर्थिक, सामाजिक और राजनीतिक तरक़्क़ी का रास्ता खुलेगा. केंद्रीय गृह मंत्री अमित शाह ने 16 अगस्त को हरियाणा के जींद में एक रैली को संबोधित करते हुए कहा था कि, ‘मैं देश को बताना चाहता हूं कि अनुच्छेद 370 हटाए जाने के बाद जम्मू-कश्मीर की तरक़्क़ी की राह के हर रोड़े को हटा दिया गया है. और अब वहां अबाध गति से विकास होगा.’
अनुच्छेद 370 हटाए जाने को तीन महीने से ज़्यादा समय बीत चुका है. लेकिन, अब भी सब से बड़ा सवाल यही बना हुआ है कि कैसे नए केंद्र शासित प्रदेश जम्मू-कश्मीर के आम आदमी का भरोसा लोकतांत्रिक संस्थाओं और प्रशासनिक व्यवस्था में जगाया जाए
केंद्र सरकार बार-बार कहती रही है कि जम्मू-कश्मीर से अनुच्छेद 370 हटाना ऐसी तकनीकी ज़रूरत थी, जिसे ख़त्म करने के बाद ही जम्मू-कश्मीर में कोई राजनीतिक परिवर्तन आ सकता था. क्योंकि जम्मू-कश्मीर लंबे समय से अलगाववादी प्रवृत्तियों का शिकार रहा है. सूबे ने पिछले 30 वर्षों में ज़बरदस्त हिंसक उग्रवाद का शिकार हुआ है. अनुच्छेद 370 को हटाने के फ़ैसले को एक जादुई छड़ी की तरह पेश किया जा रहा है. कहा जा रहा है इस धारा के ख़ात्मे से सूबे के भारत में पूर्ण विलय का रास्ता ख़ुद ब ख़ुद खुल जाएगा. हालांकि अब जबकि अनुच्छेद 370 इतिहास बन गया है, तो ऐसा लगता है कि केंद्र सरकार ने अपने विकल्पों का गुणा-भाग ग़लत किया था. अनुच्छेद 370 हटाए जाने को तीन महीने से ज़्यादा समय बीत चुका है. लेकिन, अब भी सब से बड़ा सवाल यही बना हुआ है कि कैसे नए केंद्र शासित प्रदेश जम्मू-कश्मीर के आम आदमी का भरोसा लोकतांत्रिक संस्थाओं और प्रशासनिक व्यवस्था में जगाया जाए, क्योंकि उसका ये भरोसा तो टूट चुका है. इसीलिए भले ही गिरीश चंद्र मुर्मू के शपथ लेने के साथ ही संवैधानिक बदलाव का एक तकनीकी पहलू पूरा हो गया हो. लेकिन, अनुच्छेद 370 हटाए जाने के बाद जम्मू-कश्मीर के भारत में पूर्ण एकीकरण और इलाक़े की तरक़्क़ी का जो लक्ष्य इसके साथ रखा गया था, वो हमेशा दूर की कौड़ी ही रहेगा. इसके लिए ज़रूरत है कि भारत, जम्मू-कश्मीर में व्यापक प्रशासनिक परिवर्तन लाने का अभियान तुरंत शुरू कर दे.
1953 से लेकर अब तक केंद्र सरकार भ्रष्टाचार को एक हथियार के तौर पर इस्तेमाल करती आई है. ताकि, कश्मीर घाटी का सियासी तुष्टिकरण कर सके. बरसों से चली आ रही इसी नीति का नतीजा है कि जम्मू-कश्मीर की प्रशासनिक संस्थाओं में भ्रष्टाचार ने गहरी जड़ें जमा ली हैं. और राज्य की प्रशासनिक मशीनरी ही नहीं, राजनीतिक आक़ा भी पूरी बेशर्मी से राज्य के फंड का दुरुपयोग करते आए हैं. ऐतिहासिक रूप से 1947 के बाद से जम्मू-कश्मीर में सीमित दर पर विकास होता आया है. इसकी सबसे बड़ी वजह राज्य की धीमी, अकर्मण्य और भ्रष्ट प्रशासनिक व्यवस्था रही है. उन्हें राज्य के सामाजिक आर्थिक विकास से कोई भी सरोकार नहीं है. गहरी जड़ें जमाकर बैठाक भ्रष्टाचार और अकर्मण्यता ने कई दशकों से राज्य की लोकतांत्रिक संस्थाओं को नीचा दिखाने में कोई कोर कसर नहीं छोड़ी है. इसी वजह से राज्य की आम जनता में निराशा है, नाराज़गी है. ख़ास तौर से राज्य की युवा पीढ़ी तो इस कुव्यवस्था से खीझ चुकी है. एक तरफ़ तो जम्मू-कश्मीर को अराजकता की आग में झोंक दिया गया. वहीं चौतरफ़ा भ्रष्टाचार और प्रशासनिक अनदेखी की वजह से बाहरी और अंदरूनी ताक़तों को राज्य में उठा-पटक फैलाने का अच्छा मौक़ा दे दिया. कई दशकों से सूबे के आम लोगों को लगातार डरा कर रखा गया. उनसे अवैध वसूली की गई. वहीं, दूसरी तरफ़ अमीर और रसूखदार नेता और अधिकारी सूबे के संसाधनों का अपने हित में शोषण करते रहे. संस्थागत भ्रष्टाचार और भाई-भतीजावाद ने सामाजिक अशांति को बढ़ावा दिया. इससे जम्मू-कश्मीर में हिंसक उग्रवाद को बढ़ावा मिला. जिसका फ़ायदा उठा कर पाकिस्तान ने राज्य में आतंकवादी संगठनों और संगठित आपराधिक नेटवर्क को बढ़ावा दिया.
जम्मू-कश्मीर के पूर्व राज्यपाल सत्यपाल मलिक ने 22 जुलाई 2019 को कारगिल लद्दाख टूरिज़्म फेस्टिवल के दौरान ख्री सुल्तान चू स्पोर्ट्स स्टेडियम में हुए कार्यक्रम में कहा था कि आतंकवादियों को उन लोगों को गोली मार देनी चाहिए, जिन्होंने देश और जम्मू-कश्मीर को लूटा है. हालांकि बाद में सत्यपाल मलिक ने अपने इस बयान पर सफ़ाई दी कि, ‘मैं ने जो भी कहा वो राज्य में फैले भ्रष्टाचार की वजह से ग़ुस्से और खीझ में आ कर कहा था. बहुत से राजनेता और बड़े अधिकारी सिर से पैर तक भ्रष्टाचार में संलिप्त हैं. इसलिए वो अपराधी ही हैं.’ हाल ही में, यानी 23 अक्टूबर को सत्यपाल मलिक ने ख़ुफ़िया एजेंसियों पर आरोप लगाया था कि वो केंद्र और राज्य की सरकारों को सही जानकारी नहीं दे रही हैं. सत्यपाल मलिक ने कहा था कि, ‘यहां आने के बाद मैं ने ख़ुफ़िया एजेंसियों के इनपुट को नहीं देखा. क्योंकि वो न तो हमें सही जानकारी देते हैं और न ही केंद्र सरकार को. मैं ने सीधे 150-200 युवाओं से बात की और उन लोगों की पहचान करने की कोशिश की, जो कॉलेज और यूनिवर्सिटी में राष्ट्रगान के सम्मान में खड़े नहीं होते हैं. मैं ने 25-30 तीस बरस की उम्र के इन नौजवानों से बात की, जिनके सपने कुचल दिए गए. जिन्हें बरगलाया गया और जो आज इतने ख़फ़ा हैं कि वो न तो हुर्रियत को चाहते हैं, न ही मुख्यधारा की पार्टियों को चाहते हैं, न केंद्र सरकार को चाहते हैं और न ही उन्हें स्वायत्तता की तलब है. क्योंकि उन्हें बताया जा रहा है कि जन्नत जाने का एक ही रास्ता है और वो है मर जाना.’
जम्मू-कश्मीर में बड़े पैमाने पर व्याप्त भ्रष्टाचार का असर भारत के अन्य हिस्सों पर भी दिखता है. इसका साफ़ मतलब है कि भ्रष्टाचार की समस्या केवल जम्मू-कश्मीर की सरहदों तक ही महदूद नहीं है. भ्रष्टाचार की समस्या राष्ट्रीय सुरक्षा के लिए एक ख़तरा बन गई है. भारत के छह राज्यों में हथियारों के फ़र्ज़ी लाइसेंस का मामला इस ख़तरे की एक बड़ी मिसाल है. हथियारों के इन फ़र्ज़ी लाइसेंस का इस्तेमाल आतंकवादी संगठन पूरे भारत में कर सकते हैं और इसके माध्यम से बेगुनाह आम नागरिकों की हत्या कर सकते हैं. हथियारों के फ़र्ज़ी लाइसेंस के इस मामले ने जम्मू-कश्मीर में पुलिस-अफ़सरशाही और अपराधियों के गठजोड़ को उजागर कर दिया है. आज की तारीख़ में भ्रष्टाचार सूबे के नेताओं और प्रशासकों के मिज़ाज का अटूट हिस्सा बन गया है. इसका पहला नतीजा तो ये हुआ है कि राज्य की प्रशासनिक व्यवस्था चरमरा गई है. लोगों को इंसाफ नहीं मिल पा रहा है. इसी वजह से आम कश्मीरी नागरिक का लोकतांत्रिक संस्थाओं से भरोसा उठ गया. उन्हें अब राज्य की राजनीतिक-प्रशासनिक व्यवस्था की वैधानिकता पर भी यक़ीन नहीं रहा. ये अविश्वास किसी भी शांति अभियान के लिए सबसे बड़ी चुनौती बन गया है.
ORF ने 2017-2018 में एक सर्वे किया था. इस सर्वे में ये बात सामने आई थी कि 2008 ख़राब प्रशासन व्यवस्था ने कश्मीर घाटी की 64 प्रतिशत आम जनता को बग़ावत और उग्रवाद की तरफ़ धकेला है. ORF के सर्वे के नतीजों की तस्दीक़ इसी तरह के अन्य सर्वेक्षणों ने भी की है. सीएमएस इंडिया के भ्रष्टाचार से जुड़े 2017 के अध्ययन में पता चला था कि देश के भ्रष्ट राज्यों में जम्मू-कश्मीर अव्वल है. इस अध्ययन से पता चला था कि सर्वेक्षण में शामिल 84 प्रतिशत लोगों ने ये माना था कि सार्वजनिक सेवाओं में भ्रष्टाचार बढ़ा है. जम्मू-कश्मीर के प्रशासन पर लंबे समय से केंद्र से मिलने वाले फंड के दुरुपयोग का आरोप लगता रहा है. इसके अलावा राज्य की प्रशासनिक मशीनरी पर अन्य वित्तीय गड़बड़ियों के भी आरोप हैं. द हिंदू अख़बार में प्रकाशित एक रिपोर्ट के मुताबिक़, जम्मू-कश्मीर ने 2000-2016 के दौरान 17 वर्षों में राज्यों को दिए जाने वाले फंड का कुल दस फ़ीसद हिस्सा यानी क़रीब 1.14 लाख करोड़ रुपए प्राप्त किए थे. जबकि जम्मू-कश्मीर की आबादी पूरे देश की आबादी का महज़ एक फ़ीसद ही है.
दोनों ही केंद्र शासित प्रदेशों में ऐसे ईमादार अधिकारी नियुक्त किए जाने चाहिए जिनमें ज़बरदस्त निष्ठा हो और जो निजी हितों से क़तई न प्रभावित हों
ऐसे हालात में, भले ही केंद्र सरकार ने तकनीकी रूप से अनुच्छेद 370 हटाकर जम्मू-कश्मीर की संवैधानिक स्थिति बदल कर इसे भारत संघ में सम्मिलित कर लिया है. लेकिन, ये सवाल अभी भी बना हुआ है कि, इस फ़ैसले के असर से क्या वैसे नतीजे निकलेंगे, जिसकी उम्मीद की जा रही है? अभी भी बहुत से लोगों को इस पर संदेह बना हुआ है कि सूबे की संवैधानिक स्थिति बदलने की वजह से इस का सामाजिक-आर्थिक विकास होगा और ये भारत से पूर्ण रूप से एकीकृत होगा. इसीलिए भारत के सबसे नए केंद्र शासित प्रदेश के पहले उप राज्यपाल के तौर पर गिरीश चंद्र मुर्मू को कौटिल्य की राजनीति दर्शन से सीखने की ज़रूरत है. कौटिल्य के अर्थशास्त्र की मदद से ही गिरीश चंद्र मुर्मू जम्मू-कश्मीर में फैले भ्रष्टाचार और जनता के हित के प्रति प्रशासनिक उदासीनता को ख़त्म कर सकते हैं. कौटिल्य ने अधिकारियों के व्यवस्था का दुरुपयोग करके उसे तोड़-मरोड़ कर अपने हित में इस्तेमाल करने से रोकने के लिए अधिकारियों का बड़े पैमाने पर एक स्थान से दूसरे स्थान पर तबादला करने का नुस्खा सुझाया था. इससे अधिकारियों को सिस्टम के दुरुपयोग का समय नहीं मिल सकेगा. जम्मू-कश्मीर और लद्दाख के मामले में मौजूदा प्रशासनिक अधिकारियों को अलग-अलग विभागों में उनके मौजूदा पद से हटा दिया जाना चाहिए. ये दोनों ही नए केंद्र शासित प्रदेश सामरिक और भौगोलिक दृष्टि से बेहद संवेदनशील क्षेत्र हैं. अब यहां पर क़ाबिल, ईमानदार और सक्षम अधिकारियों की नई फ़ौज को तैनात किए जाने की ज़रूरत है. इन दोनों ही केंद्र शासित प्रदेशों में ऐसे ईमादार अधिकारी नियुक्त किए जाने चाहिए जिनमें ज़बरदस्त निष्ठा हो और जो निजी हितों से क़तई न प्रभावित हों.
जम्मू-कश्मीर पुनर्गठन बिल 2019 के मुताबिक़, ‘जम्मू-कश्मीर राज्य में तैनात भारतीय प्रशासनिक सेवा, भारतीय पुलिस सेवा और भारतीय वन सेवा के अधिकारी नए केंद्र शासित प्रदेशों के अस्तित्व में आने के बाद के दिन से अपने उन्हीं पदों पर काम करते रहेंगे, जिन पर वो पहले थे.’ लेकिन, इसी बिल में आगे ये बात भी जुड़ी है कि, ‘केंद्र सरकार के पास ये अधिकार होगा कि वो इस भाग के अंतर्गत जारी किसी भी आदेश की समीक्षा या संशोधन कर सके.’ इस क़ानून में मौजूद ये व्यवस्था भ्रष्टाचार मुक्त और प्रभावी प्रशासनिक व्यवस्था स्थापित करने की राह में उप राज्यपाल के लिए बाधाएं खड़ी करेगी. जबकि जम्मू-कश्मीर के भारत में वास्तविक एकीकरण और जम्मू-कश्मीर में केंद्र के व्यापक लक्ष्य को हासिल करने के लिए ये बेहद ज़रूरी है कि लोगों का लोकतांत्रिक व्यवस्था और प्रशासनिक मशीनरी में फिर से भरोसा जगाया जाए.
5 अगस्त 2019 के बाद जम्मू-कश्मीर ने नई संवैधानिक व्यवस्था की तरफ़ क़दम बढ़ाए हैं. लेकिन, इसका प्रशासन अभी भी पहले वाली पुरानी अफ़सरशाही के हाथों में है, जो भ्रष्टाचार में सिर से पांव तक डूबी हुई है. ऐसे में अगर केंद्र सरकार, अनुच्छेद 370 हटाने के बाद अपने वास्तविक लक्ष्य को हासिल करना चाहती है, तो उसे नए उप राज्यपाल को ऐसे 100-150 ईमानदार आईएएस और आईपीएस अधिकारियों के चुनाव की आज़ादी देनी चाहिए, जिनके अंदर कश्मीर के लोगों की अपेक्षाओं पर खरे उतरने की संभावनाएं हों और जो वहां के लोगों को अच्छा प्रशासन दे सकें. केंद्र सरकार ने कहा था कश्मीर के लोगों को बेहतर प्रशासन देने की राह में अनुच्छेद 370 ही अब तक सबसे बड़ा रोड़ा बना रहा है. इसीलिए, अब जबकि इस सब से बड़ी बाधा को दूर कर लिया गया है, तो अब केंद्र सरकार का ये कर्तव्य है कि वो लोगों की सोच को बदले और बेहतर प्रशासन देकर आम लोगों का भरोसा जीतने की कोशिश करे. वरना तो अनुच्छेद 370 को हटाना एक और सियासी बाज़ीगरी से ज़्यादा कुछ नहीं होगा. जिसके ज़रिए दक्षिणपंथी राष्ट्रवादी जज़्बातों की तसल्ली के लिए राज्य की संवैधानिक स्थिति में तो परिवर्तन किया गया. ऐसे में इस अनुच्छेद के ख़ात्मे से जिस संघर्ष को ख़त्म करने का लक्ष्य रखा गया है, वो ख़त्म होने के बजाय असल में और भड़क उठेगा.
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Ayjaz Wani (Phd) is a Fellow in the Strategic Studies Programme at ORF. Based out of Mumbai, he tracks China’s relations with Central Asia, Pakistan and ...
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