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बेलेम की तैयारियों के बीच अफ्रीका फिर सुर्खियों में है — सबसे कम प्रदूषण करने वाला महाद्वीप, जलवायु न्याय की सबसे बड़ी लड़ाई लड़ रहा है. अब सवाल ये है कि COP30 में दुनिया सुनेगी या फिर वही पुराने वादे दोहराए जाएंगे?
इन दिनों दुनिया 10 से 21 नवंबर 2025 तक ब्राज़ील में होने वाले संयुक्त राष्ट्र संघ के पर्यावरण सम्मेलन (COP30) की तैयारियों में जुटी हुई है. ये सम्मेलन ब्राज़ील के बेलेम में होगा, जिसे अमेज़न के वर्षा वनों का द्वार कहा जाता है. इस दौरान एक बार फिर से लोगों का ध्यान जलवायु परिवर्तन से निपटने की वैश्विक व्यवस्था में विकासशील देशों की हैसियत पर केंद्रित हो रहा है. सम्मेलन के लिए अमेज़न के जंगलों के चुनाव के प्रतीकात्मक मायने हैं. इससे पता चलता है कि अब दुनिया भी ये मान रही है कि जलवायु संकट से निपटने के लिए विकासशील देशों को केंद्रीय भूमिका निभानी चाहिए लेकिन, जहां तक अफ्रीका की बात है तो उसके लिए इस सच्चाई का ढोल पीटने भर से काम नहीं चलने वाला. अफ्रीका के लिए तो इसके ठोस नतीजों में तब्दील होने की ज़रूरत है.
दुनिया के कुल ग्रीनहाउस गैस उत्सर्जन में अफ्रीका का योगदान चार प्रतिशत से भी कम है लेकिन अफ्रीका जलवायु परिवर्तन के दुष्प्रभाव इससे कई गुना ज़्यादा झेल रहा है.
अफ्रीकी जलवायु सम्मेलन के दौरान अफ्रीका के मौजूदा आधारभूत ढांचे की कमियों को भी उजागर किया गया क्योंकि ये अभी भी औपनिवेशिक दौर की संसाधनों के दोहन वाली व्यवस्था को दिखाता है.
पिछले कई दशकों से जलवायु परिवर्तन को लेकर अफ्रीका का नैरेटिव विरोधाभासों से भरा रहा है. दुनिया के कुल ग्रीनहाउस गैस उत्सर्जन में अफ्रीका का योगदान चार प्रतिशत से भी कम है लेकिन अफ्रीका जलवायु परिवर्तन के दुष्प्रभाव इससे कई गुना ज़्यादा झेल रहा है. बार बार पड़ने वाला सूखा, बाढ़ और खाद्य असुरक्षा, इस महाद्वीप के करोड़ों लोगों के लिए ख़तरा बने हुए हैं. ‘क्लाइमेट जस्टिस’ की नैतिक मांग तो वैध बनी हुई है लेकिन, अफ्रीका के लिए इसके नतीजे संतोषजनक नहीं रहे हैं. अमीर देश, जलवायु परिवर्तन से निपटने में ग़रीब देशों की वित्तीय मदद के अपने वादे पूरे करने में बार बार नाकाम साबित हुए हैं. वहीं, जलवायु परिवर्तन के मुताबिक़ ख़ुद को ढालने के लिए अफ्रीकी देशों की ज़रूरतें, उपलब्ध संसाधनों से कहीं ज़्यादा हैं. हालांकि, अब जबकि आब-ओ-हवा बदलने के बुरे असर बढ़ते जा रहे हैं, तो अफ्रीका की नैतिक इच्छाशक्ति को अब रणनीतिक और स्वदेशी समाधानों में तब्दील करना होगा.
अब दुनिया भी ये मान रही है कि जलवायु संकट से निपटने के लिए विकासशील देशों को केंद्रीय भूमिका निभानी चाहिए लेकिन, जहां तक अफ्रीका की बात है तो उसके लिए इस सच्चाई का ढोल पीटने भर से काम नहीं चलने वाला. अफ्रीका के लिए तो इसके ठोस नतीजों में तब्दील होने की ज़रूरत है.
इस बदलाव को सितंबर 2025 में इथियोपिया की राजधानी अदिस अबाबा में हुए दूसरे अफ्रीकी जलवायु सम्मेलन (ACS2) के दौरान बख़ूबी व्यक्त किया गया था. नैरोबी में 2023 में हुए पहले सम्मेलन की बुनियाद को आगे बढ़ाते हुए ACS2 के दौरान अफ्रीका की ओर से बड़े बड़े बयानों को, जलवायु परिवर्तन से निपटने के समाधान और व्यवस्थाएं लागू करने की मज़बूत इच्छाशक्ति देखने को मिली थी. इस सम्मेलन के दौरान निवेश, इन्वेस्टमेंट और संस्थागत सुधारों के ज़रिए अफ्रीका की अगुवाई वाली रणनीतियों पर ज़ोर देन की बात कही गई. इसका मक़सद, अफ्रीका को दूसरों से सहायता के तलबगार एक निष्क्रिय क्षेत्र के बजाय हरित बदलाव की नई इमारत खड़ी करने में सक्रिय भागीदार बनाया जा सके.
अफ्रीकी जलवायु सम्मेलन की एक मुख्य थीम, अफ्रीका की क्लाइमेट फाइनेंस की व्यवस्था में तुरंत बदलाव लाने की ज़रूरत थी. वैसे तो अफ्रीकी महाद्वीप में अक्षय ऊर्जा की प्रचुर संभावनाएं, प्राकृतिक संसाधनों के विशाल भंडार और युवा आबादी मौजूद है लेकिन, दुनिया के बाक़ी हिस्सों की तुलना में अफ्रीका के लिए क़र्ज़ लेना अभी भी सबसे महंगा है. दुनिया की क्रेडिट रेटिंग व्यवस्था के संरचनात्मक पूर्वाग्रह अफ्रीकी देशों को ज़्यादा जोखिम वाले दर्जे में रखते हैं. इससे इन देशों में निजी निवेश कम होता है और पूंजी हासिल करने की लागत बढ़ जाती है. अदिस अबाबा के जलवायु सम्मेलन के दौरान अफ्रीकी नेताओं ने ज़ोर देकर कहा कि जब तक वित्तीय न्याय नहीं होगा, तब तक क्लाइमेट जस्टिस भी मुमकिन नहीं है इसीलिए जब भी वैश्विक वित्तीय ढांचे में सुधार किया जाए तो इस बात पर ज़्यादा ज़ोर देना होगा कि क़र्ज़ लेने की लागत कम हो, रियायती पूंजी की उपलब्धता बढ़े और अफ्रीका के अपने वित्तीय संस्थानों को मज़बूत किया जाए.
ACS2 के दौरान अफ्रीकन क्लाइमेट फैसिलिटी (ACF) और अफ्रीका क्लाइमेट इनोवेशन कॉम्पैक्ट (ACIC) स्थापित करने के दो बड़े फ़ैसले लिए गए. इनका मक़सद टिकाऊ औद्योगीकरण के लिए पैसे जुटाना, जोखिम की गारंटी उपलब्ध कराना और निजी क्षेत्र के निवेश को बढ़ाना है. हालांकि, अफ्रीकी नेताओं ने ज़ोर देकर कहा कि असली तब्दीली तभी आएगी जब बहुपक्षीय विकास बैंक (MDBs) अपने प्रशासनिक ढांचों में बदलाव लाएंगे और अफ्रीकी देशों की नुमाइंदगी को मज़बूत बनाकर अफ्रीका के वित्तीय संस्थानों को क़र्ज़ देने वाले पसंदीदा संस्थान मानेंगे.
दूसरे अफ्रीकी जलवायु सम्मेलन के दौरान अफ्रीका के मौजूदा आधारभूत ढांचे की कमियों को भी उजागर किया गया क्योंकि ये अभी भी औपनिवेशिक दौर की संसाधनों के दोहन वाली व्यवस्था को दिखाता है. सड़कों, बंदरगाहों और रेलवे लाइनों का निर्माण अर्थव्यवस्थाओं को आपस में जोड़ने के बजाय कच्चा माल विदेश भेजने के हिसाब से किया गया था. संसाधनों के दोहन वाला इस ढांचे से पर्यावरण को नुक़सान हो रहा है और आर्थिक निर्भरता भी बनी हुई है. ACS2 में मूलभूत ढांचे में निवेश को क्षेत्रीय एकीकरण बढ़ाने, अक्षय ऊर्जा के ग्रिड विकसित करने और जलवायु परिवर्तन से निपटने में सक्षम व्यवस्थाएं खड़ी करने पर केंद्रित करने की मांग की गई.
अदिस अबाबा के जलवायु सम्मेलन के दौरान अफ्रीकी नेताओं ने ज़ोर देकर कहा कि जब तक वित्तीय न्याय नहीं होगा, तब तक क्लाइमेट जस्टिस भी मुमकिन नहीं है इसीलिए जब भी वैश्विक वित्तीय ढांचे में सुधार किया जाए तो इस बात पर ज़्यादा ज़ोर देना होगा कि क़र्ज़ लेने की लागत कम हो, रियायती पूंजी की उपलब्धता बढ़े और अफ्रीका के अपने वित्तीय संस्थानों को मज़बूत किया जाए.
सम्मेलन के दौरान अफ्रीकन कॉन्टिनेंटल फ्री ट्रेड एरिया (AfCFTA) को इस बदलाव की नींव का पत्थर बताया गया. AfCFTA, अफ्रीकी देशों के बीच आपसी व्यापार को बढ़ावा देकर और क्षेत्रीय वैल्यू चेन्स को विकसित करके इस महाद्वीप के देशों को अपना कच्चा माल स्थानीय प्रॉसेस करने में मदद कर सकता है. मिसाल के तौर पर कॉफी, कोकोआ और कोबाल्ट और लीथियम जैसे क्रिटिकल मिनरल्स को अफ्रीका में ही प्रॉसेस करने से परिवहन से होने वाला उत्सर्जन घटाया जा सकता है. इससे रोज़गार भी बढ़ेगा और मूल्य संवर्धन में भी इज़ाफ़ा होगा. संसाधनों के दोहन के बजाय स्थानीय स्तर पर उत्पादन का ये बदलाव दिखाता है कि जलवायु परिवर्तन से निपटने के अफ्रीका की अगुवाई वाले समाधान व्यवहार में कैसे दिखेंगे.
ACS2 में एक और महत्वपूर्ण परिचर्चा दुनिया के कार्बन क्रेडिट बाज़ार में अफ्रीका की सीमित भागीदारी को लेकर थी. प्रकृति पर आधारित समाधानों की अपार संभावनाओं के बावजूद, ग्लोबल कार्बन क्रेडिट में अफ्रीका की हिस्सेदारी केवल 16 प्रतिशत है. विनियमन की कमज़ोर व्यवस्था, कम क़ीमत और सामुदायिक स्तर पर सीमित भागीदारी की वजह से स्थानीय लोगों को इसका बहुत कम फ़ायदा मिलता है. इस दिक़्क़त से निपटने के लिए अफ्रीकी देशों ने अफ्रीका में ही विनियमित और एकीकृत कार्बन मार्केट स्थापित करने का प्रस्ताव रखा, जिससे पारदर्शिता, उचित मूल्य और लाभ का अनुकूलन की स्थानीय परियोजनाओं में ही निवेश करना सुनिश्चित किया जा सके. ऐसे बाज़ार को पेरिस जलवायु समझौते की धारा 6 से भी जोड़ा जा सकता है, जो देशों के बीच कार्बन क्रेडिट के स्वैच्छिक आदान-प्रदान को बढ़ावा देता है.
अदिस अबाबा के सम्मेलन में जलवायु परिवर्तन के मामले में अफ्रीका के भविष्य निर्माण में युवाओं और इनोवेशन की भूमिका को भी रेखांकित किया गया. अफ्रीका में औसत आयु 20 साल से भी कम है. ऐसे में यहां की युवा आबादी एक चुनौती के साथ साथ अवसर भी है. अफ्रीका क्लाइमेट इनोवेशन कॉम्पैक्ट का लक्ष्य स्टार्ट-अप, रिसर्च संस्थानों और युवा उद्यमियों को स्वच्छ ऊर्जा, एग्री-टेक और डिजिटल क्लाइमेट सॉल्यूशंस के विकास में सशक्त बनाना है. युवाओं और इनोवेशन के रोल की अहमियत स्वीकार करके अफ्रीकी नेताओं ने दिखाया है कि वो दूसरे देशों पर निर्भरता से हटकर अब आत्मनिर्भर बनना चाहते हैं, और इस बदलाव को टिकाऊ बनाने में अफ्रीका के युवाओं की भूमिका को अहम मानते हैं.
बेलेम के जलवायु सम्मेलन के ठीक पहले अफ्रीकी नेताओं ने ACS2 के ज़रिए दुनिया से अपनी उम्मीदों को सामने रखा है. इस सम्मेलन से अफ्रीकन ग्रुप ऑफ नेगोशिएटर्स के भीतर चल रही बातचीत का निचोड़ भी सामने आया है. अफ्रीका की सबसे बड़ी प्राथमिकता जलवायु परिवर्तन से निपटने की परियोजनाओं के लिए ज़्यादा पूंजी हासिल करना है. विकसित देशों ने 2009 में कोपेनहेगेन में हुए सम्मेलन में वादा किया था कि वो 2020 तक, विकासशील देशों को जलवायु परिवर्तन से निपटने में मदद के तौर पर हर साल 100 अरब डॉलर की रक़म देंगे. ये लक्ष्य अपर्याप्त भी है और अब तक कभी पूरा भी नहीं किया गया. अफ्रीका के वार्ताकार ज़ोर देकर कहते हैं कि अगर विकसित देश कोई नया टारगेट तय करते हैं, तो वो मौजूदा हालात की हक़ीक़तों पर आधारित हो. पूंजी हासिल करना आसान हो. पता हो कि कब कितनी रक़म मिलेगी और, जलवायु परिवर्तन से निपटने के लिए जो रक़म मिलेगी, उसमें से कितना पैसा सहायता के रूप में मिलेगा और कितना क़र्ज़ के रूप में.
अफ्रीका में कोबाल्ट, मैंगनीज़, ग्रेफाइट और तांबे के प्रचुर भंडार हैं. बाहरी देश इन भंडारों का दोहन करें, इसके बजाय अफ्रीका में ही इन से जुड़े उद्योगों का विकास होना चाहिए. ऐसे में न्यायोचित बदलाव के लिए अफ्रीका के भीतर ही ग्रीन वैल्यू चेन का निर्माण किया जाना चाहिए.
अनुकूलन के साथ साथ लॉस ऐंड डैमेज का मसला भी उतना ही अहम है. अफ्रीकी देश अपनी GDP का लगभग पांच प्रतिशत हिस्सा जलवायु परिवर्तन के दुष्प्रभावों से निपटने पर ख़र्च करते हैं. अगर ऐसा नहीं होता, तो ये देश इसी रक़म को स्वास्थ्य, शिक्षा और मूलभूत ढांचे के विकास में लगा सकते थे. COP30 में अफ्रीका, अनुकूलन और प्रभाव कम करने की कोशिशों में मदद को एक समान मानने पर बल देगा. इसके अलावा अफ्रीकी देश ग्लोबल गोल ऑन एडैप्टेशन के लिए भी अलग से फंडिंग की मांग उठाएंगे. खेती-बाड़ी, पानी के संसाधन और मूलभूत ढांचे को लचीला बनाने के लिए ये संसाधन बेहद ज़रूरी हैं.
यही नहीं, अफ्रीकी देशों की मांग है कि दुनिया के कार्बन बाज़ार को चलाने वाली अंतरराष्ट्रीय व्यवस्थाएं, ख़ास तौर से पेरिस समझौते की धारा 6 को 2026 तक पूरी तरह से लागू किया जाए. इससे अफ्रीकी देशों को प्रमाणित और पारदर्शी व्यवस्थाओं के ज़रिए कार्बन ट्रेडिंग से ऐसे लाभ उठाने का मौक़ा मिलेगा, जो उनके राष्ट्रीय लक्ष्यों से मेल खाते हों. आख़िर में अफ्रीका क्रिटिकल मिनरल्स को लेकर न्यायोचित तरीक़ा अपनाने की वकालत करता है. अफ्रीका में कोबाल्ट, मैंगनीज़, ग्रेफाइट और तांबे के प्रचुर भंडार हैं. बाहरी देश इन भंडारों का दोहन करें, इसके बजाय अफ्रीका में ही इन से जुड़े उद्योगों का विकास होना चाहिए. ऐसे में न्यायोचित बदलाव के लिए अफ्रीका के भीतर ही ग्रीन वैल्यू चेन का निर्माण किया जाना चाहिए.
बेलेम में होने जा रहा जलवायु सम्मेलन अफ्रीका और वैश्विक क्लाइमेट प्रशासन के लिए एक निर्णायक मकाम है. अगर अंतरराष्ट्रीय वित्तीय व्यवस्थाएं और क्लाइमेट से जुड़े संस्थान अफ्रीका के एजेंडे से तालमेल बनाते हैं, तो दुनिया को हरित परिवर्तन की ओर ले जाने में एक ठोस और महत्वपूर्ण साझीदार मिलेगा. हालांकि, अगर क़र्ज़ लेने की भारी लागत, अधूरे वादे और संरचनात्मक असमानताएं बनी रहती हैं, तो इसकी क़ीमत अफ्रीका के साथ साथ बाक़ी दुनिया को भी चुकानी पड़ेगी.
अफ्रीका के लिए आगे का मार्ग उसके अपने संसाधनों, आबादी और आकांक्षाओं के हिसाब से तय होना चाहिए. दूसरे अफ्रीकी जलवायु सम्मेलन के नतीजे ये दिखाते हैं कि अफ्रीका एकजुट नज़रिए के साथ दुनिया की अगुवाई करने को तैयार है. वो जलवायु परिवर्तन के साथ तालमेल बिठाने को औद्योगीकरण और लचीलेपन को आर्थिक परिवर्तन के साथ जोड़कर देखता है. सवाल ये है कि क्या बाक़ी दुनिया भी ये मानने को तैयार है कि धरती को टिकाई बनाना जलवायु परिवर्तन के मामले में एक लचीले अफ्रीका के निर्माण से जुड़ा है. और ये समाधान लागू करने में बाक़ी दुनिया किस तरह अफ्रीका की मदद कर सकती है. 2025 के जलवायु सम्मेलन (COP30) में बहुत कुछ दांव पर लगा हुआ है.
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