Author : Barkha Dutt

Published on Sep 05, 2017 Updated 0 Hours ago

शायद कश्मीर आतंकवाद की सबसे बड़ी त्रासदी यह देखना है कि दुख और मातम मौलिक मानवीय भाव परस्पर विरोधी कथानकों की जंग तक सिमट कर रह गए हैं।

नए सिरे से सोचें कश्मीर के बारे में

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श्रीनगर, जम्मू-कश्मीर में डल झील। वॉटरकलर मसूद हुसैन के द्वारा, उनकी 'ट्रांसपेरेंट स्ट्रोक्स' श्रृंखला के भाग के रूप में।

स्रोत: मसूद हुसैन

परिचय

कभी-कभी, कोई इकलौती छवि किसी जटिल मसले के सार को ऐसे बयां कर सकती है, जो लाखों शब्द भी नहीं कर सकते। जम्मू-कश्मीर के बारे में ज्ञान बघारते प्राइमटाइम ‘देशभक्तों’ के तीखे शब्दाडम्बरों के शोर-गुल से परे, कश्मीर घाटी के बेहद प्रतिष्ठित स्वरों में से एक-मसूद हुसैन की बेहद जीवंत कला के अलावा और कहीं जाने की जरूरत नहीं: पहली नज़र में देखने पर ऐसा लगता है कि एक बच्चा किसी पेड़ की उदार छाया तले, दो शाखाओं के बीच ढीले से बांधी गई चादर से बने पालने में सो रहा है। गौर से देखिए, वे शाखाएं नहीं हैं न ही कोई पेड़ है, वे स्वचालित बंदूकें और ग्रेनेड्स हैं, हथियार हैं, जो सोए हुए बच्चे पर छतरी की तरह तने हुए हैं। सचमुच, एक पूरी पीढ़ी ने बंदूकों के साए तले जन्म लिया है।

मसूद हुसैन-सफेद बालों से घिरा उनका अनुभवी चेहरा — 27 साल पुराने आतंकवाद के उन सभी तरीकों का साक्षी है, जिन्होंने राज्य को बदलकर रख दिया है और जिनकी परिणति गुस्से तथा आंदोलन के ऐसे नए चक्र के रूप में हुई है, जिसने बच्चों को भी अछूता नहीं छोड़ा है। जब मसूद हुसैन स्कूल के बस्तों को पेंट करते हैं, तो उनमें किताबों की जगह पत्थर निकलते हैं जो कश्मीर की सड़कों पर किशोरों (और अब किशोरियों भी)और सुरक्षा बलों के बीच हो रहे संघर्षों के लिए लाक्षणिक रूप से इस्तेमाल किए गए हैं। कई बार ऐसा लग सकता है कि कश्मीर संघर्ष दो दशकों से भी ज्यादा अर्से से भारत की राजव्यवस्था के बीच स्वाभाविक रूप से मौजूद, स्थिर और अचल है। यह भले ही कितने ही पूर्वानुभवों की याद क्यों न ताजा कराए, इस संघर्ष के भंवर में कई परिवर्तनशील धाराएं हैं। जम्मू-कश्मीर को समझने और सही जवाबी कार्रवाई तय करने के लिए इन परिवर्तनों पर गौर करना जरूरी है। प्रसिद्ध जापानी फिल्मकार अकीरा कुरोसावा की एक फिल्म को याद करते हुए कश्मीर की विविध वास्तविकताओं की बेहतर ढंग से व्याख्या जा सकती है: उनकी 1950 की एक क्लासिक फिल्म ‘राशोमोन’ में हत्या और बलात्कार की एक घटना को चार बिल्कुल विरोधाभासी तरीकों से, ‘एकमात्र सत्य’ की धारणा को चुनौती देते हुए बयान किया गया। यह रिपोर्ट जम्मू-कश्मीर की इन विविध वास्तविकताओं, और समय के साथ इन वास्तविकताओं में आए बदलावों और नई वास्तविकताओं के जन्म की पड़ताल करती है।

उग्रवाद और आतंकवाद से भी कठिन चुनौती

कश्मीर में वर्ष 2016 और 2017 की पहली छमाही में सैनिकों और नागरिकों की मौतों की संख्या में काफी वृद्धि देखी गई हैं [i] — वास्तव में, पिछला साल, छह बरसों की आतंकवादी हिंसा में सबसे ज्यादा लहुलुहान रहा जिसका मुकाबला करने के लिए भारत सरकार के पास मजबूत क्षमता और सुरक्षा आयाम मौजूद हैं। नई और सबसे ज्यादा मुश्किल समस्या आतंकवादी हिंसा पर चढ़े ‘नागरिक विरोध’ के आवरण की रही है, जो आतंकवाद जैसे आंदोलन के नए चरण का सृजन कर रही है। मारे गए आतंकवादियों के जनाजे में जुट रही भारी भीड़, शोक सभाओं के दौरान सशस्त्र आतंकवादियों की अस्पष्ट मौजूदगी, स्कूली बच्चों, लड़कों और लड़कियों, कई बार दस साल तक की उम्र के बच्चों को सभाओं को संबोधित करने के लिए प्रोत्साहित करना तथा भावनाओं का उफान और आए दिन ग्रामीण कश्मीर में कफन पर लिपटे या बिजली के खम्बों पर लहराते पाकिस्तानी झंडों की संख्या में काबिले गौर बढ़ोत्तरी, स्पष्ट तौर पर इस बात को झुठलाती है कि ऐसा उकसावे में आकर किया गया है — ये सभी आतंकवाद से निपटने संबंधी व्यवस्था (काउंटर इन्सर्जेंसी ग्रिड) की अपेक्षाकृत नई किस्में हैं।

2016 में हिजबुल मुजाहिदीन का आतंकवादी बुरहान वानी मुठभेड़ में मारा गया और उसके बाद शुरू हुआ असंतोष और बंद का सिलसिला साल भर जारी रहा। इससे पहले घाटी में वारदात कर रहे आतंकवादियों की संख्या 200 से भी कम थी, वर्षों बाद यह आंकड़ा इतना कम था, सेना, पुलिस और अर्धसैनिक बलों का सफलता का दावा वाजिब रहा होता। आज वे जिस तरह के संघर्ष का सामना कर रहे हैं, वे उनके मुताबिक नहीं हैं। खासतौर पर सेना, ऐसी स्थिति में हरगिज नहीं पड़ना चाहती होगी, जहां उसे भीड़ को नियंत्रित करना पड़े या नागरिकों के कुछ वर्गों के साथ संघर्ष करना पड़े। वास्तव में, राजनीतिक शून्य के कारण अलगाववादी रणनीति में बदलाव लाने में सफल रहे हैं। आखिरकार प्रभावपूर्ण राजनीति को ही इस उभरती चुनौती का नया जवाब तैयार करने के तरीके तलाशने होंगे।

जरूरत है: नए एसओपी की

अर्धसैनिक बलों के जवानों और पत्थरों से लैस प्रदर्शनकारियों के बीच सड़कों पर संघर्ष कोई निराली घटना नहीं है। उथल-पुथल का सबसे लम्बा दौर साबित हुए 2010 में, जब भीषण मुठभेड़ों में 100 से ज्यादा युवाओं की मौत हो गई थी, इसकी शुरूआत 17 साल के तुफैल मट्टू की मौत की वजह से हुई थी। [ii] तुफैल ट्यूशन से घर लौटते समय अनायास ही आंसू गैस के गोले की चपेट में आ गया था। उस समय जंगल की आग की तरह फैली अशांति मानवाधिकार उल्लंघन का मामला था, जबकि उसके विपरीत 2016 में, जब घाटी में एक बार फिर से उथल-पुथल का दौर शुरू हुआ, तो उसका कारण न्याय से इतर मौत होने का कोई मामला नहीं, बल्कि मारे गए आतंकवादी के प्रति लोगों का समर्थन था। स्टेंडर्ड ऑपरेटिंग प्रोसीजर्स (एसओपी) को आक्रोश के बदलते स्वरूप: चोट लगने और तो और मारे जाने की भी परवाह न करने वाले प्रदर्शनकारियों, के मुताबिक ढालने की जरूरत है। एक वरिष्ठ अधिकारी ने इस लेखिका को बताया [iii] कि अब इसमें कुछ भी अनोखी बात नहीं रह गई है कि युवतियों द्वारा सुरक्षा बलों की किसी चौकी का घेराव किया जाता है और सैनिकों के हथियार छीन लिए जाते हैं, या पत्थरों और नारों के बल पर, नागरिक मुठभेड़ को रुकवा देते हैं, जिससे उन आतंकवादियों को अपनी हिफाजत के लिए एक ढाल मिल जाती है, जिनका पीछा किया जा रहा होता है।

रोजाना शाम को, श्रीनगर के बीचोंबीच, सूरज डूबने के साथ ही ड्यूटी पर तैनात सीआरपीएफ और उनकी तरफ बढ़ते पत्थरों से लैस युवकों के बीच होने वाले संघर्ष के कारण उठा धूएं का गुबार और पथराव शुरू हो जाता है, जबकि स्थानीय पुलिस अर्धसुरक्षा बलों को वहां से सुरक्षित निकालने के लिए इस संघर्ष में हस्तक्षेप करती है। पिछले साल, तनाव के चरम दौर में, यह लेखिका एक शाम सीआरपीएफ के साथ एक ऐसे इलाके में गई थी भारत-विरोधी अलगाववादियों ने अपने क्षेत्र को ‘आजादी’ के नारों और ग्रेफीटी से पाट रखा था। एक जवान ने बताया कि किस तरह पहले प्रदर्शनकारी खुद को सुरक्षित दूरी पर रखते हुए सुरक्षा बलों पर निशाना साधा करते थे, जबकि आज, वे सीधे उसके आमने-सामने आ जुटते हैं, अंजाम की परवाह किए बगैर उसको घूरते हैं। उस शाम, जब अनुमान के मुताबिक दैनिक झड़पे शुरू हुईं और युवकों का हुजूम सीआरपीएफ की ओर बढ़ने लगा, तो जम्मू कश्मीर पुलिस उनकी ड्यूटी के घंटे खत्म होने की निगरानी के लिए वहां पहुंची। ज्यादातर अधिकारियों ने अपने मुंह पर काले रूमाल बांध रखे थे, वे नहीं चाहते थे कि उनके अपने समुदाय के लोग उन्हें पहचाने, क्योंकि उन्हें अंदेशा है कि उन पर और उनके परिजनों पर प्रतिघात हो सकता है, जो घातक भी हो सकता है। शहर से बाहर तैनात अधिकारी बताते हैं कि किस तरह अक्सर वे सादे कपड़ों में अपने कार्यस्थलों तक जाते हैं, क्योंकि वे नहीं चाहते कि कनेक्टिंग हाइवेज पर मौजूद प्रदर्शनकारी उन्हें पहचानें। सभी तरह के सुरक्षा बलों में पुलिस सबसे ज्यादा असहाय है — उन्हें आतंकवादी गुट, अलगाववादी और उनके अपने लोग, समान रूप से निशाना बनाते हैं। 34 साल के एक पुलिस अधिकारी ने बताया, “वे हमें शक की नजर से देखते हैं, वे हमें बेइज्जत करते हैं और वे हमसे नफरत करते हैं। हम क्या कर सकते हैं? हम बर्दाश्त करते हैं।” “या पत्थर या गाली — यही मेरा जीवन है, अब मैं इसका आदी हो चुका हूं।”

इसके बावजूद, क्योंकि एसओपी को इन बदलावों के अनुरूप ढाला नहीं गया है, ऐसे में आंसू गैस के गोलों के नाकाम रहने पर पेलेट गन्स के विकल्प की वापसी, केवल सरकार के नष्ट होते नैतिक प्रभाव की समाप्ति है। ऐसी तस्वीरें सरकार की बड़े पैमाने पर अपना पक्ष रखने में मदद नहीं करेंगी: कुछ अस्थायी और कुछ स्थायी तौर पर आंखों की रोशनी गंवा चुके कश्मीरी नागरिक, उनकी आंखों पर बंधी पट्टियां, लोहे की बाल बियरिंग्स लगने के निशानों से पटे उनके शरीर, जिनकी बौछार फव्वारे की तरह की गई है, इसलिए कई बार बच्चों सहित ऐसे लोग भी उनकी जद में आ जाते हैं, जो उनका निशाना नहीं होते। उत्साही, निडर और गुस्सायी भीड़ से निपटने की वास्तविक चुनौतियों को देखते हुए नए तरह का सिक्योरिटी प्रोटोकॉल तैयार किए जाने की जरूरत है।

पत्थर नहीं, लैपटॉप्स ?

अगस्त 2016 में, प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने अटल बिहारी वाजपेयी आह्वान को याद करते हुए इस बात पर खेद प्रकट किया कि कश्मीरी युवकों के हाथ में पत्थर नहीं, लैपटॉप्स होने चाहिए। हालांकि निर्विवाद सत्य यह है कि शिक्षा और रोजगार अब इस मसले का हल नहीं हैं। नए तरह के आतंकवाद में स्थानीय स्तर पर भागीदारी बढ़ी है, 2015 में, जम्मू-कश्मीर पुलिस ने खतरनाक आंकड़े जारी किए थे, [iv] जिन्हें सभी ने नजरअंदाज कर दिया: दशक में पहली बार, स्थानीय आतंकवादियों की तादाद विदेशी आतंकवादियों से ज्यादा थी, जिनमें से ज्यादातर पढ़े-लिखे स्कूल-टॉपर्स थे और जो आर्थिक रूप से संपन्न परिवारों से ताल्लुक रखते थे। जब बुरहान वानी मारा गया, तो इस लेखिका ने उसे एक ऐसा आतंकवादी बताया था, जो एक सरकारी स्कूल हैडमास्टर का बेटा था; इस क्लिनिकल डिटेल ने सोशल मीडिया पर व्यर्थ बहस छेड़ दी थी। लेकिन निर्विवाद तथ्यों का ‘महिमामंडन’ के साथ घालमेल नहीं होना चाहिए। दक्षिण कश्मीर स्थित त्राल के अंदरूनी हिस्सों, जो न सिर्फ बुरहान, बल्कि उसके जैसे सैंकड़ों लड़कों का घर है, का दौरा करने पर इससे बचा नहीं जा सकता । खूबसूरत लारिबल के एक कस्बे में, जहां रोज सुबह उम्मीद से भरी माताएं अपने इन किशोर बच्चों को स्कूल भेजती हैं, इस लेखिका ने इशाक पारे ‘न्यूटन’ के घर का दौरा किया था, जिसे यह नाम उसकी अकादमिक उपलब्धियों के वजह से आइज़क न्यूटन के नाम पर दिया गया था। इशाक की साइंस बुक्स अभी तक उसी कमरे की एक खुली शेल्फ में कतार में रखी हैं, जो कभी उसका हुआ करता था। उसके पिता पोलीथिन शीट्स में सावधानी से सहेजकर रखी और पुराने अखबारों के बीच दबी उसकी पुरानी रिपोर्ट कार्ड्स को बड़े गर्व के साथ दिखाते हैं। न्यूटन के पिता बताते हैं, “अगर वह चाहता, तो उसे कोई भी नौकरी मिल सकती थी।” वह बताते हैं, “यह उसके बंदूक उठाने की वजह नहीं थी।”आतंकवादी जेलोत जाकिर ‘मूसा’, जिसे शुरूआत में बुरहान वानी का तथाकथित उत्तराधिकारी कहकर पुकारा गया था, के घर में इस लेखिका ने उसके पिता से मुलाकात की, जो राज्य सरकार के पीडब्ल्यूडी विभाग में सिविल इंजीनियर थे। उन्होंने अपने मेहमानों की मेजबानी जूस के केन्स के साथ की और दार्शनिक की तरह कहा कि उन्होंने स्वीकार कर लिया था कि उनके बेटे ने “अपनी राह चुन ली थी।” मूसा के पिता ने अपने बेटे की जगह बदलकर उसको कट्टरपंथी विचारधारा से बचाने की जी-जान से कोशिश की, उन्होंने मूसा को इंजीनियर बनने के लिए पंजाब भेज दिया। यह तरीका भी कारगर नहीं रहा। एक दिन मूसा छुट्टियों पर घर लौटा और सामने वाली ड्योढ़ी में अपने पिता के लिए एक खत छोड़कर चला गया, जिसमें उसने आतंकवादी के रूप में अपने नए जीवन की शुरूआत की घोषणा कर रखी थी। मूसा का पूरा परिवार उच्च शिक्षा प्राप्त है। उसके भाई ने, जो श्रीनगर के बोन एंड ज्याइंट हॉस्पिटल में डॉक्टर हैं, इस लेखिका को बताया कि उसे इस बात का बहुत “गर्व” है कि उसके भाई ने वह किया, जो “वह कर पाने में नाकाम रहा।” लैपटॉप्स अब उपमा के रूप में या वास्तविक रूप से कुछ मायने नहीं रखते। भारत का सामना तेजी से उग्र रूप धारण कर रहे आक्रोश से हो रहा है, यह जंग कम से कम आंशिक तौर पर मनोवैज्ञानिक है।

उग्रवाद का खतरा वास्तविक है, इसका जवाब राजनीतिक असम्बद्धता नहीं

श्रीनगर के एक अस्पताल में, इस लेखिका की मुलाकात एक स्कूली छात्र से हुई, जो मारे गए आतंकवादी बुरहान वानी के समर्थन में सड़क पर उतरा था। उसकी आंख पर पट्टी बंधी थी और ऐसी आशंका थी कि वह शायद दोबारा कभी भी ठीक से नहीं देख पाएगा। जब उससे पूछा गया कि उसने किसी आतंकवादी के लिए ऐसा कदम क्यों उठाया, तो उसने कहा, “वह इस्लाम का रक्षक है।” लेखिका ने यह समझने के लिए कि क्या आतंकवाद की आत्म परिभाषा में पीढ़ीगत बदलाव या जेनरेशनल शिफ्ट आ चुका है, उसे कुरेदा, “इस्लाम या आजादी?”, छात्र ने कहा कि “इस्लाम और आजादी, दोनों।”

बहुत से लोग-प्रमुख रूप से कश्मीरी पंडित, जिन्हें सामूहिक तौर पर जबरन निर्वासित होना पड़ा था, यह दलील देंगे कि अलगाववाद के जन्म के पीछे हमेशा कोई न कोई धार्मिक आयाम रहा है। ज्यादातर कश्मीरी इस विचार को खारिज करते हैं और अपनी मुहिम के जातीय-राष्ट्रवादी विषय की ओर ध्यान आकृष्ट करते हैं। लेकिन निर्मम संघर्ष के कारण नृशंस और भावशून्य हो चुके समाज में इस बात को लेकर कोई संदेह नहीं कि नौजवान पीढ़ी अपने माता-पिता की पीढ़ी की तुलना में अपनी धार्मिक पहचान को लेकर ज्यादा आक्रामक है। नाम नहीं बताने की शर्त पर एक प्रमुख कश्मीरी अलगाववादी ने इस लेखिका को बताया कि अब वे अपने सार्वजनिक भाषणों में अपनी मुस्लिम पहचान को शामिल करते हैं, क्योंकि अगर वे ऐसा नहीं करेंगे, “तो कोई भी हमें सुनने नहीं आएगा।” एक वरिष्ठ पुलिस अधिकारी ने इन शब्दों में आए बदलाव को पहचाना है: “पहले, इस्लाम आजादी का उपवर्ग था, अब आजादी इस्लाम का उपवर्ग है।” हालांकि भारत के केरल, महाराष्ट्र और उत्तर प्रदेश जैसे राज्यों में जो कुछ हो रहा है, उसकी तुलना में घाटी में (एक मामले को छोड़कर)आईएसआईएस के लिए कोई भी भर्ती नहीं हुई है, राजनीतिक इस्लाम के व्यापक वैश्विक रूझान ने अनेक युवा कश्मीरियों को उचित रूप से ‘इंटरनेट उम्माह’ का हिस्सा बनने के लिए आकर्षित किया है। अगर टैक्नोलॉजी को पसंद करने वाली आतंकवादियों की इस पीढ़ी के लिए सोशल मीडिया जंग का एक हथियार बन चुका है, तो इस तथ्य को कैसे नजरअंदाज किया जा सकता है कि बुरहान वानी ने कश्मीर में खिलाफत का आह्वान किया था? मूसा तो एक कदम और आगे बढ़ गया था — उसने कहा था कि जो भी कोई इस संघर्ष को धार्मिक नहीं, बल्कि राजनीतिक मामले की श्रेणी में रखे, उसका सर कलम कर दिया जाना चाहिए। मूसा की बातों को कश्मीरी अलगाववादियों ने नकार दिया था, लेकिन वानी हो गया था, जैसे वह घाटी का चे ग्वारा हो और मूसा को तभी से कश्मीर में अल-कायदा (जिसका अस्तित्व पहले नहीं था) का स्थानीय प्रमुख घोषित किया गया — ये सभी खतरे के संकेत हैं, जिन पर ध्यान देने की जरूरत है।

जिस तरह धर्म की पैंठ गहरी होती जा रही है और सड़क पर हुर्रियत कांफ्रेंस जैसे परम्परागत अलगाववादियों की पकड़ धीरे-धीरे ढीली पड़ती जा रही है, ऐसे में यहां दिलचस्प सवाल यह उठता है: अगर वार्ता करनी हो, तो सरकार किसके साथ बातचीत करेगी? एक वरिष्ठ केंद्रीय मंत्री की दलील है कि “कट्टरपंथी मुसलमानों (या इस्लामिस्ट्स)” ने यह घोषणा करते हुए स्वायत्ततावादियों की जगह ले ली है कि व्यापक स्वायत्तता के लिए अब वार्ता गैर जरूरी हो चुकी है। लेकिन इसका निष्कर्ष यह है कि शायद यह उदारवादी लोगों के हाथ मजबूत करने का उपयुक्त समय हो सकता है, बातचीत के पक्षधर अलगाववादियों को साथ लेने से इंकार करते हुए, उनको कट्टरपंथी मुसलमानों के कैम्प के नजदीक धकेलना भारी भूल साबित हो सकती है। रिट ऑफ लॉ की बहाली को प्राथमिकता करार देते हुए, अगर दिल्ली की कश्मीर नीति का मूल मंत्र इन्हें अलग-थलग रखना रहा, तो हो सकता है कि अक्सर उग्र, रोष से भरपूर कट्टरपंथियों के इस नेताविहीन उफान के बीच, जल्द ही ऐसी स्थिति आ जाए, जब बातचीत करने के लिए कोई बचे ही न।जम्मू-कश्मीर की मुख्यमंत्री ‘आजादी के विचार’ की जगह “बेहतर विचार” का सुझाव दिए जाने के कारण कट्टरपंथियों के हमलों का निशाना बनती रही हैं हैं, लेकिन उनके नुस्खे पर ध्यान देना फायदेमंद है। उन्होंने यह चेतावनी दी है कि यदि अति महत्वाकांक्षी से राज्य के विशेष संवैधानिक दर्जे में बदलाव लाने की कोशिश की गई, तो उनके जैसे और प्रमुख विपक्षी पार्टी नेशनल कांफ्रेंस के सदस्यों जैसे मुख्यधारा के राजनीतिज्ञ बेहद कमजोर पड़ जाएंगे। उनका कहना सही है। घाटी में वर्तमान में नयी जटिल चुनौती यही है, उदारवादियों के हाथ मजबूत करना भारत की प्राथमिकता होनी चाहिए।

एक अन्य अनिवार्य तथ्य यह है कि कश्मीर घाटी में उभरता कट्टरपंथ, केवल देश के अन्य हिस्सों में हो रही दक्षिणपंथी हिंदुत्ववादी हिंसा के कारण मजबूत हो रहा है। [v] भारत का एकमात्र मुस्लिम बहुल राज्य होने के नाते, जम्मू-कश्मीर, हमेशा देश की ‘धर्मनिरपेक्ष’ राष्ट्र की गौरवशाली आत्म-पहचान के केंद्र में रहा है। जिस साल, बीफ राजनीति सुर्खियों में छाई रही और मवेशियों के मुस्लिम कारोबारी हत्यारी भीड़ का निशाना बन रहे थे — उदाहरण के तौर पर, दो कश्मीरी ट्रक ड्राइवरों पर पेट्रोल बमों से हमला [vi] इस बात से कोई इंकार नहीं कर सकता कि उग्रवाद से और ज्यादा उग्रवाद ही पनपता है।

पीडीपी-भाजपा गठबंधन की वैचारिक असंगतता की चुनौती

मुफ्ती मोहम्मद सईद द्वारा भाजपा के साथ गठबंधन को मंजूरी दिए जाने से कुछ हफ्ते पहले, वे मुम्बई में आराम कर रहे थे, ब्रिज के कुछ राउंड खेल रहे थे और अपने पुराने दोस्तों से मुलाकात कर रहे थे। वह जो कदम उठाने जा रहे थे, उसमें बहुत ज्यादा जोखिम होने के बावजूद, वे टी-शर्ट और पोल्का डॉट्स पाजामा में बहुत तनावमुक्त दिखाई दे रहे थे [vii]। उन्होंने मुस्कुराते हुए कहा था, “यह उत्तरी ध्रुव और दक्षिणी ध्रुव के एक साथ आने जैसा है।” शुरूआत में यह गठबंधन एक ऐसे जनादेश के प्रति साहसी और अनूठा संकल्प था, अन्यथा जिसने जम्मू-कश्मीर के माध्यम से राजनीतिक और धार्मिक लकीर खींचने का खतरा उत्पन्न कर दिया था । इतना ही नहीं, पीडीपी के (अपने स्व-शासन के नारों के साथ) सॉफ्ट सेपरेटिज्म और भाजपा के उग्र-राष्ट्रवाद का एक-दूसरे पर संयत प्रभाव पड़ा होता। लेकिन समय के साथ, राजनीति की विलक्षण संभावनाओं का प्रमाण होने के बावजूद, इस गठबंधन के तीखे वैचारिक विरोधाभास राज्य को अलग-अलग दिशाओं की ओर खींच रहे हैं।

‘गठबंधन का एजेंडा’ हसीब द्राबु और राम माधव ने बहुत सावधानीपूर्वक तैयार किया था, (जिन्हें अक्सर उनकी पार्टियों द्वारा मजाक में ‘राम’ और ‘लक्ष्मण’ कहा जाता है) वह फ्रेमवर्क एग्रीमेंट पूरी तरह सैद्धांतिक साबित हुआ। भाजपा के लिए आज ‘राष्ट्रवाद’ की वही अहमियत है, जो 90 के दशक में ‘हिंदुत्व’ और ‘राम मंदिर’ की हुआ करती थी। अभी हाल तक आतंकवादियों के बच्चों और परिवारों तक व्यक्तिगत पहुंच कायम करने के पक्ष में दलील देने वाली महबूबा मुफ्ती और भाजापा की राजनीति के बीच सीधा विरोधाभास है, जिसने खुद को उग्र राष्ट्रवाद की संरक्षक के रूप में स्थापित कर दिया है। गठबंधन के विरोधाभासों के इसी प्रबंधन ने मुफ्ती की अगुवाई वाली पीडीपी कश्मीर घाटी में और भाजपा जम्मू में कमजोर कर दिया है। इन दोनों पार्टियों के बीच अलगाववादियों और पाकिस्तान के साथ बातचीत तथा यहां तक कि बुरहान वानी मारा जाना चाहिए था या उसे बंदी बनाया जाना था सहित प्रत्येक मामले को लेकर बुनियादी असहमति है। जहां एक ओर विरोधाभासों को मैनेज कर लिया गया है और गठबंधन बरकरार रखा गया है, वहीं दूसरी ओर, इसे भारी महत्व दिया जा रहा है, जिसके लिए आखिरकार दृढ़ निश्चय की जरूरत होगी।

सच्चाई और सुलह अभी तक मायने रखती है

मीडिया भयावय वस्तु जैसा

राष्ट्रीय मीडिया में प्राइमटाइम की लोकप्रियता ने कश्मीर घाटी में भारत के विचार को अकेले सबसे ज्यादा नुकसान पहुंचाया है। ‘राष्ट्रीय’ क्या और “राष्ट्र-विरोधी” क्या है, इस बारे में संहिताबद्ध फरमान स्टुडियो में बैठकर बड़े-बड़े शब्दाम्बरों का इस्तेमाल करने वाले एंकर्स के द्वारा निर्धारित किया जा रहा है, इनमें से ज्यादातर ने राज्य में जमीनी स्तर पर बिल्कुल भी रिपोर्टिंग नहीं की है और इन लोगों ने कश्मीर के बारे में बातचीत को अपुष्ट तौर पर दो हिस्सों में बांट दिया है। किसी न किसी पाले को चुनने के दबाव की वजह से राज्य और उसके बहुसंख्य तथ्यों तथा अक्सर समानांतर सच्चाइयों के बारे में बात करना लगभग नामुमकिन हो गया है। अगर नेशनल न्यूज मीडिया में वैचारिक विमर्श असहिष्णु बड़बोलेपन से संचालित किया जा रहा है, तो लोकल मीडिया की कहानियां भी अपनी वैचारिक झुकावों के कारण कुछ हद तक बेखबर बनी हुई हैं। सभी आयामों का वर्णन करने की कोशिश करने वाले रिपोर्टर की एक ही रिपोर्ट पर “कट्टर राष्ट्रवादी” और “राष्ट्र-विरोधी” दोनों ही तरह का ठप्पा लग जाएगा। खांचों में बंटे मीडिया के वर्णनों ने सभी बारिकियों पर चर्चा करने और सच्चाई बयां करने की संभावनाओं को समाप्त कर दिया है। मीडिया में टकराव की बनावटी तार्किक बहस ने कश्मीर घाटी और शेष भारत के बीच अनावश्यक भेद उत्पन्न कर दिया है।

घरेलू पहल के बगैर सर्जिकल स्ट्राइक्स की नादानी

स्थानीय पहलों पर काम किए बगैर ‘सर्जिकल स्ट्राइक्स’ करने से कुछ ज्यादा हासिल न हो सकेगा। यह ज्ञान उन्होंने नहीं दिया, जिन्हें अपमानजक रूप से “रहमदिल वामपंथी-उदारवादी” करार दिया गया, बल्कि पूर्व नॉर्थन आर्मी कमांडर जनरल डी.एस. हुड्डा की ओर से दिया गया है। हुड्डा ने ही सितम्बर, 2016 में उड़ी में सेना के शिविर पर आतंकवादी हमले के बाद नियंत्रण रेखा के पार पाकिस्तान नियंत्रित आतंकवादी ठिकानों पर सर्जिकल स्ट्राइक्स की अगुवाई की थी। उन्होंने कहा कि वे समझते हैं कि स्ट्राइक्स के बाद आंतरिक स्थिति का उपयोग न कर पाना ‘मौका गंवाने” जैसा है। [viii] उन्होंने कहा, “स्ट्राइक्स के बाद हुए तमाम तरह के प्रचार के बावजूद, सेना को स्पष्ट तौर पर मालूम था कि केवल एक स्ट्राइक से पाकिस्तान से संचालित आतंकवाद का खात्मा नहीं हो सकता। पाकिस्तान पर दबाव बनाने के लिए लगातार राजनीतिक, कूटनीतिक और सैन्य प्रयास किए जाने की जरूरत है और साथ ही कश्मीर की आंतरिक स्थिति को संभालना भी उतना ही महत्पूर्ण है, जिसने अब तक शांत होना शुरू कर दिया था (हम एलसी पर हिंसा से दक्षिण कश्मीर की घटनाओं को जुदा नहीं कर सकते)। आज भावनाएं उफान पर हैं, लेकिन हमें यह नहीं सोचना चाहिए कि हमारे जवाब देने के विकल्प केवल सैन्य कार्रवाई तक सीमित हैं। सेना अपना बदला लेगी, लेकिन पाकिस्तान से निपटने के लिए ज्यादा व्यापक और सतत रणनीति बनाने की जरूरत है।” अब क्या ज्यादा व्यापक प्रतिक्रिया की दलील देने की वजह से जनरल हुड्डा को राष्ट्र-विरोधी करार दिया जाना चाहिए?

शायद कश्मीर आतंकवाद की सबसे बड़ी त्रासदी यह देखना है कि दुख और मातम मौलिक मानवीय भाव परस्पर विरोधी कथानकों की जंग तक सिमट कर रह गए हैं। कश्मीर में किसी की मौत पर आपका मातम आपकी राजनीतिक विचारधारा पर कैसे निर्भर कर सकता है। और 27 साल पुराने संघर्ष क्षेत्र में, इतिहास के जख्म अपने आप नहीं भरेंगे, इसके लिए न्याय की मरहम-पट्टी आवश्यक है। कश्मीरी पंडितों को इसकी जरूरत इसलिए है, क्योंकि वे अपनी मातृभूमि से लहूलुहान हालत में, जबरन निर्वासित किए जाने तथा 1998 के वंधामा नरसंहार जैसी घटनाओं की यादों से आज भी त्रस्त हैं, जिसमें 18पंडितों को मौत के घाट उतार दिया गया था। कश्मीरी मुसलमानों को इसकी जरूरत अपने समुदाय की “हाफ विडोज” के लिए है जो यह नहीं जानती कि उनके शौहर अपने घरों से ‘गायब’ होने के बाद मर चुके हैं या जीवित हैं। ऐसा माना जाता है कि वे गैर कानूनी मुठभेड़ों का शिकार बन चुके हैं। पथरीबल मुठभेड़ के पीड़ित भी अब तक न्याय की बाट जोह रहे हैं हैं, जिसमें पांच कश्मीरी नागरिक मारे गए थे और उन्हें गलत तरीके से सिखों के नरसंहार के लिए जिम्मेदार आतंकवादियों के रूप में प्रस्तुत कर दिया गया था। तथा हाल ही में सैन्य अदालत ने माचिल में हुई फर्जी मुठभेड़ की एक अन्य घटना में व्यापक तौर पर सराही गए आजीवन कारावास की सजा पर रोक लगा दी। ऐसा करते हुए उसने सेना के यह साबित करने के प्रयासों को ही पलट दिया कि शक्तिशाली सशस्त्र बल विशेषाधिकार कानून (एएफएसपीए) के तहत दी जाने वाली माफी के दायरे में भी निष्पक्ष व्यवहार मुमकिन है। [ix] कश्मीरी पुलिसकर्मियों के परिवार सबसे ज्यादा आसान निशाना हैं, वे रोजाना बेहद दुख और नुकसान के साए तले जीते हैं। शहीद पुलिसकर्मी फिरोज डार की छह साल की बच्ची के लिए न्याय के क्या मायने होंगे, जिसकी हत्या करने के बाद आतंकवादियों ने उसका चेहरा बिगाड़ दिया और हत्या से पहले ही सोशल मीडिया पर ‘अपने आपको कब्र में देखने की कल्पना करो’ पोस्ट डाल कर उसकी मौत की पहले से इत्तिला भी दे दी थी। खूबसूरत जवान उमर फय्याज के लिए क्या इंसाफ हो सकता है, जो निहत्था था और एक विवाह के लिए घर पर था, जब उसकी हत्या कर दी गई? इंसाफ की गैर मौजूदगी और बंद केवल हर रोज जख्मों और फॉल्टलाइन्स को गहरा कर रहे हैं। राज्य के अन्य क्षेत्र जम्मू और लद्दाख राष्र्टीय संवाद का अंग न बनाए जाने के कारण नाइंसाफी का सामना कर रहे हैं। इन फासलों के बीच संवाद का पुल बनाना और कम से कम जम्मू-कश्मीर के अंदर संवाद शुरू करना एक चुनौती है।

कश्मीर की नए सिरे से कल्पना : नए स्टेकहोल्डर्स, नई नीति

यह स्पष्ट हो चुका है कि नई दिल्ली की मानक कश्मीर नीति से अब तक कोई स्थायी नतीजा नहीं निकल सका है। इसकी वजह यह है कि अब तक इसका नजरिया संघर्ष को सुलझाने के स्थान पर उसे ‘मैनेज’ करने का रहा है। रॉ के पूर्व प्रमुख ए.एस. दुल्लत ने यह कहकर अनजाने में ही घाटी के अब तक सबसे खराब रहस्यों में से एक को उजागर कर दिया कि एजेंसियों द्वारा आतंकवादियों, अलगाववादियों और मुख्यधारा वाली पार्टियों को समान रूप से धन दिया जाता है।[x] दुल्लत ने कहा, “किसी को पैसे के बल पर भ्रष्ट बनाना उसकी हत्या करने से ज्यादा नैतिक और कहीं ज्यादा चतुराई भरा कदम है।” लेकिन यह ‘मैनेजमेंट’ या प्रभाव की तलाश, भले ही यह दुनिया भर की खुफिया एजेंसियों के रोजमर्रा का काम ही क्यों न हो, इससे बात आगे नहीं बढ़ेगी। ज्यादा से ज्यादा, इससे उबलते संघर्ष की यथा स्थिति को बहाल रखा जा सकता है। और इस थके हुए, पुराने नजरिये में विरोधाभासों का अब ढेर लगने लगा है : जैसा कि हिजबुल मुजाहिदीन का सैयद सलाउद्दीन (जिसने एक बार 1987 में चुनाव लड़ा था, जिसमें धांधली हुई थी) पाकिस्तान में लश्कर-ए-तैयबा के साथ मिलकर शोरगुल कर रहा है, जबकि उसके चार बच्चे सरकारी कर्मचारी हैं और पिछले साल सुरक्षा बलों ने एक आतंकवादी हमले में उसके एक पुत्र की जान बचाई थी। कश्मीर के आसपास ऐसे विरोधाभास मौजूद हैं, जहां एक ही परिवार में पुलिस अधिकारी और आतंकवादी दोनों ही मिल सकते हैं।

सवाल यह है कि अब आगे क्या? पुराने फार्मूले बासी पड़ चुके हैं, क्योंकि उनके प्रमुख हिमायती, मुख्यधारा और अलगाववादी दोनों जगह समान रूप से हैं। आखिर में, कश्मीर में प्रगति में असमर्थता का कारण कल्पना, राजनीति किसी एक की नहीं, बल्कि उत्तरोत्तर सरकारों की विफलता की दास्तान है। और समकालीन इतिहास, ऐसे बहुत से गंवाए गए अवसरों से भरपूर है, जिन्हें भारत ने नहीं आजमाया। सबसे पहले, जिसे अस्वीकार करना है वह सजा ए मौत : सरकार और उसका विरोध करने वाले दोनों के द्वारा। जम्मू कश्मीर के हालात हमेशा विस्फोटक रहे हैं। इन मायूसी भरे महीनों में, उम्मीद की एक छोटी सी झलक मिली है, अमरनाथ जा रहे हिंदु तीर्थयात्रियों पर आतंकवादी हमले का कश्मीरियों ने लगभग सर्वसम्मति से विरोध किया साथ ही साथ हिंसक भीड़ द्वारा पुलिस अधिकारी अयूब पंडित की हत्या की भी समान रूप से कड़ी निंदा की गई। इस लम्हे को मोटी दीवार की दरार में से छनकर दाखिल हो रही रोशनी की एक झलक के रूप में देखा जा सकता है। इस दरार को सीमेंट से मत भरिए, बल्कि इस पूरी दीवार को ढहाने का रास्ता तलाशिए। लम्बे अर्से तक, कश्मीर की ‘हैंडलिंग’ उफनते तनाव के प्रैशर कुकर पर ढक्कन लगाने के समान रही है, लेकिन हांडी तो आवश्यक तौर पर हर रोज उबलती रही है।

प्रत्येक शांति एक अवसर है। उसे हाथ से न जाने दीजिए।


लेखिका के बारे में 

बरखा दत्त अनेक पुरस्कारों से नवाज़ी जा चुकी हैं, वे जानी-मानी पत्रकार, प्रसारक और लेखिका हैं, जिन्होंने दो दशक से भी ज्यादा समय जम्मू-कश्मीर से रिपोर्टिंग करने में बिताया है। वे दिस अनक्वाइट लैंड: स्टोरीज़ फ्रॉम इंडियाज़ फॉल्ट लाइन्स की लेखिका तथा वॉशिंगटन पोस्ट, हिंदुस्तान टाइम्स और द वीक में स्तंभकार हैं। वे ट्विटर पर दुनिया भर में पांच सबसे ज्यादा फॉलो किए जाने वाले पत्रकारों में एक हैं।

एंडनोट्स

[i] IndiaSpend Report: September 20th, 2016 and South Asia Terrorism Portal (SATP).

[ii] Author’s interview and report, June-July 2010, Srinagar, http://www.hindustantimes.com/columns/kashmir-stonewalled/story-8PwtlY0X0nnYjWfAGJrf9K_amp.html

[iii] Author’s interview with General Officer Commanding 15, Corps. June 23, 2016.

[iv] ‘Tough Times Ahead as Local Militants Outnumber Pakistani’, DNA, August 3, 2015, http://www.dnaindia.com/india/report-jammu-and-kashmir-tough-times-ahead-as-local-militants-outnumber-pakistani-2110476.

[v] ‘The Darkness Deepens in Kashmir with the Rising Tide of Jingoism’, Hindustan Times, July 16, 2017, http://www.hindustantimes.com/columns/the-darkness-deepens-in-kashmir-with-the-rising-tide-of-jingoism/story-QExLY9upW1CWxCTmWCawYM.html.

[vi] ‘Jammu and Kashmir Trucker Dies, CM Mufti Mohammad Blames “Politics of Hate”’, The Indian Express, October 19, 2015, http://indianexpress.com/article/india/india-news-india/protests-in-j-k-after-truckers-death-separatists-call-for-strike/

[vii] Author’s interview with Mufti Mohammed Sayeed, February 18, 2015, Mumbai, http://www.ndtv.com/opinion/mufti-sayeed-the-great-political-gambler-by-barkha-dutt-1263116.

[viii] Author’s interview with Lt. Gen. D.S Hooda, May 2, 2017, Delhi.

[ix] ‘Macchil Killings: Tribunal Suspends Life Sentence of Five Army Personnel’, The Indian Express, July 17, 2017, http://indianexpress.com/article/india/machil-fake-encounter-armed-forces-tribunal-suspends-life-imprisonment-of-five-armymen/.

[x] Author’s interview with former R& AW chief A.S. Dulat, July 3, 2015, Delhi, http://www.ndtv.com/video/news/the-buck-stops-here/money-used-to-engage-separatists-so-what-ex-raw-chief-s-explosive-revelations-373752.

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