Expert Speak Raisina Debates
Published on Apr 30, 2025 Updated 1 Hours ago

आर्थिक सूचक ट्रंप को बता रहे हैं कि अगर वो तर्कहीन नीतियों पर अड़े रहे तो नतीजे भयानक होंगे. 

ट्रम्प को काबू में करने के लिए तिकड़ी तैयार

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दोस्त हैरान हैं. दुश्मन ख़ुश हैं. दुनिया उलझन में है. अपना गुस्सा दिखाने के लिए टैरिफ प्रतिशोध के माध्यम से अमेरिका के राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप जो आर्थिक व्यवधान पैदा कर रहे हैं, वो अलग-अलग अर्थव्यवस्थाओं में तबाही मचा रहे हैं. निश्चित रूप से ‘टैरिफ’ शब्द केवल एक कवच है जिसके पीछे एक सनकी और लापरवाह अव्यवस्था छिपी हुई है. 

निश्चित रूप से ‘टैरिफ’ शब्द केवल एक कवच है जिसके पीछे एक सनकी और लापरवाह अव्यवस्था छिपी हुई है. 

ताली पीटने वाले शर्तों को मान लेंगे. पीड़ितों में घबराहट पैदा होगी. समझौतों पर हस्ताक्षर होंगे. ट्रंप फिर से सोचेंगे लेकिन वो अपनी जल्दी-जल्दी बदलने वाली नीतियों की अनिश्चितता समाप्त नहीं करेंगे जिस पर वो फल-फूल रहे हैं. कुछ समय पहले उन्होंने सत्ता में आने के 24 घंटे के भीतर रूस-यूक्रेन के बीच युद्ध को ख़त्म करने का बड़ा ऐलान किया था लेकिन पिछले दिनों रूस-यूक्रेन के बीच मध्यस्थ बनने से इनकार करना उनकी नीतियों की अनिश्चितता का ताज़ा उदाहरण है. अभी तक जो छिपा हुआ था वो अब सबके सामने है: संयुक्त राष्ट्र के माध्यम से 1945 में स्थापित नियम आधारित अंतर्राष्ट्रीय व्यवस्था और विश्व व्यापार संगठन (WTO) के माध्यम से 1995 में तैयार वैश्वीकरण में भारी व्यवधान से इसका पता चलता है. दोनों व्यवस्थाओं को पिछले कुछ दशकों के दौरान चीन ने धीरे-धीरे हाईजैक कर लिया था और शी जिनपिंग के कार्यकाल के दौरान तो इसकी गति और बढ़ गई. 

वॉशिंगटन डीसी से 12,075 किलोमीटर दूर दिल्ली इस नाटक को तीन हिस्से के रूप में देखती है. इस नाटक के भीतर मनोरंजन की सभी भावनाएं हैं- सदमा और डर, मनोरंजन, घबराहट, तनाव, राहत; एक निराश प्रेमी, एक नफरत से भरा विरोधी, लगातार चलने वाला दो पक्षों का, दो इलाकों का युद्ध. अंत का इंतज़ार है, शायद वो अभी भी लिखा जा रहा है. नाटक के पहले हिस्से ने ट्रंप के चुनाव से पहले के एजेंडे के माध्यम से बुनियाद और उम्मीदें रखीं. नाटक का दूसरा हिस्सा जारी है जो कि घरेलू स्तर पर आंशिक सफल है लेकिन विदेशों में ज़्यादातर असफल. नाटक का तीसरा हिस्सा अभी कुछ दूर है.

इस दूरी के आसमान में तीन शक्तिशाली संस्थाएं एक ऐसी शक्ति पर जवाबी नियंत्रण और संतुलन प्रदान करेंगी जिसका एक उचित मौलिक दर्शन था. आप इससे असहमत हो सकते हैं लेकिन ये तर्कों पर आधारित है. इसकी शुरुआत अच्छी हुई थी. लेकिन अब ये नशे और अतार्किक उत्साह की स्थिति में है. ये लेख तीन जवाबी संतुलनकारी बलों को दर्शाता है जो ट्रंप को काबू में कर सकते हैं. 

बाज़ार 

उस राजनीतिक नैरेटिव को एकदम भूल जाइए जो शेयर बाज़ार को अनदेखा करता है क्योंकि ये अमीरों का, अमीरों के द्वारा और अमीरों के लिए माध्यम है. अमेरिका में 56 प्रतिशत परिवारों या 12.7 करोड़ निवेशकों ने म्यूचुअल फंड में निवेश किया है. भारत में 22 करोड़ डायरेक्ट इक्विटी पोर्टफोलियो (शेयर बाज़ार में निवेश करने वाले) और 23.5 करोड़ म्यूचुअल फंड पोर्टफोलियो (म्यूचुअल फंड में निवेश करने वाले) हैं. शेयर बाज़ार अब अमीरों का प्लैटफॉर्म नहीं है. ये मध्य वर्ग के लिए पैसा बनाने का साधन बन गए हैं. अगर कोई नेता शेयर बाज़ार को नज़रअंदाज़ करता है तो इसका ये मतलब है कि वो राजनीतिक अर्थव्यवस्था से तालमेल नहीं रख पा रहा है. मई 2004 में भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी के तत्कालीन महासचिव स्वर्गीय ए बी बर्धन ने कहा था “सेंसेक्स भाड़ में जाए” लेकिन अब ऐसे बयान इतिहास बन गए हैं. आज जब शेयर बाज़ार में गिरावट आती है तो इससे मतदाताओं को पैसे का नुकसान होता है और राजनीतिक फैसलों पर असर होता है. हो सकता है कि नुकसान हुआ हो या नहीं हुआ हो लेकिन आप ख़रीद-बिक्री के चार दिनों में S&P 500 में 12 प्रतिशत गिरावट और उसके बाद ट्रंप के द्वारा 90 दिनों के लिए ‘टैरिफ’ पर राहत के बीच संबंधों को नज़रअंदाज़ नहीं कर सकते. 

दूसरे बाज़ार जो राजनीति को प्रभावित करते हैं वो हैं बॉन्ड और करेंसी. बॉन्ड और उनकी कीमत के पीछे बुनियादी एसेट कंपनियां या सॉवरेन, उनका क्रेडिट रिस्क और उनकी ब्याज दरें हैं. बॉन्ड मार्केट इन बदलावों का अनुमान लगा लेते हैं. ब्याज दर में बदलाव नहीं होने पर बॉन्ड की कीमत में अचानक बदलाव किसी अर्थव्यवस्था में भरोसे का एक मज़बूत संकेत है. बॉन्ड मार्केट किसी घटना या नीति को लेकर अपनी नाराज़गी या बेचैनी बॉन्ड बेचकर जताता है. जब बॉन्ड की कीमत गिरती है तो लाभ बढ़ जाता है. 10 साल का बॉन्ड लाभ 4.01 प्रतिशत से बढ़कर 11 अप्रैल 2025 को 4.48 प्रतिशत हो गया. प्रभावी रूप से ट्रंप ने इस विचार को भी खारिज कर दिया कि अमेरिकी बॉन्ड वैश्विक वित्त के लिए शरण लेने की जगह है. वैसे तो ट्रंप ने इसके परिणामस्वरूप अपने ‘टैरिफ’ युद्ध को रोक दिया है लेकिन अनिश्चितता ख़त्म नहीं हुई है. 

कंपनियों की दिशा में अंतर्राष्ट्रीय व्यापार, मूल्य प्रतिस्पर्धात्मकता, निवेश और वित्त को करेंसी प्रभावित करती है जबकि परिवारों की दिशा में माइग्रेशन, शिक्षा और यात्रा को करेंसी प्रभावित करती हैं.

कंपनियों की दिशा में अंतर्राष्ट्रीय व्यापार, मूल्य प्रतिस्पर्धात्मकता, निवेश और वित्त को करेंसी प्रभावित करती है जबकि परिवारों की दिशा में माइग्रेशन, शिक्षा और यात्रा को करेंसी प्रभावित करती हैं. फरवरी और अप्रैल के बीच डॉलर की कीमत में 2.5 प्रतिशत की कमी ने दुनिया की रिज़र्व करेंसी में विश्वास कम किया और हो सकता है कि बॉन्ड बाज़ार में गिरावट में डॉलर ने योगदान दिया होगा और ‘टैरिफ’ को लेकर ट्रंप के यू-टर्न को बढ़ाया होगा. लेकिन इसमें अभी और भी गिरावट आ सकती है, लगभग 10 प्रतिशत तक. इससे अमेरिका में आने वाले पैसे पर असर पड़ सकता है क्योंकि एक ऐसे बाज़ार से नया मुद्रा जोखिम उभर कर सामने आया है जो अभी तक स्थिर रहा था. 

इसके साथ दूसरे अमेरिकी एसेट जैसे कि शेयर और बॉन्ड अधिक जोखिम से भरे लगते हैं. ये दो करेंसी लक्ष्यों के बीच एक नए संघर्ष का निर्माण भी करता है. अमेरिका के लिए ट्रंप की आर्थिक इच्छा निर्यात के मामले में प्रतिस्पर्धी बनना है जिसका मतलब कमज़ोर डॉलर है. वहीं विश्व की रिज़र्व करेंसी के रूप में डॉलर का दर्जा बनाए रखने पर ट्रंप के रणनीतिक ज़ोर का अर्थ है स्थिर या मज़बूत डॉलर. डॉलर के दर्जे को लेकर अनिश्चित नीतिगत व्यवस्था दुनिया की रिज़र्व करेंसी की मज़बूती पर सवाल खड़ा करती है.   

शेयर, बॉन्ड और करेंसी को एक साथ किसी साझा वित्तीय टोकरी में रखिए और हमें उनके मेल-जोल के भरोसे में लगातार गिरावट नज़र आएगी. इससे न केवल ट्रंप की विशिष्ट नीतियों, जैसे कि ‘टैरिफ’ पर, बल्कि उनकी दिशा पर भी नियंत्रण हो सकता है. 

महंगाई

लाभ चाहने वाली, वैल्यू बनाने वाली, टैक्स देने वाली, नौकरी पैदा करने वाली और पैसा बनाने वाली संस्थाओं के रूप में प्राइवेट कंपनियां अमेरिका की राजनीतिक अर्थव्यवस्था के केंद्र में हैं. वो दुनिया भर से अपना कच्चा माल खरीदती हैं. इसका कारण उपलब्धता (दुर्लभ पृथ्वी तत्व) से लेकर मूल दक्षता (इलेक्ट्रॉनिक कंपोनेंट) तक हो सकते हैं. इससे अमेरिकी कंपनियों को अपने अंतिम उत्पाद की लागत पर बचत करने में मदद मिलती है. ये ख़तरे की विविधता को सुविधाजनक बनाते हैं और ये इनोवेशन का आयात कर सकते हैं. जब तर्कहीन टैरिफ इन सामानों के आयात को महंगा बनाते हैं तो बड़ी कंपनियां तो कुछ समय के लिए नुकसान को झेल सकने में सक्षम होंगी लेकिन छोटी कंपनियों को बढ़ी हुई लागत का बोझ दूसरों पर डालना होगा जिससे उपभोक्ता को सामान महंगा मिलेगा. महंगा सामान उपभोक्ता ख़रीदेगा या नहीं ये उसका जोखिम होगा. 

उपभोक्ताओं पर बोझ बढ़ाने की ये सीमा चाहे कुछ भी हो (अनुमान है कि सभी आयात इनपुट से लेकर बारीक उद्योग विशिष्ट अंतर 53 प्रतिशत से लेकर 95 प्रतिशत तक हैं) लेकिन जैसा कि पहले बताया गया है नतीजा महंगाई होगी. अमेरिका के केंद्रीय बैंक फेडरल रिज़र्व के लिए इसे संभालना पेचीदा होगा. फेडरल रिज़र्व के प्रमुख जेरोम एच. पॉवेल एक मुश्किल कुर्सी पर बैठे हैं. एक तरफ तो ट्रंप उन्हें पद से बर्खास्त करने की धमकी देकर उन पर ब्याज दर कम करने का दबाव डाल रहे हैं, दूसरी तरफ 2 प्रतिशत से ज़्यादा महंगाई की आशंका उन पर दबाव डाल रही है कि या तो वो ब्याज दर बढ़ाएं या 4.25 प्रतिशत और 4.5 प्रतिशत के बीच स्थिर बनाए रखें. 

किसी भी तरह से देखें तो महंगाई दुनिया भर में मतदाताओं को दूर करती है और अमेरिका इससे अलग नहीं होगा. आर्थिक कठिनाई और रहन-सहन के स्तर में गिरावट के अलावा महंगाई आर्थिक असंतोष पैदा करती है जो वोट देने में दिखाई देता है. ‘टैरिफ’ पर ट्रंप का सख्त रवैया उनके प्रशासन पर कदम उठाने का दबाव डालेगा. राजनीतिक परिणाम तय करने में दीर्घकालीन कठिनाई निवेशकों के लिए होती है लेकिन मतदाताओं के लिए कम समय की कठिनाई सबसे ज़्यादा मायने रखती है. अगर ट्रंप अमेरिका में मैन्युफैक्चरिंग के ज़रिए रोज़गार सृजन पर दांव लगा रहे हैं तो वहां तक पहुंचने से पहले उन्हें अप्रत्याशित राजनीतिक माहौल से गुज़रना होगा.   

‘टैरिफ’ पर ट्रंप का सख्त रवैया उनके प्रशासन पर कदम उठाने का दबाव डालेगा. राजनीतिक परिणाम तय करने में दीर्घकालीन कठिनाई निवेशकों के लिए होती है लेकिन मतदाताओं के लिए कम समय की कठिनाई सबसे ज़्यादा मायने रखती है.

ऐसे में अगर तीनों बाज़ार (शेयर, बॉन्ड और करेंसी) नहीं तो महंगाई ट्रंप को काबू में रखेगी. ये अलग बात है कि दोनों बुनियादी रूप से जुड़े हुए हैं क्योंकि जब महंगाई बढ़ती है तो ब्याज दर में भी बढ़ोतरी होती है. कंपनियों के लिए अधिक ब्याज दर से पूंजी जुटाना महंगा हो जाता है और ब्याज की लागत बढ़ जाती है. लेकिन महंगाई की राजनीति नुकसान पहुंचाएगी क्योंकि अमेरिका में घरेलू कर्ज़ GDP का 75 प्रतिशत है और ये मतदाताओं को ब्याज दरों की अनिश्चितता को लेकर संवेदनशील बनाती है. अगर किसी समय ‘टैरिफ’ की वजह से इनपुट लागत और ब्याज दरों की वजह से ब्याज की लागत बहुत ज़्यादा बढ़ जाती है तो व्यवसाय अपने विस्तार को रोक देंगे, उन्हें नुकसान का सामना करना पड़ेगा और यहां तक कि वो बंद भी हो सकते हैं. वहीं परिवार भी वित्तीय तनाव में आ जाएंगे. बाज़ार और महंगाई ट्रंप के टैरिफ प्रतिशोध को काबू में करने के लिए दोहरी मार दे सकती हैं. 

मंदी

अंत में, अगर बात बहुत आगे बढ़ जाती है तो 2025 की तीसरी तिमाही तक अमेरिका मंदी की भयावह स्थिति का सामना करना पड़ेगा. मंदी तब आती है जब लगातार दो तिमाही में नकारात्मक GDP विकास होता है. इसके परिणामस्वरूप उपभोक्ताओं के खर्च में कमी आती है जो कारोबारी अस्थिरता और लाभ के दुष्चक्र का साधन बन जाता है. इसका राजनीतिक नतीजा नौकरियों का ख़त्म होना है. इसको अर्थव्यवस्था में अधिक कीमत से जोड़ दें तो गिरावट महंगाई से पैदा मंदी (स्टैगफ्लेशन) में भी बदल सकती है यानी सपाट या नकारात्मक विकास के साथ ज़्यादा महंगाई. इसके आर्थिक निराशा में बदलते का ख़तरा है या बेहद ख़राब स्थिति में आर्थिक अवसाद (डिप्रेशन) की स्थिति हो सकती है जो लगातार आर्थिक गिरावट का समय है और जिस दौरान GDP सिकुड़ जाती है, बेरोज़गारी बढ़ जाती है और उपभोक्ताओं का विश्वास प्रभावित होता है. ट्रंप इतने चतुर तो हैं कि इसे रोक सकते हैं. 

अमेरिका में डिप्रेशन की कम आशंका है लेकिन मंदी का ख़तरा मंडरा रहा है (60 प्रतिशत संभावना) या पहले ही मंदी आ चुकी है. अर्थव्यवस्थाओं के लिए मंदी से बाहर निकलना आसान नहीं है. इस बार अमेरिका के लिए ये और भी बदतर स्थिति होगी क्योंकि ये व्यापार के लिए उसका दरवाज़ा बंद कर सकती है, कंपनियों की लागत बढ़ा सकती है और विश्वास में कमी के बीच उपभोक्ताओं पर अधिक कीमत थोप सकती है. ट्रंप नागरिकों के लिए आशा को निराशा में बदल सकते हैं. लेकिन ट्रंप के नीतिगत व्यवहार को रेखांकित करने वाली व्यावहारिकता को देखते हुए वो इस दुर्भाग्यपूर्ण प्रतिशोध की दुर्गति से पीछे हट सकते हैं और अमेरिका को फिर से महान बनाने के लिए नए रास्तों की तलाश कर सकते हैं. 

ऐसा करने के लिए ट्रंप को अपना अहंकार छोड़ना होगा, सहयोगियों के साथ काम करने के लिए उनको मनाना होगा, विशेष रूप से 20 ट्रिलियन डॉलर की अर्थव्यवस्था वाले EU को. हो सकता है कि EU ऐसा करे. ऐसा ही 50 दूसरे देश भी कर सकते हैं जिनके बारे में ट्रंप का दावा है कि वो उनके साथ व्यापार समझौते पर बातचीत करने के लिए कतार में खड़े हैं. लेकिन सभी देश ऐसा ये जानते हुए करेंगे कि अमेरिका अब वैसा भरोसेमंद साझेदार नहीं रहा जैसा पिछले आठ दशकों से था. भारत और अमेरिका व्यापार समझौते के पहले चरण के लिए विचारार्थ विषयों (टर्म्स ऑफ रेफरेंस) पर पहले ही हस्ताक्षर कर चुके हैं. इसलिए मंदी, जो अमेरिका को बहुत बड़ा झटका पहुंचाती, आने की आशंका बहुत कम है. 

भरोसा

ट्रंप ने सहयोगियों और दुश्मनों पर एक जैसा दबाव डालकर आक्रामक रणनीति की जिन गलतियों को ठीक करने की कोशिश की थी, वो जल्दबाज़ी में बनाई गई नीतियों, ख़राब कार्यान्वयन और गैर-इरादतन नतीजों की वजह से नाकाम हो गई. उदाहरण के लिए, चीन बातचीत की राह पर चलने से मना कर रहा है जिसकी वजह से ऐसा लग रहा है कि ट्रंप हवा में तलवारबाज़ी कर रहे हैं. अमेरिका के पास सबसे बड़ा रणनीतिक हथियार- जो तीन अक्षरों वाला भरोसा नाम का शब्द है- तीन अक्षरों वाले एक और शब्द ताकत के अहंकार की वजह से सड़ रहा है. इस असंभव विश्व में नई असंभवनाएं सामने आएंगी. 

ट्रंप ने सहयोगियों और दुश्मनों पर एक जैसा दबाव डालकर आक्रामक रणनीति की जिन गलतियों को ठीक करने की कोशिश की थी, वो जल्दबाज़ी में बनाई गई नीतियों, ख़राब कार्यान्वयन और गैर-इरादतन नतीजों की वजह से नाकाम हो गई.

ये कोई नई बात नहीं है. दूसरे तरीकों से शी जिनपिंग का चीन भी लगभग यही कर रहा है. वो नियम आधारित अंतर्राष्ट्रीय व्यवस्था का पालन नहीं करता है, बाज़ार तक पहुंच को रोकता है, तकनीकों की चोरी करता है, व्यापार एवं अर्थव्यवस्था को हथियार के रूप में इस्तेमाल करता है और सैन्य ताकत की धमकी के सहारे छोटे देशों को परेशान करता है. 

अब दुनिया में भरोसे की कमी अमेरिका तक पहुंच गई है. अगर अब से 45 महीने बाद ट्रंप की विरासत का उद्देश्य अमेरिका को चीन के साथ और ख़ुद को शी जिनपिंग के साथ जोड़ना है तो दुर्भाग्यपूर्ण घटनाओं के साथ चलते हुए दुनिया को इस भू-राजनीतिक सर्कस से आगे देखने की आवश्यकता होगी और गंभीर, परिपक्व एवं मज़बूत रणनीतिक और आर्थिक ताकत के अपने केंद्र बनाने होंगे. 


गौतम चिकरमाने ऑब्ज़र्वर रिसर्च फाउंडेशन के उपाध्यक्ष हैं.

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