Author : Tufail Ahmad

Published on Feb 06, 2017 Updated 0 Hours ago

अंतरराष्ट्रीय व्यवस्था से उदारवादी वैश्विक दृष्टिकोण का पर्दाफाश हो रहा है।

गंभीर बदलाव से गुजरती विश्व व्यवस्था

21 जनवरी को डोनाल्ड ट्रंप के राष्ट्रपति बनने के विरोध में दस लाख से ज्यादा महिलाएं वाशिंगटन और दुनिया भर के शहरों में प्रदर्शन के लिए सड़कों पर उतरीं। अंतरराष्ट्रीय राजनीतिक में ‘टर्निंग प्वाइंट’ उन घटनाओं को कहते हैं, जहां से वापस लौटना नामुमकिन होता है। महिलाओं के प्रदर्शन से पहले हाल के वर्षों में तीन और घटनाएं हुई हैं जो यह दिखाती हैं कि अंतरराष्ट्रीय व्यवस्था एक ऐसे मंथन से गुजर रही है, जिसे दोबारा पीछे की ओर नहीं मोड़ा जा सकता। पहली घटना थी, भारत में 2014 में नरेंद्र मोदी का प्रधानमंत्री बनना। दूसरी थी, जून 2016 में ब्रेक्सिट वोटिंग, जिसमें ब्रिटिश जनता ने यूरोपीय संघ से बाहर होने का फैसला किया। तीसरी घटना थी, नवंबर के राष्ट्रपति चुनाव में डोनाल्ड ट्रंप की जीत।

ये तीनों टर्निंग प्वाइंट संबंधित देशों की स्थापित प्रक्रिया से ठीक उलट थे। मुख्यधारा(मेनस्ट्रीम) मीडिया की भविष्यवाणियों और स्थापित बुद्धिजीवियों तथा ब्रिटिश प्रधानमंत्री डेविड कैमरन जैसे राजनेताओं की समझ को नकारने वाली। इस प्रक्रिया में, इन घटनाओं ने पत्रकारों, प्रोफेसरों, साहित्यकारों और बुद्धिजीवियों जैसे सुविज्ञ लोगों के थोपे हए विश्वबोध को ध्वस्त कर दिया। इस प्रबुद्ध वर्ग ने मोदी, ट्रंप और ब्रेक्सिट समर्थक वोटरों को गंवार, अश्लील और गैर-जवाबदेह माना।

ये तीन घटनाएं अधिकांश लोगों की ग्लोबलाइजेशन के गटर में जा गिरी निराशा और राजनेताओं की सहानुभूति पर निर्भर रहने को भी दर्शाती हैं। जहां ये राजनेता पहचान की राजनीति करते हैं और 9/11 के बाद के वर्षों के दौरान इस्लामवाद के मुख्यधारा में शामिल किए जाने से कतई धैर्य नहीं खोते।

निश्चित तौर पर, इन देशों के लोगों ने स्थापित लोकतांत्रिक संस्थाओं और प्रक्रियाओं का इस्तेमाल कर ही ये बदलाव कायम किए। नतीजा यह हुआ कि ब्रिटेन के बुद्धिजीवियों, 21 जनवरी के प्रदर्शन में शामिल होने वाली महिलाओं और भारत के पुरस्कार विजेताओं को लगा कि वे किसी संकट में फंस गए हैं। उनके लिए इस नई और बदली हुई राजनीतिक स्थिति में सांस लेना बेहद मुश्किल हो गया। भारत में इन्होंने इसे ‘असहिष्णुता(इनटोलरेंस)’ का नाम दिया। यह ऐसा राजनीतिक विमर्श था, जिसके बारे में पहले कभी सुना नहीं गया था। ट्रंप ने अमेरिका के राष्ट्रपति के तौर पर जिस दिन शपथ ली, इनमें से कुछ लोगों ने वाशिंगटन में दुकानों और पुलिस गाड़ियों पर हमला भी किया। पॉप कलाकार मैडोना को लगा कि ट्रंप की हत्या कर देनी चाहिए: “मैं गुस्से में हूं। हां मैं आक्रोशित हूं। हां मुझे व्हाइट हाउस को उड़ा देने जैसे अजीब से खयाल भी आए।” आॅस्कर-विजेता हॉलीवुड कलाकार रॉबर्ट डी नीरो ने ट्रंप पर हमला करने और ‘मुंह पर घूंसा मारने’ की इच्छा के बारे में बताया।

तो ऐसे में गंभीर सवाल यह है कि दुनिया भर में हो रहे इस बदलाव की व्याख्या कैसे की जाए। आज हम जिस वैश्विक व्यवस्था में रह रहे हैं, वह 1648 की वेस्टफेलिया की शांति के जरिए उभरी है। यह ऐसा शांति समझौता था जिसने तीस साल के युद्ध को समाप्त किया। कैथलिक और प्रोटेस्टेंट राज्यों के बीच धार्मिक युद्ध ने उस समय की महाशक्तियों को भी शामिल कर लिया था। इस समझौते के नतीजे के तौर पर आधुनिक राष्ट्र-राज्यों का जन्म हुआ। ये संप्रभुता के सापेक्षिक सिद्धांत पर आधारित थे, जिसका आधार यह था कि एक राष्ट्र-राज्य दूसरे के आंतरिक मामले में हस्तक्षेप नहीं करेगा। इसने एक नई वैश्विक व्यवस्था को जन्म दिया जिसके सदस्य धार्मिक राज नहीं बल्कि राष्ट्र राज्य थे। राष्ट्र-राज्य आधारित इस वैश्विक व्यवस्था को 1945 से संयुक्त राष्ट्र सहारा दे रहा है।

आज लोग जिस वैश्विक व्यवस्था में रह रहे हैं, वह मूल रूप से 1648 के वेस्टपेलिया के शांति समझौते से पैदा हुई है। यह ऐसा शांति समझौता था जिसने 30 साल के युद्ध को समाप्त किया। कैथलिक और प्रोटेस्टैंट के बीच धर्म पर आधारित ऐसा युद्ध जिसने उस समय की दुनिया की सबसे अहम शक्तियों को भी इसमें शामिल कर लिया था।

राष्ट्र-राज्यों की वैश्विक व्यवस्था के 1648 से 1945 तक और उसके बाद परिपक्व होने से जो बौद्धिक विश्वदृष्टि पैदा हुई उसे लिबरल या उदारवादी कहा जा सकता है। हालांकि लोगों के विचारों को सिर्फ लिबरल और कंज़रवेटिव(उदारवादी और परंपरावादी) के दो खांचों में रख कर नहीं देखा जा सकता, इसके बावजूद ये दोनों शब्द हमें विश्व व्यवस्था को परिभाषित करने में मदद जरूर करते हैं। भले ही इसे संकुचित नजरिया माना जाए, लेकिन यह माना जा सकता है कि उदारवादी ऐसे वैश्विक नागरिक हैं, जो सामाजिक हकीकत और अंतरराष्ट्रीय राजनीति को अपने खास चश्मे से ही देखते हैं, जो उम्मीदों पर आधारित और सपने दिखाने वाला है बजाय कि हकीकत पर आधारित होने के। हालांकि परंपरावादी यानी कंज़रवेटिव निराशावादी होते हैं जो संस्कृति और सभ्यता से बहुत गहरे जुड़े होते हैं और सामाजिक हकीकत और राजनीति को उसी तरह देखते हैं जैसी वह है ना कि जैसा उसे होना चाहिए।

वेस्टफेलियन शांति समझौते से पहले यूरोप में धार्मिक युद्धों में लगभग 80 लाख लोग मारे जा चुके थे। इसी तरह 1945 में संयुक्त राष्ट्र की स्थापना से पूर्व दूसरे विश्व युद्ध के दौरान लगभग छह करोड़ लोग मारे जा चुके थे। यह ऐसा युद्ध था, जिसकी समाप्ति हिरोशिमा और नगासाकी पर हुए परमाणु हमले से हुई थी। इससे पहले 3.8 करोड़ लोग पहले विश्व युद्ध में मारे जा चुके थे। इन वैश्विक नरसंहारों के बीच यह सहज ही था कि पश्चिमी मीडिया और बौद्धिक जगत से संचालित दुनिया में एक उदारवादी नजरिया पैदा हो जाता। उम्मीदों से भरे इस नजरिये ने दुनिया भर में विश्वविद्यालयों पर कब्जा जमा लिया। इसमें पासपोर्ट से तय होने वाले संकुचित राष्ट्रवाद की बजाय वैश्विक नागरिकता की बात थी और ‘सेकुलरिज्म’ का दर्शन था। ऐसे पासपोर्ट-मुक्त विश्व दर्शन में यूरोपीय संघ जैसी शांति परियोजनाएं काफी फली-फूलीं।

मैडोना और ओबामा जिस उदारवादी नजरिये का प्रतिनिधित्व करते हैं, वह अब अपनी अहमियत खो चुका है। यह विचार अब दिवालिया लगता है, क्योंकि इस नजरिये के पैरोकारों की ओर से संचालित वैश्विक कारोबार बहुत से देशों के अधिसंख्य लोगों को आर्थिक खतरे की जद में छोड़ देता है, जबकि चीन जैसे चंद देश खूब फलते-फूलते हैं। यह इसलिए भी दिवालिया लगता है, क्योंकि ओबामा जैसे लोग नासा को इस्लामी देशों से वैज्ञानिकों को भर्ती करने और प्रशिक्षित करने को कह कर एक वर्ग की राजनीति करते हैं। यह इसलिए दिवालिया लगता है, क्योंकि भारत में सेकुलरिज्म का मतलब मुसलमानों को खुश करना मान लिया जाता है। अमेरिका में यह दिवालिया लगता है, क्योंकि ओबाम-सरीखे राजनेता अपने नजरिये को मुफीद बैठने वाले बदलाव करने में जुटे होते हैं। यह नैतिक रूप से दिवालिया लगता है, क्योंकि ट्रंप के राष्ट्रपति बनने के खिलाफ प्रदर्शन करने को निकली दस लाख से ज्यादा महिलाएं मुस्लिम औरतों की आजादी और इस्लामी शरिया के सवाल पर आम तौर पर चुप्पी ओढ़ लेती हैं हैं। भारत में यह दिवालिया लगता है, क्योंकि ममता बनर्जी और अरविंद केजरीवाल जैसे राजनेता से ले कर शाहरुख खान और करण जौहर जैसे स्टार पाकिस्तान के गायकों और कलाकारों की तरफदारी करते हैं ना कि अपने देश के मूल लोगों के।

मडोना और ओबामा जिस लिबरल विचारधारा का प्रतिनिधित्व करते हैं, उसकी प्रासंगिकता समाप्त हो चुकी है। यह दिवालिया लगती है, क्योंकि इस विचारधारा का प्रतिनिधित्व करने वालों के दबदबे वाली वैश्विक कारोबार बहुत से देशों के अधिसंख्य लोगों को आर्थिक खतरे की जद में छोड़ देता है, जबकि चीन जैसे चंद देश खूब फलते-फूलते हैं।

अंतरराष्ट्रीय व्यवस्था से उदारवादी वैश्विक दृष्टिकोण का पर्दाफाश हो रहा है। भारत में, इसे समझने के लिए हम राष्ट्रवादी और सेकुलरवादी दो धारणाओं का इस्तेमाल कर सकते हैं। भारतीय उदारवादी वर्ग राष्ट्रवाद को यूरोपीय संदर्भ में ही देखता है, जहां यह संकुचित और आगे चल कर हत्या की ओर ले जाने वाला विचार है। यह दो विश्व युद्धों के दौरान युद्ध, बीमारियों और कुपोषण की वजह से दस करोड़ लोगों की मृत्यु का कारण बना है। चूंकि भारत में राष्ट्रवाद का जो प्रचलित नजरिया है, वह अपनी प्रकृति में यूरोपीय है, इसलिए भारतीय लिबरल बुद्दिजीवी और संपादक भारतीय राष्ट्रवाद को नीची नजर से देखते हैं और इसी वजह से उन्हें हर वो चीज पसंद आती है जो पाकिस्तानी है, क्योंकि पाकिस्तानी ही वह चीज है जो भारतीय राष्ट्रवाद का उपहास करने का सबसे आसान तरीका हो सकती है।

हालांकि, यह नजरिया राष्ट्रवाद के भारत के मौलिक और वास्तविक दृष्टिकोण से उल्टा है। यह भारत पर हमले से पहले के काल में पैदा हुआ विचार है जहां भारतीय सभ्यता वैश्विक गांव और विश्व बंधुत्व पर आधारित थी। इसका आधार ‘वसुधैव कटुंबकम’ का भाव था। हालांकि इस बारे में कई राय प्रचलित हैं, लेकिन वैश्विकता पर आधारित भारतीय राष्ट्रवाद का विचार वैदिक काल से आता है और राष्ट्रवाद के यूरोपीय संकुचित नजरिए से काफी अलग है। भारत के इस मौलिक राष्ट्रवाद को समझने के लिए आपको सिकंदर के 326 बीसीई में हुए आक्रमण से बहुत पहले से देखना होगा। यह भूलना नहीं चाहिए कि बहुलतावाद और सह-अस्तित्व के जिन दो विचारों की पश्चिम इतनी चर्चा करता है उसका वास्तविक उद्गम भारत ही है। ये सिद्धांत हमलों से पूर्व के वैदिक काल के हैं।

भारत का लिबरल वर्ग राष्ट्रवाद को यूरोपीय संदर्भ में देखता है।

इसी तरह, भारत के बुद्धिजीवियों और पत्रकारों पर जो सेकुलरिज्म हावी है, वह भी स्वभाव से यूरोपीय ही है। चूंकि यूरोपीय सत्ताओं ने बहुत से धर्म आधारित युद्ध झेले हैं, उनके बुद्धिजीवियों और लेखकों ने भी सेकुलरिज्म का विचार विकसित किया, जिसे भारत में सांप्रदायिक सौहार्द के संकुचित दायरे में देखा जाता है। यह जानना दिलचस्प है कि मूल यूरोपीय संदर्भ में सेकुलरिज्म का मतलब विचारों का आदान-प्रदान है जो धार्मिक कट्टरपंथ के प्रभाव को सीमित करता है। भारत में यह अपना मतलब पूरी तरह से खो देता है, क्योंकि खुद को सेकुलर बताने वाले भारतीय बुद्धिजीवी और संपादक हर हाल में इस्लामवादियों की गोद में ही जा कर बैठ जाते हैं। हालांकि, सेकुलरिज्म का भारतीय मतलब वैश्विकतावाद और बहुलतावाद तथा सह-अस्तित्व से युक्त सांप्रदायिक सौहार्द है क्योंकि इसको परिभाषित करने वाले सिद्धांत पूरी तरह भारतीय हैं और वैदिक सभ्यता में जिनकी जड़ें हैं।

यह जानना दिलचस्प है कि सेकुलरिज्म का मौलिक यूरोपीय भाव भारत में पूरी तरह अप्रासंगिक है। वहां यह विचारों का ऐसा आदान-प्रदान है जो धार्मिक कट्टरपन के प्रभाव को कम करता है।

यूरोपीय नजरिये से परिभाषित होने वाली और इसके दबदबे वाले वैश्विक व्यवस्था चाहे वह अंतरराष्ट्रीय व्यापार हो, या सेकुलरिज्म और लिबरलिज्म हो, इन सभी में एक बड़ा छिद्र है। यह छिद्र एक नए तरह के राजनितिज्ञों की ओर से भरा जा रहा है जो इस बड़े छिद्र की वजह से ही उभर रहे हैं। ये राष्ट्र-राज्यों के व्यापारिक हितों और असली राष्ट्रवाद के जरिए अपने लोगों की वकालत करते हैं, लेकिन निश्चित तौर पर लोकतांत्रिक और संवैधानिक संस्थानों और प्रक्रियाओं के जरिए। इसी प्रक्रिया के तहत उनके लिबरल पूर्ववर्तियों ने अपने लोगों पर असहिष्णु लंबी अवधि तक राज किया है। यह जानना दिलचस्प होगा कि ऊपर जिन तीन टर्निंग प्वाइंट की चर्चा की गई है, उन सभी के बाद लिबरल वर्ग के मैडोना और डे नीरो जैसे लोगों ने ही लोकतांत्रिक संस्थानों में अविश्वास जताया है, जबकि अधिकांश लोगों ने मनचाहा बदलाव लाने के लिए खुशी-खुशी इस व्यवस्था का उपयोग किया है।

ट्रंप और मोदी दोनों ही अपने-अपने देशों में मौजूदा व्यवस्था के लिए बाहरी हैं और उस व्यवस्था को सुधार रहे हैं। यहां तक कि ब्रेक्सिट भी यूरोपीय व्यवस्था में सुधार के लिए ही वोट था। दरअसल, यह बताना सामयिक होगा कि यूरोपीय संघ और संयुक्त राष्ट्र दोनों मोटे तौर पर टूटे हुए दिखाई देते हैं, जिनके गंभीर इलाज की जरूरत है। डोनाल्ड ट्रंप की जीत पर टिप्पणी करते हुए अमेरिकी पत्रिका वीकली स्टेंडर्ड के क्रिस्टोफर काल्डवेल ने हाल में लिखा था: “संभवतः आश्चर्य की बात यह है कि किसी अमेरिकी राजनेता को इतना लंबा समय लग गया कि वह कह सके कि अगर व्यवस्था के नेता पर इसे अंदर से ही सुधारने का भरोसा नहीं किया जा सकता तो उन्हें इसे बाहर से बदलने का आदेश दिया जाए।” वैश्विक व्यवस्था वास्तव में एक गंभीर बदलाव से गुजर रही है, जिसमें सुधार और स्थायित्व आने में कई दशक लगेंगे।

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