Author : Debosmita Sarkar

Expert Speak Raisina Debates
Published on Feb 10, 2025 Updated 0 Hours ago

इसके ठीक विपरीत, भारत के अति धनवान वर्ग को वैश्विक मानकों की तुलना में कहीं कम प्रत्यक्ष कर या टैक्स लगाया जाता है.

मध्यम वर्ग के लिए 2025 का आम बजट: विकास, समावेशिता और राजकोषीय संतुलन कैसे हासिल हो!

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भारत के आर्थिक विकास में बेहद लंबे समय से घरेलू खपत की महत्वपूर्ण भूमिका रही है. आंकड़े बताते हैं कि हमारे सकल घरेलू उत्पाद (GDP) में इसने लगभग 57 से 60 प्रतिशत लगातार योगदान दिया है. लोगों की आमदनी में वृद्धि, तेज़ शहरीकरण और जनसांख्यिकीय परिवर्तन जैसे विषयों ने घरेलू माँग को ऐतिहासिक रूप से बढ़ावा दिया है. यही कारण है कि आज उपभोग यानी कंज़प्शन, भारत की ग्रोथ स्ट्रैटजी या विकास की रणनीति का एक नितांत आवश्यक अंग बन गया है. हालांकि, बीते कुछ समय में इस विषय में कई दबाव के संकेत मिले हैं. आज निजी स्तर पर अंतिम उपभोग खर्च और वास्तविक जीडीपी वृद्धि दर में असंतुलन बढ़ता ही जा रहा है, जिसकी मूल वजह आय में होने वाली असमानता में बढ़त और मध्यम वर्ग पर ज़रूरत से ज़्यादा टैक्स का बोझ है. इन दबावों को कम करने के लिए केंद्रीय बजट 2025-26 में व्यक्तिगत आयकर में उल्लेखनीय छूट देने का निर्णय लिया गया है. मगर भविष्य में विकास, समावेशिता और वित्तीय अनुशासन को संतुलित रखने को लेकर चिंताएं बढ़ने की संभावना है.

मध्य वर्ग पर टैक्स का बोझ: विकास की राह में बड़ी बाधा

वर्ष 2030 तक भारत में मध्य वर्ग की संख्या 80 करोड़ पहुँचने की संभावना है. यह एक ऐसा वर्ग है, जो देश में वैकल्पिक ख़र्च या डिसक्रीश्नरी स्पेंडिंग को बढ़ावा देने में महत्वपूर्ण भूमिका अदा करता है. मगर जीएसटी हो या फ्यूल ड्यूटी - प्रत्यक्ष और अप्रत्यक्ष करों ने मध्य वर्ग पर लगातार टैक्स का बोझ बढ़ाया है, जिससे उनकी डिस्पोज़ेबल इनकम या खर्च करने वाली राशि प्रभावित हुई है. पिछले कई बजटों में उन्हें राहत देने का प्रयास किया गया है. लेकिन वास्तविक वेतन में स्थिरता और बढ़ती महंगाई के कारण क्रय क्षमता पर दबाव जस का तस है.

वर्ष 2030 तक भारत में मध्य वर्ग की संख्या 80 करोड़ पहुँचने की संभावना है. यह एक ऐसा वर्ग है, जो देश में वैकल्पिक ख़र्च या डिसक्रीश्नरी स्पेंडिंग को बढ़ावा देने में महत्वपूर्ण भूमिका अदा करता है.

इसके ठीक विपरीत, भारत के अति धनवान वर्ग को वैश्विक मानकों की तुलना में कहीं कम प्रत्यक्ष कर या टैक्स लगाया जाता है. कई विकसित अर्थव्यवस्थाओं में प्रोग्रेसिव वेल्थ टैक्स, कैपिटल गेन्स सरचार्ज या इनहेरिटेंस टैक्स जैसी कई व्यवस्थाएं हैं. वहीं, भारतीय टैक्स व्यवस्था मुख्य तौर पर अप्रत्यक्ष करों पर निर्भर है, जो निचले और मध्यम आय वर्ग के परिवारों को असमान रूप से प्रभावित करती है. अमीर वर्ग के लिए योजना के तहत टारगेटेट टैक्सेशन न होने की वजह से फिस्कल कॉनसॉलिडेशन या राजकोषीय समेकन की कोशिशें आमतौर पर उस मध्यम वर्ग के कंधे पर ही टिकी होती है जो MPC यानी मार्जिनल प्रोपेन्सिटी टू कन्ज़्यूम या उपरी लिमिट तक खर्च करने की प्रवृत्ति रखते हैं. ऐसा होने से होता ये है कि संपूर्ण मांग में होने वाली बढ़त पर असर होता है. 

उपरी सीमा तक उपभोग प्रवृत्ति (MPC) की अवधारणा टैक्सेशन (कराधान), आय वितरण और खपत वृद्धि में एक महत्वपूर्ण आर्थिक संबंध स्थापित करती है. आज कम आय वाले परिवारों की MPC सबसे ज़्यादा होती है. इसका अर्थ है कि उनकी अतिरिक्त आमदनी का अधिकांश हिस्सा बुनियादी ज़रूरतों पर ख़र्च होता है. इससे मांग के पहलुओं पर काफी असर पड़ता है. हालांकि, भारत में गरीबी की दहलीज़ पर खड़ी एक बड़ी आबादी है, जो अपनी बुनियादी ज़रूरतों को पूरा करने के लिए काफी हद तक सामाजिक सुरक्षा योजनाओं पर आश्रित रहती है. दूसरी ओर, मध्यम वर्ग की MPC गरीब परिवारों की तुलना में कम होती है. इसके बाद भी वह अपनी आमदनी का एक बड़ा हिस्सा उपभोग पर ख़र्च करता है. विशेष तौर पर रियल एस्टेट, ऑटोमोबाइल, और व्हाइट गुड्स जैसे एसी, वॉशिंग मशीन और फ्रिज वगैरह लेने में. 

वहीं, धनी और अति-धनी परिवारों की MPC सबसे कम होती है. वे अपनी आमदनी का एक बड़ा हिस्सा घरेलू खपत के बजाय बचत, निवेश और विदेशी परिसंपत्तियों में ख़र्च करते हैं. इस बात में कोई शक नहीं है कि अमीरों को निवेश में जो प्रोत्साहन देने की नीति है उससे पूंजी निर्माण को तो बढ़ावा मिलता है, लेकिन इससे कम समय की मांग पर कोई अधिक असर नहीं पड़ता है. वहीं, आज जब कैपेसिटी स्टैगनेशन लगभग 75 प्रतिशत  पर रुका हुआ है तो  ऐसे में अमीर वर्ग के द्वारा नये निवेश पैसा लगाने की उम्मीद काफी कम है.

इस असंतुलन से एक विरोधाभास पैदा होता है. मध्यम वर्ग को टैक्स राहत से मांग में वृद्धि हो सकती है. मगर किसी अन्य तरह के वैकल्पिक राजस्व स्रोत का इस्तेमाल कर इसे संतुलित न कर पाने की वजह से राजकोषीय घाटा बढ़ने का डर हमेशा बना रहेगा. ऐसे में, अमीरों के लिए जब तक प्रोग्रेसिव टैक्सेशन लागू नहीं किया जाता है तब तक भारत में उपभोग पर आधारित विकास की यात्रा इन संरचनात्मक कमियों के कारण हमेशा संवेदनशील और नाज़ुक बनी रहेगी.

केंद्रीय बजट 2025-26: करों में कटौती और फिस्कल ट्रेड-ऑफ 

केन्द्रीय बजट 2025-26 से मध्यम वर्ग को टैक्स में एक बड़ी राहत मिली है. इससे डिस्पोजेबल इनकम और खपत को बढ़ाने में मदद मिलेगी. नई कर व्यवस्था में सबसे बड़ा बदलाव यह है कि आयकर की सीमा को 7 लाख रुपये से बढ़ाकर 12 लाख रुपये कर दिया गया है. यहां वेतनभोगी करदाताओं को 75,000 रुपये स्टैंडर्ड डिडक्शन का लाभ मिलेगा. इसका अर्थ यह है कि 12.75 लाख रुपये आय तक कोई टैक्स नहीं देना होगा. वहीं, नये टैक्स स्लैब के अनुसार, 18 लाख रुपये और 25 लाख रुपये की आय पर क्रमशः 70,000 रुपये और 1.1 लाख रुपये टैक्स देना होगा.

कहने की ज़रूरत नहीं है कि टैक्स में इन रियायतों से घरेलू उपभोग खर्च को काफी बढ़ावा मिलेगा. लेकिन, एक महत्वपूर्ण मुद्दा अभी भी बना हुआ है कि उच्च आय वर्ग के लिए टैक्स में कोई बढ़ोत्तरी नहीं की गई. वैसे लोग जिनकी सालाना कमाई 24 लाख रुपये से अधिक है, उनके लिए पिछले वर्षों की तरह 30 प्रतिशत टैक्स लागू है. उनके लिए न तो कोई वेल्थ टैक्स, न इनहेरिटेंस टैक्स और न ही कैपिटल गेन्स टैक्स की व्यवस्था की गई है. इससे सरकार को 1 लाख करोड़ रुपये प्रत्यक्ष कर राजस्व का नुकसान होगा. वहीं, अप्रत्यक्ष कर सुधारों से 2,600 करोड़ रुपये का अतिरिक्त घाटा होगा. इसका नतीजा ये होगा कि राजकोषीय दबाव और अधिक बढ़ सकता है.

इस बजट में यह अनुमान लगाया गया है कि मध्यम वर्ग की डिस्पोजेबल इनकम बढ़ने से उपभोग या स्पेंडिंग में वृद्धि होगी और इससे हाउसिंग, कंज्यूमर गुड्स और ऑटोमोबाइल जैसे क्षेत्रों को समर्थन मिलेगा. हालांकि, यह अनुमान इस बात पर आधारित है कि अतिरिक्त आय का एक बड़ा हिस्सा बचत के बजाय ख़र्च किया जाएगा. मगर वर्तमान आर्थिक परिस्थितियों को ध्यान में रखते हुए ये काफी हद तक अनिश्चित है. 

इस बजट में यह अनुमान लगाया गया है कि मध्यम वर्ग की डिस्पोजेबल इनकम बढ़ने से उपभोग या स्पेंडिंग में वृद्धि होगी और इससे हाउसिंग, कंज्यूमर गुड्स और ऑटोमोबाइल जैसे क्षेत्रों को समर्थन मिलेगा.

इसके अलावा, वित्तीय वर्ष 2025-26 के दौरान राजकोषीय घाटे को जीडीपी के 4.4 प्रतिशत रहने का अनुमान है, जो वित्तीय वर्ष 2024-25 के संशोधित अनुमानों की तुलना में 40 बेसिस प्वाइंट कम है. ऐसे में, इस लक्ष्य को हासिल करने के लिए कठोर राजकोषीय अनुशासन बेहद ज़रूरी है. मगर टैक्स बेस के सिकुड़ने से राजस्व में कमी की संभावना है, जिससे सरकार अधिक उधारी का बोझ बढ़ सकता है और उसे अपने खर्चों में कटौती करनी पड़ सकती है. जिसका नतीजा ये होगा कि सामाजिक क्षेत्रों में लंबी अवधि के लिये किये जाने वाले निवेश पर नकेल डल सकती है.

क्या सामाजिक कल्याण के प्रयासों में कमी आएगी?

इस बजट में सामाजिक सुरक्षा और विकास कार्यों के लिए ख़र्च में वृद्धि हुई है. मगर रेवेन्यू ऑफसेट की कमी के कारण लंबी अवधि वाली वित्तीय स्थिरता को लेकर चिंताएं सामने आ  रही हैं. इससे कई महत्वाकांक्षी जन-कल्याणकारी और इंफ्रास्ट्रक्चर परियोजनाओं पर दबाव पड़ सकता है. 

बजट में सरकार द्वारा अनौपचारिक क्षेत्र में रोज़गार सृजन कार्यक्रमों का विस्तार किया गया है, जिसमें स्ट्रीट वेंडर्स के लिए कर्ज़ की सीमा बढ़ाने के लिये पीएम स्वनिधि योजना में संशोधन किया गया है. इसके अलावा, गिग वर्कर्स (अंगठित कामगारों) के लिए ई-श्रम पोर्टल पर पंजीकरण और स्वास्थ्य सेवाएं प्रदान करने का भी उपाय शामिल किया गया है, जिससे लगभग 1 करोड़ अंगठित क्षेत्र के कामगारों को फायदा होगा. हालांकि, घटते टैक्स रेवेन्यू से इन योजनाओं को बनाए रखना चुनौतीपूर्ण साबित हो सकता है. संभव है कि आने वाले समय में इन योजना के दायरे में कटौती हो, जिससे असर ये होगा कि सामाजिक कल्याण के क्षेत्र में जो लक्ष्य तय किये गये हैं उनको हासिल करने में कठिनाई हो सकती है. 

बजट में एक महत्वपूर्ण घोषणा ज़िला अस्पतालों में 200 डे-केयर कैंसर सेंटर स्थापित करने और 10,000 मेडिकल सीटों को भी जोड़ने का है, जो आने वाले पांच वर्षों में 75,000 मेडिकल सीटों के लक्ष्य का हिस्सा है. वैसे तो, ये पहल मानव संसाधन विकास के लिए अति आवश्यक हैं, लेकिन ठीक तरीके से लागू करने के लिये स्थिर वित्तीय संसाधन भी ज़रूरी हैं. अगर राजस्व की कमी होती है, तो स्वास्थ्य और शिक्षा पर होने वाले खर्च में देरी या कटौती का संकट भी बढ़ सकता है.

वहीं, बजट में राज्यों को पूंजीगत खर्च के लिए 1.5 लाख करोड़ का ब्याज़-मुक्त कर्ज़ और शहरी नवीकरण परियोजनाओं के लिए 1 लाख करोड़ रुपये के साथ 'अर्बन चैलेंज फंड' देने  की घोषणा की गई है. इसके तहत जल आपूर्ति और सफाई कार्यों पर भी विशेष ध्यान दिया जाएगा. निश्चित रूप से, ये सभी पहल लंबे लमय की आर्थिक प्रतिस्पर्धा के लिए बेहद ज़रूरी हैं. मगर इनकी निरंतरता को बनाए रखने के लिए स्थिर राजस्व का होना भी उतना ही आवश्यक है. आज जब सरकार द्वारा 1.026 लाख करोड़ रुपये के कर राजस्व को छोड़ा जा रहा है, तो इस तरह के पहल के वित्त पोषण में बाधा आ सकती है. ख़ासकर तब, जब टैक्स बेस का विस्तार सीमित हो और टैक्स कराधन में उतार-चढ़ाव का अनुमान केवल 1.1 रखा गया हो.

आज जब सरकार द्वारा 1.026 लाख करोड़ रुपये के कर राजस्व को छोड़ा जा रहा है, तो इस तरह के पहल के वित्त पोषण में बाधा आ सकती है. ख़ासकर तब, जब टैक्स बेस का विस्तार सीमित हो और टैक्स कराधन में उतार-चढ़ाव का अनुमान केवल 1.1 रखा गया हो.

ऐसी स्थिति में यदि सरकार राजस्व के नये स्रोत की तलाश नहीं की जाती है, तो भारत को फिस्कल कॉनसॉलिडेशन या राजकोषीय समेकन और सामाजिक हिस्सेदारी के बीच पॉलिसी ट्रेड-ऑफ के बेहद कठिन परिस्थितियों का सामना करना पड़ सकता है.

राजकोषीय अदूरदर्शिता के बिना प्रोग्रेसिव टैक्सेशन और विकास 

मध्यम वर्ग को टैक्स में राहत देना एक बेहद ही सकारात्मक कदम है. मगर अति-धनी वर्ग पर टारगेटेड टैक्सेशन लागू नहीं करने से इस रणनीति की स्थिरता पर संशय पैदा होता है. यहां आर्थिक समानता के साथ, राजकोषीय ज़रूरतों को संतुलित करने के लिए कुछ नीतिगत विकल्प हैं:

उच्च आय वर्ग पर सरचार्ज: आज कई विकसित अर्थव्यवस्थाओं में एक तय सीमा से अधिक वार्षिक आय अर्जित करने पर अतिरिक्त कर लगाया जाता है. इस व्यवस्था से भारत में भी मध्यम वर्ग को नुकसान पहुंचाए बिना राजस्व घाटे की भरपाई की जा सकती है.

कैपिटल गेन्स और इनहेरिटेंस टैक्स: एक प्रोग्रेसिव टैक्स सिस्टम में कैपिटल गेन्स और इनहेरिटेंस टैक्स के उपाय होने चाहिए, ताकि उच्च आय वाले लोगों का समुचित योगदान सुनिश्चित हो.

कर संबंधी खामियों से निपटारा और कंप्लायंस को मज़बूती: टैक्स इंफोर्समेंट में सुधार, टैक्स चोरी में कमी और कॉरपोरेट टैक्स छूट को तर्कसंगत बनाने से राजकोषीय घाटे में वृद्धि के बिना राजस्व संग्रह को बढ़ावा मिल सकता है. 

निश्चित रूप से, केन्द्रीय बजट 2025-26 में मध्यम वर्ग को राहत पहुँचाने के लिए बड़े कदम उठाए गए हैं, लेकिन इसकी नींव एक कमज़ोर टैक्स बेस पर टिकी है. उच्च आय वर्ग पर कॉमपेन्सेटरी टैक्सेशन का न होना, राजकोषीय दबाव में वृद्धि करता है, जिससे अंततः महत्वपूर्ण सामाजिक और बुनियादी ढांचा निवेश को लेकर चिंताएं पैदा होती हैं. इसमें कोई दो राय नहीं है कि उपभोग या स्पेंडिंग में थोड़े समय की वृद्धि से अर्थव्यवस्था को अल्पकालिक गति ही मिल सकती है. मगर दीर्घकालिक विकास और वित्तीय स्थिरता के लिए एक न्यायसंगत कर व्यवस्था का होना बेहद ज़रूरी है. यदि अति-धनी वर्ग पर टारगेटेड टैक्सेशन लागू किया जाए, तो भारत में समावेशी, सतत् और दायित्वपूर्ण आर्थिक विकास के लक्ष्य को हासिल किया जा सकता है.

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Debosmita Sarkar

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Debosmita Sarkar is an Associate Fellow with the SDGs and Inclusive Growth programme at the Centre for New Economic Diplomacy at Observer Research Foundation, India. Her ...

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