2024 में भारत के 1974 में किए गए पोखरण-1 परमाणु परीक्षण के 50 साल पूरे हो गए हैं. ये एटमी परीक्षण भारत के इतिहास में एक निर्याणक मोड़ लाने वाले थे, जिन्होंने भारत की एटमी यात्रा की शुरुआत का संकेत दिया था. विश्व की परमाणु अप्रसार व्यवस्था के विरोध के बावजूद, भारत अपने ’शांतिपूर्ण परमाणु विस्फोट’ (PNE) के ज़रिए, दुनिया के उन गिने चुने देशों की सूची में शामिल हो गया था, जिनके पास परमाण्विक क्षमता थी. पोखरण-1 परमाणु परीक्षणों की वजह से भारत को तकनीक से महरूम रखने की व्यवस्थाएं लागू की गईं, जिनके कारण देश को तकनीकी चुनौतियों, प्रतिबंधों और अपने दम पर परमाणु हथियार हासिल करने की भारी क़ीमत चुकानी पड़ी. उस परीक्षण के पचास साल बाद आज, भारत के उस अभूतपूर्व क़दम और बाद के वर्षों में उसकी परमाणु नीति में आए बदलाव, हमें उन भू-राजनीतिक तनावों, तकनीकी महत्वाकांक्षाओं और नैतिक दुविधाओं की झलक दिखलाते हैं, जिन्होंने 20 सदी के उत्तरार्ध में भारत के परमाण्विक सफ़र को परिभाषित किया है.
परीक्षण के पचास साल बाद आज, भारत के उस अभूतपूर्व क़दम और बाद के वर्षों में उसकी परमाणु नीति में आए बदलाव, हमें उन भू-राजनीतिक तनावों, तकनीकी महत्वाकांक्षाओं और नैतिक दुविधाओं की झलक दिखलाते हैं
भारत का परमाणु परीक्षण
जब 1960 के दशक में परमाणु अप्रसार संधि (NPT) आकार ले रही थी, तब भारत ने बुनियादी तौर पर इस व्यवस्था का ये कहते हुए विरोध किया था कि ये भेदभावपूर्ण है और ये हमसे अपने परमाणु विकल्पों का इस्तेमाल करने का अधिकार छीन लेगी. वैसे तो भारत ने शुरुआत में परमाणु अप्रसार की कई कोशिशों जैसे कि आंशिक परीक्षण प्रतिबंध संधि (PTBT) और व्यापक परमाणु परीक्षण प्रतिबंध संधि (CTBT) का समर्थन किया था. पर, 1960 के दशक में भारत का मानना था कि NPT पर हस्ताक्षर करने से दुनिया में हमेशा के लिए एक ऐसी भेदभावपूर्ण व्यवस्था स्थापित हो जाएगी, जिसमें कुछ देशों के पास परमाणु हथियार होंगे और बाक़ी देश ऐसे होंगे, जो एटमी ताक़त से महरूम होंगे. परमाणु हथियारों को लेकर भारत के भीतर भी इसे लेकर विरोधाभासी विचार पैदा हो रहे थे. भारत के परमाणु परीक्षण में अहम भूमिका निभाने वाले होमी जहांगीर भाभा जैसे वैज्ञानिकों का तर्क था कि भारत को अपने लिए शांतिपूर्ण परमाणु विस्फोटक (PNEs) के विकास का विकल्प खुला रखना चाहिए, ताकि उत्खनन और ज़मीन की खुदाई जैसे असैन्य कार्यों के लिए एटमी शक्ति का उपयोग किया जा सके. हालांकि, PNE पर काम करने की आड़ में बहुत आसानी से परमाणु हथियारों की क्षमताएं विकसित की जा सकती थीं.
यहां तक कि सियासी नेतृत्व के बीच भी इस बात को लेकर मतभेद थे कि भारत को एटमी ताक़त के मामले में किस रास्ते पर आगे बढ़ना चाहिए. सुरक्षा संबंधी चिंताओं में बढ़ोत्तरी के बावजूद प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू, एटमी ताक़त वाले हथियारों के विकास को लेकर दुविधा में थे. ख़ास तौर से चीन के साथ युद्ध और 1964 में लोप नुर में चीन द्वारा परमाणु परीक्षण के बावजूद. नेहरू के बाद प्रधानमंत्री बने लाल बहादुर शास्त्री ने भी चीन के परीक्षण के बाद, भारत के एटमी परीक्षण करने के घरेलू दबाव का विरोध किया. इसके बजाय 1964 में जब वो ब्रिटेन के दौरे पर गए, तो शास्त्री ने एटमी ताक़तों से सुरक्षा संबंधी गारंटी हासिल करने की कोशिश की. हालांकि, 1966 में जब इंदिरा गांधी ने प्रधानमंत्री का पद संभाला, तो उन्होंने इस मामले में अलग रास्ता अख़्तियार किया. अपने पूर्ववर्तियों के उलट इंदिरा गांधी ने भेदभावपूर्ण परमाणु अप्रसार संधि को लेकर एक कड़ा और व्यावहारिक राजनीतिक रुख़ अपनाया. उन्होंने अगले कुछ वर्षों के दौरान भारत के परमाणु प्रतिष्ठानों को कार्यकारी एटमी विस्फोट की क्षमता विकसित करने की हरी झंडी दे दी, ताकि ज़रूरत पड़ने पर शांतिपूर्ण विस्फोट का विकल्प इस्तेमाल किया जा सके.
1960 के दशक में भारत के परमाणु वैज्ञानिकों की पुरज़ोर कोशिशों के बावजूद देश आख़िरकार एक बड़े लम्हे के लिए तैयार हो गया. 18 मई 1974 को कोड नेम ‘स्माइलिंग बुद्धा’ के नाम से सुदूर राजस्थान में ज़मीन के भीतर पोखरण-1 परमाणु धमाका किया गया.
1960 के दशक में भारत के परमाणु वैज्ञानिकों की पुरज़ोर कोशिशों के बावजूद देश आख़िरकार एक बड़े लम्हे के लिए तैयार हो गया. 18 मई 1974 को कोड नेम ‘स्माइलिंग बुद्धा’ के नाम से सुदूर राजस्थान में ज़मीन के भीतर पोखरण-1 परमाणु धमाका किया गया. वैसे तो आधिकारिक रूप से इसे ‘शांतिपूर्ण परमाणु विस्फोट’ (PNE) कहा गया था. पर, वास्तविकता ये थी कि पोखरण-1 के ज़रिए भारत ने अपनी परमाणु हथियार बनाने की तकनीक का प्रदर्शन किया था, जिसके ज़रिए वो एटमी हथियारों वाले देशों के विशेष क्लब में दाख़िल हो गया था. ज़मीन के भीतर सफल परमाणु विस्फोट से पूरे देश में गर्व की लहर दौड़ गई थी. लेकिन, पूरी दुनिया ने इसकी निंदा करते हुए उपमहाद्वीप में परमाणु हथियारों की होड़ शुरू होने की आशंका भी जताई थी.
परमाणु शक्ति संपन्न देश के तौर पर सम्मान अर्जित करने के बजाय भारत को इस परीक्षण की भारी क़ीमत चुकानी पड़ी थी. 1975 की शुरुआत में अमेरिका ने दुनिया के परमाणु संसाधनों के बड़े आपूर्तिकर्ताओं को एकजुट करके न्यूक्लियर सप्लायर्स ग्रुप (NSG) की स्थापना की. ये निर्यात नियंत्रण की ऐसी व्यवस्था थी, जिसके ज़रिए परमाणु संसाधन और तकनीक को NPT के बाहर के देशों को निर्यात करने पर शर्तें लगाती थी. NSG ने एटमी तत्वों के निर्यात और सुरक्षा के बेहद सख़्त उपाय लागू किए, जिससे भारत के परमाणु कार्यक्रम को तकनीक देने पर प्रभावी रूप से पाबंदी लग गई. भारत के हाथ से अमेरिका, कनाडा और अन्य देशों से परमाणु ईंधन और कल-पुर्ज़े हासिल करने का विकल्प निकल गया. अमेरिका के भीतर भी पोखरण-1 विस्फोट के बाद 1978 में जिम्मी कार्टर प्रशासन ने ऐतिहासिक परमाणु अप्रसार क़ानून (NNPA) पारित कराया. NNPT ने एटमी संवर्धन या फिर रिप्रोसेसिंग संबंधी गतिविधियां चलाने वाले किसी भी देश पर व्यापक प्रतिबंध लगा दिए. ये परमाणु हथियार विकसित करने की प्रमुख लक्ष्मण रेखा थे, जिन्हें भारत ने पार कर लिया था.
अमेरिका और कई अन्य देशों द्वारा उठाए गए क़दमों से भारत पर सख़्त प्रतिबंध लग गए, जिससे आने वाले कई दशकों तक भारत परमाणु अप्रसार की वैश्विक व्यवस्था से बाहर ही रहा. 1974 के परीक्षण ने भारत की एटमी क्षमताओं को दुनिया को दिखा दिया था. लेकिन, इनकी वजह से स्थापित परमाणु शक्तियों द्वारा भारत को तकनीक देने पर कड़े प्रतिबंध भी लगाए थे. भारत को अपने शांतिपूर्ण परमाणु परीक्षण की भारी आर्थिक और राजनीतिक क़ीमत चुकानी पड़ी थी और वो दुनिया में लंबे समय तक अलग थलग पड़ा रहा. ये अलगाव 1998 में जाकर ख़त्म हुआ, जब भारत ने फिर से एटमी धमाके किए.
भारत को अपने शांतिपूर्ण परमाणु परीक्षण की भारी आर्थिक और राजनीतिक क़ीमत चुकानी पड़ी थी और वो दुनिया में लंबे समय तक अलग थलग पड़ा रहा.
1980 के दशक में भारत ने एक बार फिर परमाणु परीक्षण करने के विकल्प पर विचार किया था, ख़ास तौर से 1980 में इंदिरा गांधी की सत्ता में वापसी के बाद. 1981 में प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने शुरुआत में अतिरिक्त परमाणु परीक्षण करने की मंज़ूरी दे दी थी. हालांकि, 24 घंटों के भीतर ही उन्होंने अपना फ़ैसला पलट दिया था. अगर भारत परमाणु परीक्षणों का सिलसिला फिर से शुरू करता, तो उसके ऊपर आर्थिक प्रतिबंध लगने का ख़तरा था, ख़ास तौर से उस वक़्त जब भारत बाहरी मदद पर बहुत अधिक निर्भर था. ये 1974 के शांतिपूर्ण परीक्षण की सबसे अहम विरासतों में से एक था. प्रतिबंध लगाने की धमकियों और सहायता रोक लेने की आशंकाओं ने भारत को और परमाणु परीक्षण करने से रोके रखा. इसके अलावा, भारत को डर था कि NSG और NNPA के तहत निर्यात नियंत्रण के क़दम उठाकर उसे नई नई तकनीकों से महरूम रखा जाएगा.
इंदिरा के बाद प्रधानमंत्री बने राजीव गांधी कभी भी परमाणु हथियारों को लेकर उत्साहित नहीं रहे; हालांकि, अपने कार्यकाल में उन्होंने परमाणु हथियारों में संशोधन करने और उनकी डिज़ाइन में सुधार करने के साथ साथ प्रयोगशाला में तेज़ गति से तकनीकी सुधार लाने को मंज़ूरी दे दी थी. 1980 के दशक में पाकिस्तान के परमाणु हथियारों के कार्यक्रम की वजह से दोबारा परमाणु परीक्षण करवने का दबाव बढ़ गया था. विडम्बना देखिए कि ये भी 1974 के शांतिपूर्ण परीक्षण का ही एक नतीजा था. इसकी वजह से पाकिस्तान पर इतना गहरा असर पड़ा था कि उसने भारत से पहले परमाणु हथियार बनाने की क्षमता हासिल कर ली थी. जबकि भारत ने एटमी परीक्षण करके ख़ुद को मुश्किलों में फंसा लिया था. इसमें वो लंबी और तक़लीफ़देह परिचर्चा भी शामिल थी कि भारत एटमी परीक्षण करे या न करे, और क्या वो परमाणु हथियार बनाने की क्षमता हासिल करे या न करे. एटमी परीक्षण करने को लेकर बहस 1990 के दशक में उस वक़्त भी जारी रही, जब परमाणु अप्रसार काफ़ी अहम हो गया और ये अंतरराष्ट्रीय समुदाय का एक प्रमुख एजेंडा बन गया. फिर भी मार्च 1989 तक परमाणु बम के विरोधी रहे राजीव गांधी भी चीन की मदद से ये फ़ैसला किया कि उन्होंने पाकिस्तान के एटमी कार्यक्रम की क्षमता और इससे भारत को ख़तरे के बारे में काफ़ी जानकारी हासिल कर ली है. इसी वजह से मजबूर होकर राजीव गांधी ने बिना और परमाणु परीक्षण किए, देश के वैज्ञानिकों को एटमी हथियार विकसित करने के लिए हरी झंडी दे दी थी.
1990 के दशक में भारत अपनी परमाणु क्षमताओं के साथ साथ उन्हें लॉन्च करने के लिए ज़रूरी मिसाइल दाग़ने की क्षमताओं को विकसित करता रहा. लेकिन, परमाणु परीक्षण के मामले में अभी भी भारत संयम से काम ले रहा था. इसके बावजूद, शीत युद्ध के ख़ात्मे और सोवियत संघ (SU) के विघटन के बाद, दुनिया में ‘एटमी हथियारों को सीमित रखने, परमाणु कार्यक्रम रोक देने और ख़त्म करने’ जैसी परमाणु अप्रसार की गतिविधियों ने दुनिया में काफ़ी ज़ोर पकड़ लिया, 1995 आते आते परमाणु अप्रसार संधि (NPT) को अनिश्चित काल के लिए आगे बढ़ा दिया गया था, जिससे भारत को ये यक़ीन हो गया कि दुनिया के पांच परमाणु शक्ति संपन्न देश अपने एटमी हथियारों का ज़ख़ीरा तो बनाए रखेंगे, और वो भारत को अपने दम पर परमाणु बम हासिल करने से रोकेंगे. भारत एक बार फिर परमाणु परीक्षण करने के बेहद क़रीब पहुंच गया था. लेकिन, अमेरिका की ख़ुफ़िया एजेंसियों ने तत्कालीन प्रधानमंत्री नरसिम्हा राव के दौर में परमाणु परीक्षण की तैयारियां होने का पता लगा लिया था. पहले की सरकारों की तरह नरसिम्हा राव की सरकार भी परमाणु परीक्षणों के बाद लगने वाले प्रतिबंधों के नतीजों को लेकर आशंकित थी, विशेष रूप से तब और जब भारत भयंकर आर्थिक संकट से उबर ही रहा था. 1996 में भारत के साथ व्यापक परमाणु अप्रसार संधि (CTBT) पर वार्ता हुई. इसकी वजह से भारत पर नए परमाणु परीक्षण करने का दबाव और बढ़ गया. विडम्बना ये है कि 1974 के शांतिपूर्ण परीक्षण के बाद से परमाणु अप्रसार की जो व्यवस्था भारत को परमाणु परीक्षण करने से रोकने के लिए खड़ी की गई थी, उसी ने मई 1998 में भारत को पांच परमाणु विस्फोट करने का रास्ता भी दिया.
1998 में अटल बिहारी वाजपेयी के नेतृत्व में भारतीय जनता पार्टी की अगुवाई वाली सरकार द्वारा परमाणु परीक्षण करने के बाद भारत ने एटमी टेस्ट करने पर ख़ुद से रोक लगाने का ऐलान किया.
1998 में अटल बिहारी वाजपेयी के नेतृत्व में भारतीय जनता पार्टी की अगुवाई वाली सरकार द्वारा परमाणु परीक्षण करने के बाद भारत ने एटमी टेस्ट करने पर ख़ुद से रोक लगाने का ऐलान किया. पोखरण-II के बाद भारत ने क्लिंटन प्रशासन के साथ परमाणु संवाद शुरू किया; और क्लिंटन के बाद राष्ट्रपति बने जॉर्ज डब्ल्यू बुश का प्रशासन भारत के साथ ऐसा समझौता करने के लिए तैयार था, जिससे भारत को अपना परमाणु कार्यक्रम त्यागे बग़ैर ही एटमी संसाधनों के कारोबार का मौक़ा मिलता. हालांकि, भारत को अपने असैन्य परमाणु केंद्रों के एक हिस्से को अंतरराष्ट्रीय परमाणु ऊर्जा एजेंसी (IAEA) की पूरी निगरानी में सौंपना था. इसका समापन 18 जुलाई 2005 को भारत की मनमोहन सिंह सरकार और जॉर्ज बुश प्रशासन के बीच 123 के समझौते के तौर पर हुआ. तीन साल बाद, भारत को उस NSG से भी रियायत मिल गई, जिसकी स्थापना ही भारत जैसे देशों को परमाणु हथियारों की क्षमता हासिल करने से रोकने और दंडित करने के लिए की गई थी. आज भारत ख़ुद को न्यूक्लियर सप्लायर्स ग्रुप (NSG) का सदस्य बनाने के लिए दबाव बना रहा है. 1974 के शांतिपूर्ण एटमी परीक्षण ने न केवल वैश्विक परमाण्विक व्यवस्था को चुनौती दी, बल्कि इन परीक्षणों के बाद अंतरराष्ट्रीय समुदाय ने भारत के साथ एक अछूत और संशोधनवादी देश वाला बर्ताव भी किया था. लेकिन, इसके कुछ दशकों बाद इन्हीं परमाणु परीक्षणों की वजह से दुनिया ने भारत को एक वास्तविक एटमी शक्ति संपन्न देश बी माना, जो एटमी कारोबार के सारे लाभों का उपयोग कर सकता था.
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