चारों ओर थल-क्षेत्र से घिरे हिमालय की गोद में बसे छोटे से देश नेपाल और अमेरिका के बीच द्विपक्षीय राजनियक संबंधों की शुरुआत 1947 में हुई थी. बाद के बरसों में भी दोनों देशों के बीच के रिश्ते लगातार मधुर बने रहे हैं. 1951 में पहले द्विपक्षीय दान-समझौते के बाद से नेपाल को विकास कार्यों के लिए 1.6 अरब अमेरिकी डॉलर से भी ज़्यादा की मदद दी जा चुकी है. शिक्षा, दरिद्रता-उन्मूलन, और मानव संसाधन के ज़रिए हालात को पलटना इस आर्थिक मदद के मुख्य उद्देश्य रहे हैं. हाल के वर्षों में भूकंप के बाद के पुनर्निर्माण और नेपाल में समावेशी लोकतंत्र के संरक्षण के लिए भी इस मदद का इस्तेमाल होने लगा है. इस क्रम में अमेरिका की अंतरराष्ट्रीय विकास एजेंसी (यूएसएआईडी) का खासतौर से उल्लेख किया जाना ज़रूरी है. यह संस्था सुरक्षा-तंत्र को मज़बूत करने और आर्थिक समृद्धि के लक्ष्य हासिल करने के लिए नेपाल को लगातार मदद पहुंचाती रही है.
भूराजनीति की दृष्टि से दुनिया के नक्शे में नेपाल बेहद अहम स्थान रखता है. अमेरिका इसे भलीभांति समझता है. नेपाल दक्षिण एशिया में भारत और चीन के बीच एक महत्वपूर्ण ‘मध्यवर्ती राष्ट्र’ है. अमेरिका यह भी जानता है कि इस क्षेत्र में अपना रसूख बनाए रखने के लिए चारों ओर से थल-क्षेत्र से घिरे ऐसे देशों का अपना महत्व है. ये देश इन इलाकों में खेल बनाने या बिगाड़ने की क्षमता रखते हैं.
भूराजनीति की दृष्टि से दुनिया के नक्शे में नेपाल बेहद अहम स्थान रखता है. अमेरिका इसे भलीभांति समझता है. नेपाल दक्षिण एशिया में भारत और चीन के बीच एक महत्वपूर्ण ‘मध्यवर्ती राष्ट्र’ है.
पिछले कुछ वर्षों की बात करें तो चाहे वो 2015 में भारत और नेपाल के बीच के नाकेबंदी जैसे हालात हों या 2019 में राजनीतिक मानचित्र पर फंसे पेच का मामला हो, इन सबने चाहे-अनचाहे नेपाल को चीन के करीब लाने का काम किया. निश्चित तौर पर ये बात भारत और अमेरिका के लिए चिंताजनक हैं. निवर्तमान राष्ट्रपति ट्रंप के चार वर्षों के कार्यकाल में नेपाल के प्रति अमेरिका की कोई विशेष रणनीति देखने को नहीं मिली, हां कई बार कई तरह के बखेड़े ज़रूर खड़े हुए जिनके जल्द समाधान की ज़रूरत रही.
नेपाल इस वक्त चीन के साथ फायदे वाली स्थिति में है. भारत भी उससे अच्छे रिश्तों के लिए लगातार प्रयासरत है. ऐसे में नेपाल में अब इस बात का इंतज़ार हो रहा है कि उसके साथ द्विपक्षीय रिश्तों को लेकर अमेरिका का रुख क्या रहता है. खासतौर से भारत-प्रशांत क्षेत्र में वॉशिंगटन की रणनीति के संदर्भ में नेपाल के प्रति अमेरिका की नीति क्या रहती है इसको लेकर नेपाल में उत्सुकता बनी हुई है. बेशक इन हालातों में नेपाल को जो कुछ हासिल होने वाला है वो उनका लाभ उठाएगा. यही सही मौका है जब नेपाल को ये समझना पड़ेगा कि मौजूदा हालात उसके लिए वैश्विक राजनीति में एक अहम मुकाम हासिल करने के लिए माकूल हैं. लिहाजा उसे समय रहते इस ओर कदम बढ़ाने चाहिए. उसने अगर ये ‘मौका गंवा दिया’ तो बाद में उसके पास पछताने के अलावा कोई दूसरा रास्ता नहीं होगा.
देश की मजबूरियां
हाल में संपन्न अमेरिकी राष्ट्रपति चुनाव पर बाकी दुनिया की तरह नेपाल की भी बारीक नज़र थी. नेपाली राष्ट्रपति विद्या देवी भंडारी और प्रधानमंत्री के.पी.शर्मा ओली दुनिया के उन नेताओं में शामिल रहे जिन्होंने अमेरिका के नवनिर्वाचित राष्ट्रपति को सबसे पहले मुबारकबाद दी थी. संभव है इसके पीछे अमेरिका के साथ द्विपक्षीय रिश्तों में हाल में खड़े विवादों से पार पाने और एक नई शुरुआत करने की उनकी इच्छी काम कर रही हो.
अमेरिका के साथ करीबी रिश्तों की नेपाल की ये चाहत स्वाभाविक है. अतीत में अमेरिकी विदेश नीति में नेपाल के लिए कोई खास जगह नही रही है. हालांकि विदेश नीति के मोर्चे पर मुद्दों की कोई कमी नहीं हैं. इनमें मिलेनियम चैलेंज कॉरपोरेशन (एमसीसी) समझौता, भारत-प्रशांत क्षेत्र में नेपाल की हिस्सेदारी और नेपाल और चीन के बीच के संबंध शामिल हैं. विदेश नीति के मोर्चे पर दोनों देशों के रिश्तों को एक नई दिशा देने का ये सबसे उचित समय है. रिश्तों की ये गर्माहट न सिर्फ़ अमेरिका और नेपाल के लिए लाभकरी होंगे बल्कि इससे समूचे दक्षिण एशिया का फायदा होगा. हाल के वर्षों में दक्षिण एशियाई क्षेत्र दुनिया के सबसे तेज़ी से उभरते क्षेत्र के रूप में सामने आया है.
चीन के साथ नेपाल की करीबी को देखते हुए बाइडेन प्रशासन के लिए सबसे पहली ज़रूरत ये है कि वो नेपाल के साथ संबंधों पर एक समग्र कार्योन्मुख रूपरेखा बनाए जो चीन के बेल्ट एंड रोड इनिशिएटिव (बीआरआई) के समान रचनात्मक हो. अपने आधिकारिक नीति-दस्तावेज़ों में चीन को ‘खंडनकारी शक्ति’ के रूप में पेश करने की बजाए अमेरिका को ये समझना होगा कि भारत-प्रशांत क्षेत्र में चीन के खिलाफ़ नेपाल को बफर के रूप में इस्तेमाल करना कतई आसान नहीं होगा.
चीन के साथ नेपाल की करीबी को देखते हुए बाइडेन प्रशासन के लिए सबसे पहली ज़रूरत ये है कि वो नेपाल के साथ संबंधों पर एक समग्र कार्योन्मुख रूपरेखा बनाए जो चीन के बेल्ट एंड रोड इनिशिएटिव (बीआरआई) के समान रचनात्मक हो.
वॉशिंगटन को ये नहीं भूलना चाहिए कि भारत-प्रशांत क्षेत्र से जुड़े उसके सामरिक नीति-दस्तावेज़ में अपना नाम आने पर नेपाल ने खुले तौर पर असंतोष जताया था. तब नेपाल ने अपनी नीति साफ करते हुए खुद को निर्गुट बताया था. ये मसला नेपाल के लिए काफी संवेदनशील और विवादित रहा है. ज़ाहिर तौर पर नेपाल विश्व मंच पर किसी भी सैनिक गठजोड़ का हिस्सा नहीं बनना चाहता है.
एमसीसी समझौते को लेकर भी नेपाल का यही रुख़ रहा है. नेपाल इस समझौते को अपनी संसद की मंज़ूरी देने को लेकर हमेशा से ही संशय में रहा है क्योंकि यह समझौता अमेरिका की भारत-प्रशांत नीति से सीधा जुड़ा हुआ है. एमसीसी को कथित तौर पर अमेरिका की भारत-प्रशांत सामरिक रिपोर्ट के हिस्से के तौर पर ही आगे बढ़ाया जा रहा है. अमेरिकी विदेश विभाग में सहायक सचिव डेविड जे रांज़ ने भी इस बात का उल्लेख किया है.
हालांकि, आर्थिक गठजोड़ का मतलब सैनिक गठबंधन कतई नहीं होता लेकिन फिर भी इसे लेकर संशय का वातावरण बरकरार है. अगर नेपाल भारत-प्रशांत क्षेत्र में अमेरिका की अगुवाई वाले सामरिक संपर्कों के हिसाब से सक्रिय रूप से अपनी भागीदारी दिखाना शुरू करता है तो इससे नेपाल की महत्वाकांक्षाओं को लेकर भारत और चीन दोनों को गलत संदेश जाएगा. साफ है नेपाल के लिए ऐसे हालात बिल्कुल ठीक नहीं होंगे.
इतना ही नहीं अमेरिकी समझौते में ये बात भी है कि किसी तरह के विवाद की स्थिति में नेपाल के मौजूदा कानूनों पर समझौते की शर्तें भारी पड़ेंगी. ऐसे में इस समझौते से मिलने वाली मददों के बावजूद इसको लेकर नेपाल में नकारात्मक माहौल है. वैसे इन सबके बावजूद सच्चाई ये है कि प्रधानमंत्री के.पी.शर्मा ओली इस समझौते को लेकर काफी उत्साहित हैं. वो चाहते हैं कि न सिर्फ इसपर दस्तखत हों बल्कि इसे नेपाली संसद की मंज़ूरी भी मिल जाए. ऐसे में लगता यही है कि देर-सवेर नेपाल एमसीसी का हिस्सा बन ही जाएगा. यहां तक कि विदेश मंत्री प्रदीप कुमार ग्यावली भारत-प्रशांत क्षेत्र को लेकर अपने अधिकारियों द्वारा ज़ाहिर की गई शंकाओं को भी खारिज कर चुके हैं.
अमेरिकी समझौते में ये बात भी है कि किसी तरह के विवाद की स्थिति में नेपाल के मौजूदा कानूनों पर समझौते की शर्तें भारी पड़ेंगी. ऐसे में इस समझौते से मिलने वाली मददों के बावजूद इसको लेकर नेपाल में नकारात्मक माहौल है.
मध्यम आय वाले देश का दर्जा
अमेरिका को नेपाल के अस्तित्व और उसकी सत्ता का सम्मान करना चाहिए. यूएसएआडी के दस्तावेज़ों में साफ तौर पर कहा गया है कि अमेरिका इस बात के लिए प्रतिबद्ध है कि 2030 तक नेपाल मध्यम-आय वाले देश का दर्जा हासिल कर ले. नेपाली में शुरू से ही कमोबेश सुस्त रफ्तार से चलने वाली अर्थव्यवस्था रही है. इसके साथ ही यहां भूकंप (2015) का भी इतिहास रहा है. और तो और नेपाल ने 2006 तक करीब दशक भर चली विद्रोही गतिविधियों का भी सामना किया है. ऐसे में नेपाल को आत्मनिर्भर बनाने की दिशा में अमेरिका एक अहम सहयोगी हो सकता है. चाहे आपदा से होने वाली क्षति को कम से कम करने की बात हो, खाद्य सुरक्षा का मसला हो, प्राकृतिक संसाधनों के रखरखाव का मामला हो, स्वास्थ्य क्षेत्र हो या फिर नेपाल के दूरदराज के इलाकों तक आवागमन की सुविधाओं को और सुदृढ़ बनाना हो, नेपाल को बाइडन प्रशासन के दौरान मिलने वाले मौके हाथ से नहीं जाने देने चाहिए. हालांकि दक्षिण एशिया में बाइडेन की विदेशी नीति के दिशानिर्देश अभी तय नहीं हुए हैं.
नेपाल को आत्मनिर्भर बनाने की दिशा में अमेरिका एक अहम सहयोगी हो सकता है. चाहे आपदा से होने वाली क्षति को कम से कम करने की बात हो, खाद्य सुरक्षा का मसला हो, प्राकृतिक संसाधनों के रखरखाव का मामला हो
मगर नेपाल की स्थिति इस बात को लेकर बिल्कुल स्पष्ट रहनी चाहिए कि अमेरिका के साथ उसका सहयोग मुख्य रूप से आर्थिक मामलों को लेकर ही है और इसका किसी परंपरागत सुरक्षा गठजोड़ आदि से कोई लेना-देना नहीं है. क्योंकि अमेरिका के साथ सुरक्षा को लेकर कोई भी गठजोड़ आस-पड़ोस के देशों के साथ नेपाल के रिश्ते बिगाड़ सकते हैं. चूंकि नेपाल को अपने इन्हीं पड़ोसी देशों के बीच रहना है और इन देशों से मिलने वाली मदद और सुविधाओं का भी नेपाल को इस्तेमाल करते रहना है लिहाजा एक बेहतर विकल्प यही होगा कि नेपाल अपने पड़ोस के और भौगोलिक रूप से उससे दूर के मित्रों के साथ अपने संबंधों में एक प्रकार का संतुलन बिठाए.
इसके साथ ही नेपाल को भारत-प्रशांत क्षेत्र की ओर भी एक कदम आगे बढ़ाना चाहिए क्योंकि ये क्षेत्र अंतरराष्ट्रीय संबंधों में आज सबसे गतिशील विषय बना हुआ है. हां इस दिशा में नेपाल को सोच-समझकर और हरेक कदम फूंक-फूंककर चलना चाहिए. ये विचार तभी सफल हो सकता है जब नेपाल में वित्तीय स्थिरता और बेहतर संयोजन का माहौल रहे.
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