ये लेख हमारी श्रृंखला रायसीना एडिट 2023 का हिस्सा है.
जब ऑस्ट्रेलिया और चीन के नेता छह साल के अंतराल के बाद मिले, तो पूरी दुनिया में इस घटना ने सुर्ख़ियां बटोरी थीं. लेकिन हमें दोनों देशों के रिश्तों की बर्फ़ पिघलने की इस घटना से सही सबक़ सीखने चाहिए. ये ऑस्ट्रेलिया का चीन की तरफ़ झुकाव नहीं है; ये दोनों देशों के रिश्तों का सामान्य होना है.
चीन के साथ ऑस्ट्रेलिया ने ‘किसी बात पर झुके बिना’ रिश्ते सामान्य बनाए हैं. ऑस्ट्रेलिया ने अपने किसी भी नीतिगत मामले में कोई ठोस बदलाव नहीं किया है; मिसाल के तौर पर उन ’14 शिकायतों’ को लेकर ऑस्ट्रेलिया ने अपना रुख़ बिल्कुल नहीं बदला है, जो ऑस्ट्रेलिया में चीन के दूतावास ने एक पत्रकार से साझा किए थे.
पहला, पिछले साल हुई घटनाओं को समझने के लिए हमें पहले ये समझना होगा कि ऑस्ट्रेलिया और चीन के रिश्ते किस कदर ख़राब हो चुके थे. जिस तरह के संपर्क दो देश आम तौर पर रखते हैं, वो बंद हो चुके थे. मिसाल के तौर पर चीन और भारत के रिश्ते बेहद चुनौतीपूर्ण हैं. फिर भी दोनों देशों के नेता अक्सर मिलते रहते हैं. इनमें G20, ब्रिक्स, शंघाई सहयोग संगठन और दूसरी बैठकें शामिल हैं. इसके अलावा दोनों देशों के मंत्रियों के बीच भी नियमित रूप से मुलाक़ातें होती रहती हैं. लेकिन, ऑस्ट्रेलिया के मामले में ऐसा कुछ नहीं हो रहा था; सच तो ये है कि चीन के मंत्री ऑस्ट्रेलिया के मंत्रियों के फ़ोन का जवाब तक नहीं देते थे.
ऐसे में पिछले साल चीन और ऑस्ट्रेलिया के रक्षा और विदेश मंत्रियों की मुलाक़ात और शीर्ष नेताओं की बैठक एक तरह से उस तरह के संबंध की वापसी है, जैसे किसी और देश के चीन के साथ देशों के रिश्ते होते हैं. जहां पर बातचीत और असहमति की गुंजाइश होती है.
दूसरा, चीन के साथ ऑस्ट्रेलिया ने ‘किसी बात पर झुके बिना’ रिश्ते सामान्य बनाए हैं. ऑस्ट्रेलिया ने अपने किसी भी नीतिगत मामले में कोई ठोस बदलाव नहीं किया है; मिसाल के तौर पर उन ’14 शिकायतों’ को लेकर ऑस्ट्रेलिया ने अपना रुख़ बिल्कुल नहीं बदला है, जो ऑस्ट्रेलिया में चीन के दूतावास ने एक पत्रकार से साझा किए थे. इनमें विदेशी निवेश के फ़ैसले, हुआवेई को अपने 5G नेटवर्क से प्रतिबंधित करना, विदेशी दख़ंलदाज़ी रोकने वाला क़ानून हो या फिर मानव अधिकारों की वकालत का मसला.
ऑस्ट्रेलिया में सरकार के बदलाव ने चीन को एक मौक़ा दिया कि वो उन नीतियों को नए सिरे से निर्धारित करे, जो नुक़सान पहुंचाने वाली रही हैं और जिनसे चीन के कारोबारियों और ग्राहकों पर बुरा असर पड़ा है.
ऑस्ट्रेलिया के नज़रिए से नई सरकार ने अपना मक़सद चीन के साथ संबंध को स्थिर बनाना बताया है: जिससे दोनों देशों के रिश्तों में लगातार आ रही गिरावट को कूटनीति के ज़रिए रोका जा सके. अपने चुनाव अभियान के दौरान भी मौजूदा सरकार ने बार बार ज़ोर देते हुए कहा था कि चीन को लेकर नीति में कोई बड़ा बदलाव नहीं होगा. केवल सुर बदलेंगे. रक्षा मंत्री रिचर्ड मार्लेस के मुताबिक़, ‘सुर बदलने की अपनी अहमियत है.’
चीन को मौका
विदेशी मामलों की मंत्री पेनी वोंग ने स्पष्ट कर दिया है कि दोनों देशों के रिश्तों में स्थिरता इस बात को स्वीकार करने से आएगी कि चीन और ऑस्ट्रेलिया के बीच वास्तविक संरचनात्मक मतभेद हैं. फिर चाहे अलग अलग मूल्यों की बात हो या हितों की. पेनी वोंग ने कहा कि ये ऑस्ट्रेलिया की सरकार की ज़िम्मेदारी है कि वो राष्ट्रीय हित में इन मतभेदों को दूर करने का प्रयास करे, न कि उनका इस्तेमाल ‘घरेलू सियासी फ़ायदे’ के लिए करे. पेन वोंग कहती हैं कि उनका मक़सद मतभेदों से अक़्लमंदी से निपटना है, न कि, ‘चीन के साथ रिश्तों को लेकर सुर्ख़ियां बनाना.’
चीन के नज़रिए से देखें, तो संबंध सामान्य बनाने के पीछे प्रेरणा शायद ये थी कि वो बेवजह के झगड़े से निजात चाहता था, ख़ास तौर से तब और जब चीन विदेश नीति के मामले में अपनी सकारात्मक छवि पेश करना चाह रहा है. ऑस्ट्रेलिया में सरकार के बदलाव ने चीन को एक मौक़ा दिया कि वो उन नीतियों को नए सिरे से निर्धारित करे, जो नुक़सान पहुंचाने वाली रही हैं और जिनसे चीन के कारोबारियों और ग्राहकों पर बुरा असर पड़ा है.
प्रमुख जेम्स लॉरेंसन कहते हैं कि आगे की राह आसान नहीं रहने वाली है. वो सुझाव देते हैं कि आगे की राह को समझने का सबसे अच्छा तरीक़ा यही है कि दोनों देश 2020 के दौर जैसी दिशा में वापस जाएंगे, न कि 2015 जैसे ‘ख़ुशगवार दिनों’ वाले रास्ते पर चलेंगे.
ऐसा लगता है कि प्रमुख बात ऑस्ट्रेलिया की नई सरकार का कम टकराव वाला नज़रिया रहा है. नेताओं की बैठक में राष्ट्रपति शी जिनपिंग ने ऑस्ट्रेलिया के प्रधानमंत्री एंथनी अल्बानीज़ से कहा कि उन्होंने देखा है कि ऑस्ट्रेलिया का प्रधानमंत्री बनने के बाद अल्बानीज़ ने ‘चीन और ऑस्ट्रेलिया के रिश्तों को लेकर कई मौक़ों पर कई बयान दिए हैं और बार बार ये कहा है कि आप दोनों देशों के रिश्तों से प्रौढ़ता से निपटेंगे.’ इसका मतलब पिछली सरकार की तुलना में आया नज़रिए का बदलाव ही था. दोनों देशों के मंत्रियों और नेताओं की बैठकें किसी भी पक्ष द्वारा बिना किसी पूर्व शर्त या दृष्टिकोण में बदलाव के हुई हैं.
तीसरा, दोनों देशों के रिश्तों में आगे कोई भी सुधार संभवत: धीमा और थोड़ा थोड़ा ही होगा.
2020-21 के दौरान चीन ने ऑस्ट्रेलिया पर लॉबस्टर, वाइन, बीफ, जौ, गेहूं, लकड़ी, कोयला और कई अन्य चीज़ों का निर्यात करने पर रोक लगा दी थी. वैसे तो चीन ने कभी ये स्वीकार नहीं किया कि वो ऑस्ट्रेलिया को सज़ा देने के तौर पर ये क़दम उठा रहा है और वो तो बस एहतियातन के प्रतिबंध लगा रहा है. लेकिन ये महज़ इत्तिफ़ाक़ नहीं था कि इन प्रतिबंधों की चोट ऑस्ट्रेलिया पर लगी.
ऑस्ट्रेलिया के निर्यातकों को ये उम्मीद है कि दोनों देशों के नेताओं की मुलाक़ात के बाद चीन के सरकारी अधिकारियों के बीच ये संदेश जाएगा कि अब उनका देश ऑस्ट्रेलिया को अपना विरोधी देश नहीं मानता. इसका अर्थ ये होगा कि निचले दर्जे के अधिकारी, ऑस्ट्रेलिया से वो सामा आयात करने की इजाज़त देंगे, जिन पर अब तक प्रतिबंध लगा हुआ था. इससे चीन की उन कंपनियों के बीच भी सकारात्मक संदेश जाएगा, जो ऑस्ट्रेलिया में निवेश करने पर विचार कर रही हैं और चीन के अभिभावक अपने बच्चों को पढ़ने के लिए ऑस्ट्रेलिया भेजने पर फिर से विचार करेंगे. ऐसी ख़बरें हैं कि ऐसा होना शुरू भी हो गया है. मिसाल के तौर पर दो साल बाद ऑस्ट्रेलिया से कोयले की पहली खेप चीन भेजी गई है.
दावोस में दोनों देशों के सहायक व्यापार मंत्री स्तर की बैठकें हुई हैं और अभी हाल ही में ऑस्ट्रेलिया और चीन के व्यापार मंत्री फरवरी में मिले थे, जिसमें ऑस्ट्रेलिया ने ‘समय पर पूर्ण व्यापारिक रिश्तों की बहाली की राह तय करने पर ज़ोर दिया’, वहीं चीन ने ये स्पष्ट कर दिया कि अभी बहुत से ऐसे मसले हैं, जिनका समाधान होना बाक़ी है.
सुरक्षा के मामले में अभी बहुत से मसले बने हुए हैं. नेताओं की बैठक में ऑस्ट्रेलिया के प्रधानमंत्री एंथनी अल्बानीज़ ने ताइवान, शिंजियांग में मानव अधिकारों, चीन में बंदी बनाए गए ऑस्ट्रेलिया के नागरिकों चेंग लेई और यांग हेंगजुन और यूक्रेन के मसले पर चीन द्वारा रूस के समर्थन को लेकर अपना रुख़ जस का तस बनाए रखने की बात कही. ये सारे मसले अनसुलझे बने हुए हैं.
और आख़िर में ऑस्ट्रेलिया और चीन के रिश्तों को अमेरिका और चीन के ख़राब होते संबंधों से अलग करके नहीं देखा जा सकता है.
भविष्य की अटकलें
आगे चलकर ऐसे कई मसले उभरने वाले हैं, जो दोनों देशों के रिश्तों में सुधार की राह में खलल डाल सकते हैं. उदाहरण के लिए, मार्च में ऑस्ट्रेलिया से अपेक्षा है कि वो AUKUS समझौते के तहत परमाणु शक्ति संपन्न पनडुब्बियां हासिल करने की राह का एलान करेगा. इसके अलावा वो अपनी सामरिक रक्षा समीक्षा की घोषणा भी करेगा, जो ऑस्ट्रेलिया की राष्ट्रीय सुरक्षा का नज़रिया तय करती है. इससे दोनों देशों के रिश्तों में और सुधार पर ग्रहण लगने की आशंका है. पूर्व राजदूत केविन मैगी मानते हैं कि ऑस्ट्रेलिया की सरकार राष्ट्रीय सुरक्षा के मामले में कोई भी समझौता नहीं करने वाली है.
तो, आगे चलकर इन संबंधों के भविष्य की राह क्या है? कूटनीतिक संबंधों को ठंडे बस्ते में डालने की वजह बना कोई भी मसला और मतभेद अब तक नहीं सुलझा है. सिडनी की यूनिवर्सिटी ऑफ टेक्नोलॉजी में ऑस्ट्रेलिया- चाइना रिलेशंस इंस्टीट्यूट के प्रमुख जेम्स लॉरेंसन कहते हैं कि आगे की राह आसान नहीं रहने वाली है. वो सुझाव देते हैं कि आगे की राह को समझने का सबसे अच्छा तरीक़ा यही है कि दोनों देश 2020 के दौर जैसी दिशा में वापस जाएंगे, न कि 2015 जैसे ‘ख़ुशगवार दिनों’ वाले रास्ते पर चलेंगे.
हो सकता है कि हम चीन और ऑस्ट्रेलिया के रिश्तों के भविष्य का सबसे अच्छा आकलन, पिछले साल के अंत में ऑस्ट्रेलिया की विदेश मंत्री पेनी वोंग के बीजिंग दौरे को मिसाल बनाकर कर सकते हैं. कई मामलों में ये दौरा कोई ख़ास नहीं रहा था. ये किसी विदेश मंत्री के ऐसे तमाम दौरों जैसा ही था. दोनों देशों के मंत्रियों ने बहुत से मतभेदों और असहमतियों की बात की. किसी समाधान का एलान नहीं किया गया. इस दौरे की सबसे बड़ी घोषणा यही थी कि दोनों देश तमाम क्षेत्रों में ‘उच्च स्तरीय संपर्क’ और ‘भविष्य में संवाद’ बनाए रखेंगे. इससे पता चलता है कि दोनों देश कूटनीति के दूरगामी, धैर्यपूर्ण कार्य को लेकर प्रतिबद्ध हैं.
इसका मतलब ये है कि ऑस्ट्रेलिया एक बार फिर चीन से सामान्य संबंध बनाने की ओर लौटा है. ऐसे संबंध जो प्रधानमंत्री एंथनी अल्बानीज़ के शब्दों में कहें तो, ‘हम जिस क्षेत्र में मुमकिन होगा सहयोग करेंगे, जहां असहमत होना चाहिए, वहां असहमत होंगे और अपने राष्ट्रीय हितों को देखते हुए संवाद करेंगे.’ ये बात ऑस्ट्रेलिया को दोबारा विश्व की मुख्यधारा में लाती है.
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