मार्च 2023 में इराक़ के तत्कालीन राष्ट्रपति सद्दाम हुसैन के ख़िलाफ़ अमेरिका के युद्ध के 20 साल पूरे हो गए हैं. अमेरिका ने ये युद्ध इराक़ के द्वारा नरसंहार के हथियार (WMD) विकसित करने का बहाना बनाकर शुरू किया था क्योंकि अपने रास्ते से भटक कर 9/11 आतंकी हमलों के बाद ‘आतंक के ख़िलाफ़ युद्ध’ के युग के तहत मिले जनमत का अमेरिका ने विस्तार किया था. 20 वर्षों तक ये युद्ध कई मोर्चों पर ऐतिहासिक क्षण के रूप में देखा गया है, इसे बुश-चेनी प्रशासन की सबसे बड़ी ग़लती माना गया है, ये ऐसा संघर्ष था जिसने आतंक के ख़िलाफ़ युद्ध कमज़ोर किया और जिसने मध्य-पूर्व (पश्चिम एशिया) में पहले से ही नाज़ुक अमेरिकी मौजूदगी को काफ़ी कमज़ोर किया. भले ही अमेरिका उस दौर की घटनाओं को सामान्य बनाने की कोशिश कर रहा है और इराक़ में अमेरिका के सामरिक हित बदल रहे हैं, लेकिन इस युद्ध की विरासत अमेरिका की विदेश नीति पर भारी पड़ रही है.
इराक़ पर आक्रमण के बाद के झटके
इराक़ पर अमेरिकी आक्रमण से लगभग कोई फ़ायदा नहीं हुआ. हालांकि कुछ लोग अब भी ये दलील दे रहे हैं कि भले ही युद्ध की शुरुआत ग़लत खुफ़िया जानकारी और बहाने के आधार पर हुई थी लेकिन तब भी इससे नुक़सान के बदले फ़ायदा हुआ. लेकिन जो लोग ये दलील देते हैं वो इस सवाल का जवाब देने से परहेज करते हैं कि “किनको फ़ायदा” हुआ. स्कॉलर हल ब्रैंड्स ने हाल ही में ये राय दी कि “जब अच्छे मक़सद से शुरू किए गए युद्ध का ग़लत नतीजा निकलता है तो अमेरिका के लोग इस निष्कर्ष पर पहुंच जाते हैं कि वो युद्ध शुरुआत से ही अर्थहीन या बेकार था.” अमेरिका के तत्कालीन विदेश मंत्री कॉलिन पॉवेल, जिनका 2021 में निधन हुआ, शायद बुश प्रशासन के गिने-चुने नेताओं में से एक थे जिन्होंने खुले तौर पर मुहैया कराई गई खुफ़िया जानकारी की सत्यता और उसके बाद लिए गए फ़ैसले, जिसकी वजह से इराक़ युद्ध हुआ और इसके साथ-साथ अफ़ग़ानिस्तान में अमेरिका के अभियानों से भी समझौता करना पड़ा, की आलोचना की थी. वैसे तो इराक़ पर आक्रमण की कमियों को अच्छी तरह से माना जाता है लेकिन अफ़ग़ानिस्तान पर इसके ज्ञात प्रभाव को अभी भी आधुनिक समय में अमेरिका की सबसे बड़ी सामरिक मूर्खता के रूप में उजागर किया जाता है.
भले ही अमेरिका उस दौर की घटनाओं को सामान्यबनाने की कोशिश कर रहा है और इराक़ में अमेरिका के सामरिक हित बदल रहे हैं, लेकिन इस युद्ध की विरासत अमेरिका की विदेश नीति पर भारी पड़ रही है.
अफ़ग़ानिस्तान पुनर्निर्माण के लिए स्पेशल इंस्पेक्टर जनरल, जिन्होंने अगस्त 2021 में तालिबान के काबुल पर फिर से कब्ज़े के कुछ ही घंटों के भीतर अफ़ग़ान सेना की हार के कारणों की पड़ताल की थी, की एक ताज़ा रिपोर्ट के दूसरे पन्ने में लिखा गया है“मई 2002 में अमेरिका ने अफ़ग़ान नेशनल आर्मी (ANA) को ट्रेनिंग देने की शुरुआत की. अमेरिकी स्पेशल फोर्स इस काम की अगुवाई कर रही थी. इस बात को स्वीकार करते हुए कि किसी देश की सेना को प्रशिक्षण देना स्पेशल फोर्स की मुख्य योग्यता से परे है, अमेरिका ने प्रशिक्षण के कार्यक्रम का विस्तार छोटी इन्फेंट्री यूनिट से बड़ी सैन्य टुकड़ी में करने के लिए और रक्षा संस्थानों जैसे कि साजो-सामान के नेटवर्क को विकसित करने के उद्देश्य सेअपनी सेना की 10वीं माउंटेन डिविज़न को तैनात किया. लेकिन 2003 में इराक़ पर अमेरिका के आक्रमण ने अफ़ग़ानिस्तान अभियान से एक प्रमुख संसाधन यानी अफ़ग़ान सेना को ट्रेनिंग देने के लिए एक्टिव-ड्यूटी सैन्य यूनिट को हटा दिया. इसके बदले अफ़ग़ान सेना को प्रशिक्षण का काम बारी-बारी से अलग-अलग आर्मी नेशनल गार्ड यूनिट को सौंप दिया गया.” अफ़ग़ान सेना की कमज़ोरी के सवाल का कम-से-कम आंशिक जवाब इराक़ युद्ध की वजह से अफ़ग़ानिस्तान में अमेरिका के अभियानों में संस्थागत एवं राजनीतिक विकर्षण में है. इराक़ युद्ध के कारण महत्वपूर्ण सैन्य प्रतिभा और उपकरण को वहां भेज दिया गया जबकि तालिबान का ख़तरा कम होने के बजाय फिर से बढ़ रहा था.
सद्दाम हुसैन को सत्ता से हटाना इराक़ युद्ध का निर्णायक क्षण नहीं था. सद्दाम का सत्ता से हटना केबल टेलीविज़न पर देख रहे और 9/11 का बदला लेने को आतुर अमेरिका के लोगों के बीच भले ही दुनिया में अमेरिका के दबदबे का प्रतीक था लेकिन युद्ध से पहले के मुक़ाबले युद्ध के बाद अल क़ायदा जैसे समूहों के इराक़ में ज़्यादा प्रभावी बनने के साफ़ सबूत दिखने लगे. अभी तक ये युद्ध दुनिया भर के इस्लामिक आंदोलनों के लिए समर्थन की प्रेरणा देता है और ये कट्टरपंथ एवं भर्ती के लिए सबसे असरदार सहारा बना हुआ है. इसमें अमेरिका के द्वारा तालिबान के साथ समझौते पर हस्ताक्षर करने के बाद अफ़ग़ानिस्तान से बाहर निकलने को जोड़ दीजिए तो अल क़ायदा और अन्य समूहों के लिए ऐसा लगेगा कि दो दशक लंबे युद्ध में उनकी जीत हुई है, कम-से-कम अफ़ग़ानिस्तान में तो पूरी तरह. इराक़ और सीरिया में तथाकथित इस्लामिक स्टेट (ISIS या अरबी में दाएश) के आने, जिसकी बुनियाद इराक़ में अल क़ायदा से जोड़ी जा सकती है, को भी अब कुछ लोगों के द्वारा इस क्षेत्र में अमेरिका के लिए 'हमेशा' के अभियान की तरह देखा जा रहा है. हरारो जे. इन्ग्राम और क्रैग व्हाइटसाइड जैसे विद्वान इस बात को उजागर करते हैं कि लड़ाई के मैदान में जिहादी समूहों के ख़िलाफ़ जीत उनके ज़िंदा रहने और फिर से संगठित होने की क्षमता को कम करके आंकते हैं. इसमें इराक़ युद्ध की खंडित विरासत से मदद मिलती है जो हर अगले अमेरिकी राष्ट्रपति को युद्ध के मैदान से बाहर निकलने या नुक़सान को कम-से-कम करने के लिए प्रेरित करती है जिसमें उन्हें अलग-अलग स्तर पर सफलता मिली है.
सद्दाम हुसैन को सत्ता से हटाना इराक़ युद्ध का निर्णायक क्षण नहीं था. सद्दाम का सत्ता से हटना केबल टेलीविज़न पर देख रहे और 9/11 का बदला लेने को आतुर अमेरिका के लोगों के बीच भले ही दुनिया में अमेरिका के दबदबेका प्रतीक था लेकिन युद्ध से पहले के मुक़ाबले युद्ध के बाद अल क़ायदा जैसे समूहों के इराक़ में ज़्यादा प्रभावी बनने के साफ़ सबूत दिखने लगे.
हालांकि युद्ध के अंतत: अनुचित होने और युद्ध शुरू करने का निर्णय लेने वालों को ज़िम्मेदार ठहराने की कमी दूसरों के लिए अमेरिका पर भरोसे के मामले में एक बड़ी रुकावट बनी हुई है. रूस के द्वारा अफ़ग़ानिस्तान में ISIS के लिए “एंग्लो-सैक्सन” नीतियों पर आरोप लगाने से लेकर इराक़ संघर्ष तक- जिसका ज़िक्र अक्सर भारत जैसे देशों में कई लोगों के द्वारा ये कहने के लिए किया जाता है कि अमेरिका पर पूरा भरोसा नहीं करना चाहिए- युद्ध की विरासत पश्चिम, पूर्व और विकासशील देशों में बहुआयामी विमर्श में ज़िंदा है.
भारत के नज़रिए से इराक़ युद्ध
2003 में युद्ध को लेकर शोरगुल के बावजूद भारत ने अमेरिका के नज़दीक होने का एक अवसर देखा. ये वो समय था जब आज के इंडो-पैसिफिक, क्वॉड और इसी तरह के दूसरे संगठनों के युग से हटकर अमेरिका के साथ भारत के रिश्ते अच्छे नहीं थे. भारत के तत्कालीन प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी दबाव में घिरे हुए थे. अमेरिका ने उनसे अनुरोध किया था कि भारत ‘इच्छुक देशों के गठबंधन’ में शामिल हो जाए और इराक़ में अमेरिका के नेतृत्व वाले गठबंधन की सहायता के लिए अपनी सेना भेजे. ये उस वक़्त चल रहा था जब भारतीय संसद ने सर्वसम्मति से इराक़ पर आक्रमण के ख़िलाफ़ एक प्रस्ताव पारित किया था. उस वक़्त के भारतीय सामरिक विचारकों को ये कठिन फ़ैसला करना था कि या तो अमेरिका को ख़ुश किया जाए या फिर भारत अपने इस परंपरागत रुख़ पर बना रहे कि संयुक्त राष्ट्र ये फ़ैसला करे कि इराक़ में नरसंहार के हथियार वास्तव में वैश्विक चिंता के विषय बन गए हैं.
शुक्र की बात ये रही कि वाजपेयी ने अपनी सरकार के भीतर और बाहर के कुछ लोगों के दबाव के बावजूद अमेरिका को सीधे समर्थन के ख़िलाफ़ फ़ैसला लिया. अमेरिका के साथ समझौते का मतलब होता इराक़ की धरती पर भारतीय सैनिकों की तैनाती. वैसे तो कई लोग (जिनमें इस लेख का लेखक भी शामिल है) इस बात के पक्षधर हैं कि भारत निडर फ़ैसले ले (जो कि उदाहरण के तौर पर अफ़ग़ानिस्तान में लेने में भारत नाकाम रहा) लेकिन 2003 में न तो वो समय था और न ही इराक़ वो क्षेत्र था जहां भारत इस सामरिक बदलाव की शुरुआत करता. 2023 में इराक़ युद्ध का वास्तविक नतीजा जानने के बाद वाजपेयी के फ़ैसले की पुष्टि होती है.
विकासशील देशों की आवाज़ के रूप में भारत की स्थिति में इस विसंगति को ठीक करने की संभावना है लेकिन इनमें से कई चीज़ें इस बात पर निर्भर करती हैं कि अमेरिका, यूरोप, चीन और यहां तक कि रूस आने वाले दशकों में तेज़ी से भंग होती वैश्विक व्यवस्था को लेकर क्या दृष्टिकोण रखते हैं.
ऊपरोक्त राजनीतिक फ़ैसले का एक और मोर्चे पर भी दबाव था. भारत का राजनीतिक अभिजात वर्ग सद्दाम हुसैन को अच्छे नज़रिए से देखता था. इसका कारण भारतीय मिग पायलट्स के द्वारा इराक़ के पायलट्स को ट्रेनिंग, ऊर्जा सुरक्षा, पाकिस्तान के ख़िलाफ़ सद्दाम हुसैन की मदद और इसी तरह की दूसरी बातें थीं. वाजपेयी की भारतीय जनता पार्टी के वैचारिक दिमाग़ राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के तत्कालीन नेता ने पहले ही इराक़ के ख़िलाफ़ युद्ध की आलोचना की थी. भारत की बाहरी खुफ़िया एजेंसी रिसर्च एंड एनालिसिस विंग के पूर्व वरिष्ठ आतंकनिरोधी अधिकारी बी. रमन ने ‘सद्दाम के लिए आंसू’ शीर्षक से एक लेख लिखा. उन्होंने लिखा “मैं सद्दाम के लिए आंसू बहाता हूं. वो भारत और यहां के लोगों के एक अच्छे दोस्त थे. उन्होंने अच्छे और बुरे- दोनों समय में हमारा साथ दिया. मुझे मार्च 1993 के मुंबई धमाके के बाद के दिन याद हैं. पाकिस्तान की ISI के द्वारा प्रशिक्षित आतंकवादियों ने मुंबई धमाके में लगभग 300 बेकसूर भारतीय नागरिकों की हत्या कर दी थी. हम पाकिस्तान की भूमिका की जांच में मदद के लिए एक खुफ़िया एजेंसी से दूसरी खुफ़िया एजेंसी तक जाते रहे. अमेरिका ने हमें झिड़क दिया. अमेरिका के लिए धमाके में मारे गए भारतीयों के लिए शोक मनाने और कसूरवारों को सज़ा दिलाने में भारत की मदद के मुक़ाबले पाकिस्तान और उसकी ISI की रक्षा करना ज़्यादा महत्वपूर्ण था. उस वक़्त सद्दाम हमारी सहायता के लिए आगे आए और जहां तक संभव था उन्होंने हमारी मदद की.”
शीत युद्ध के बाद के युग में जिस वक़्त भारत को ये महसूस हो रहा था कि पश्चिमी देशों में उसकी आवाज़ को कोई नहीं सुन रहा, उस वक़्त सद्दाम हुसैन के साथ भारत के संबंध केवल ज़ुबानी नहीं थे. 2015 में उत्तरी इराक़ के मोसूल में जिस पहली इमारत पर कथित इस्लामिक स्टेट ने अपना झंडा फहराया वो फाइव स्टार निनेवाह ओबेरॉय होटल था. इस होटल की शुरुआत 1986 में हुई थी. अंतर्राष्ट्रीय तौर पर मशहूर भारतीय हॉस्पिटैलिटी ब्रैंड ओबेरॉय बग़दाद में बेबीलोन-ओबेरॉय होटल काप्रबंधनभी करता था. ये आज इराक़ के साथ भारत के संबंध, विशेष रूप से गुटनिरपेक्ष आंदोलन के हिस्से के रूप में, की एक और याद है.
इराक़ युद्ध के बाद से भारत ने इस क्षेत्र में पश्चिमी देशों के हस्तक्षेप को लेकर इसी तरह के विचार रखे हैं. लीबिया में युद्ध की आलोचना करना अन्य भू-राजनीतिक तनावों में से है. 2003 में इराक़ को लेकर भारत की राजनीति में अलग-अलग रुख़ कुछ सामरिक विचारकों के लिए एक अवसर गंवाने की तरह था लेकिन एक नीतिगत निर्णय के रूप में ये समय से आगे था.
निष्कर्ष
इराक़ युद्ध संभवत: हाल के वर्षों में पश्चिमी देशों का सबसे ख़राब राजनीतिक फ़ैसला था. इस बात से इनकार नहीं किया जा सकता कि सद्दाम हुसैन एक तानाशाह थे और उन्होंने अपने देश के नागरिकों के साथ-साथ पड़ोसी देशों के लोगों पर भी अत्याचार किए. लेकिन 9/11 के साथ उनके नाम को जोड़ने से न सिर्फ़ ‘आतंक के ख़िलाफ़ युद्ध’ को एक बड़ा झटका लगा बल्कि अमेरिका के भू-राजनीतिक फैसलों के साथ सहयोग या उसके साथ चलने को लेकर कई देशों में आशंका की एक नई परत को भी जोड़ा. इनमें से कुछ आशंकाएं आज दिखती हैं कि कैसे विकासशील देश यूक्रेन युद्ध को लेकर ख़ुद को खड़ा करते हैं. इनमें से कई आशंकाएं सदियों के उपनिवेशवाद के अनुभव और समकालीन इतिहास में वैश्विक ताक़तों के द्वारा ईमानदार और निष्पक्ष साझेदारी की कमी से आती हैं. विकासशील देशों की आवाज़ के रूप में भारत की स्थिति में इस विसंगति को ठीक करने की संभावना है लेकिन इनमें से कई चीज़ें इस बात पर निर्भर करती हैं कि अमेरिका, यूरोप, चीन और यहां तक कि रूस आने वाले दशकों में तेज़ी से भंग होती वैश्विक व्यवस्था को लेकर क्या दृष्टिकोण रखते हैं. इराक़ युद्ध अभी भी इस कहावत का सबसे अच्छा उदाहरण बना हुआ है कि अंतर्राष्ट्रीय मामलों में इतिहास सबसे अच्छा सिखाने वाला तभी तक है जब छात्र सीखने वाला हो.
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