Author : Trisha Ray

Issue BriefsPublished on Jul 12, 2023
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सेमीकंडक्टर के भविष्य के लिए भारत के अतीत से सबक़

  • Trisha Ray

प्रधानमंत्री मोदी ने पिछले महीने अमेरिका की पहली राजकीय यात्रा की. इस दौरान उन्होंने व्हाइट हाउस में स्टेट डिनर में हिस्सा लिया, अमेरिकी संसद को संबोधित किया और बहुत से उद्यमियों और कारोबारियों से मुलाक़ात की. प्रधानमंत्री के इस दौरे में जिन समझौतों ने सुर्ख़ियां बटोरीं, उनमें सेमीकंडक्टर की आपूर्ति श्रृंखलाओं का निर्माण भी शामिल था. इसकी बुनियाद सेमीकंडक्टर की सप्लाई चेन और इनोवेशन पार्टनरशिप का वो सहमति पत्र बना, जिस पर मार्च 2023 में दस्तख़त किए गए थे.

आज जब भारत को सेमीकंडक्टर के केंद्र के तौर पर विकसित करने पर पूरा ज़ोर दिया जा रहा है, तो हमारे लिए भारत की सेमीकंडक्टर नीति के प्रयासों के इतिहास पर एक नज़र डालना उपयोगी रहेगा.

आज जब भारत को सेमीकंडक्टर के केंद्र के तौर पर विकसित करने पर पूरा ज़ोर दिया जा रहा है, तो हमारे लिए भारत की सेमीकंडक्टर नीति के प्रयासों के इतिहास पर एक नज़र डालना उपयोगी रहेगा. इससे हमें ये पता चलेगा कि भारत के कौन से क़दम कामयाब रहे और उसने क्या नीतिगत ग़लतियां कीं, और इन अनुभवों का मौजूदा नीति निर्माता कैसे लाभ उठा सकते हैं.

वैज्ञानिक सोच से लेकर उभरते हुए सेमीकंडक्टर उद्योग तक

1947 में आज़ादी के वक़्त, ब्रिटिश शासन के दौर में भारत क़रीब दो सौ साल के ‘अन-औद्योगीकरण’ के दौर से गुज़र चुका था. वैसे तो इसके असर और दुष्प्रभावों को लेकर विवाद है. लेकिन, एक बात बिल्कुल सच है कि इस दौरान भारत, दो औद्योगिक क्रांतियों का लाभ उठा पाने से वंचित रह गया था और अब उसे विकसित देशों की बराबरी करने के लिए तेज़ी से क़दम उठाने थे. आज़ादी के फ़ौरन बाद के दौर में भारत की जो औद्योगिक और तकनीकी नीतियां रही थीं, वो लगभग उसी तरह की थीं, जिस तरह आज आत्मनिर्भर भारत पर ज़ोर दिया जा रहा है. कुछ लोगों के मुताबिक़, आज़ादी के बाद के दौर में भारत की तकनीकी नीति मोटे तौर पर पूर्व प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू के ‘वैज्ञानिक सोच’ विकसित करने पर आधारित रही थी. जिसे हम उन तकनीकों को समझने की कोशिश कह सकते हैं, जिनका इस्तेमाल हो रहा था, न कि तकनीक का ख़ुद इस्तेमाल करने पर ज़ोर देना. निश्चित रूप से अमेरिकी उद्योगपतियों के साथ नेहरू की शुरुआती मुलाक़ातों की प्रतिक्रिया वैसी ही रही थी, जैसी भारत की आधुनिक औद्योगिक नीतियों को लेकर है. जैसा कि उस वक़्त के अमेरिकी राजदूत स्टीफन ग्रेडी ने कहा था कि, ‘हमारे भारतीय मित्र ये सोचते हैं कि अमेरिका की तकनीकी जानकारियों को सीलबंद करके भारतीय बंदरगाहों पर उतारा जा सकता है.’

1960 के दशक में भारत की मुट्ठी भर कंपनियां जर्मेनियम सेमीकंडक्टर का उत्पादन कर रही थीं और इस दौरान इंटीग्रेटेड सर्किट (IC) तकनीक के अगुवा फेयरचाइल्ड सेमीकंडक्टर्स ने एशिया में अपनी पहली इकाई लगाने के लिए भारत को ठिकाना बनाने के बारे में विचार किया था. इस दौरान, रक्षा मंत्रालय के तहत काम करने वाली एक सरकारी कंपनी (PSU) भारत इलेक्ट्रॉनिक्स लिमिटेड (BEL) ने हिंदुस्तान एयरोनॉटिक्स  लिमिटेड (HAL) के साथ मिलकर, सेमीकंडक्टर उपकरण बनाने के लिए जर्मेनियम और सिलिकॉन तकनीक का अधिग्रहण किया था. HAL भी रक्षा मंत्रालय के तहत काम करने वाली सरकारी कंपनी है. ये दोनों कंपनियां आज भी भारत की सेमीकंडक्टर बनाने वाली प्रमुख कंपनियां हैं. लेकिन ये दोनों केवल रक्षा क्षेत्र की ज़रूरतें पूरी करती हैं.

वैसे तो शुरुआती दौर में ये प्रगति काफ़ी धीमी थी, मगर 1980 के दशक में भारत के सेमीकंडक्टर उद्योग ने रफ़्तार पकड़ी थी. इसे, राजीव गांधी सरकार द्वारा उठाए गए कुछ नीतिगत क़दमों से रफ़्तार मिली थी. सरकार ने लाइसेंस की कुछ शर्तों में ढील दे दी और कंप्यूटर और दूसरे इलेक्ट्रॉनिक उपकरण आयात करने पर लगने वाले टैक्स को हटा लिया था. यूरोप, जापान और अमेरिका के अपने कई दौरों में राजीव गांधी ने इलेक्ट्रॉनिक्स, दूरसंचार और ऊर्जा क्षेत्र में निवेश को आमंत्रित किया था.

सरकार ने लाइसेंस की कुछ शर्तों में ढील दे दी और कंप्यूटर और दूसरे इलेक्ट्रॉनिक उपकरण आयात करने पर लगने वाले टैक्स को हटा लिया था.

1984 में एक सरकारी कंपनी सेमीकंडक्टर कॉम्प्लेक्स लिमिटेड (SCL) की स्थापना करके भारत सरकार ने एक बड़ा नीतिगत क़दम उठाया था. ये उद्यम हिताची, AMI और रॉकवेल के साथ लाइसेंस के समझौते की वजह से मुमकिन हो सका था. इसके साथ साथ भारत सरकार ने नेशनल सिलिकॉन फैसिलिटी स्थापित  करने के लिए बोलियां आमंत्रित कीं, जिसे लेकर उस वक़्त अमेरिका और पूर्वी जर्मनी की कंपनियों में काफ़ी उत्साह देखा गया था. आख़िरकार नई बनाई गई भारतीय कंपनी मेटकेम सिलिकॉन लिमिटेड ने BEL के सहयोग से, तमिलनाडु के मेट्टुर में अपनी पॉलीसिलिकॉन  इकाई की स्थापना की थी.

भारत द्वारा सेमीकंडक्टर उद्योग को बढ़ावा देने से जुड़े 1989 के एक पेपर में कहा गया था कि, ‘भारत के सेमीकंडक्टर उद्योग ने दुनिया भर में अपने लिए एक ख़ास जगह बना ली है. वैसे तो भारतीय कंप्यूटरों में इस्तेमाल होने वाली बेहद उन्नत सेमीकंडक्टर चिप को अमेरिकी कंपनियों जैसे कि इंटेल, मोटोरोला  और रॉकवेल से आयात किया जाता है, लेकिन कम उन्नत सेमीकंडक्टर चिप भारत में बनाए जाते हैं. भारत पिछली पीढ़ी के सेमीकंडक्टर चिप का निर्यात करता है, जिनको दुनिया के ज़्यादातर देशों ने इस्तेमाल करना बंद कर दिया है.’

1980 के दशक में भारत अत्याधुनिक  सेमीकंडक्टर निर्माण की तकनीक के मामले में सिर्फ़ दो साल पीछे था.

भारत की बढ़त की धीमी मौत

भारत ने सेमीकंडक्टर निर्माण में अपनी बढ़त 1990 के दशक में गंवा दी. 1989 में चंडीगढ़ स्थित SCL के कारखाने में भयंकर आग लग गई, जिससे बहुत नुक़सान हुआ. हालांकि, कारखाने को दोबारा चालू करने की काफ़ी कोशिश की गई, लेकिन हादसे के बाद वहां सिर्फ़ भारतीय अंतरिक्ष अनुसंधान संगठन (ISRO) के लिए सीमित मात्रा में ही चिप बनाए जा सके. 1991 और उसके बाद के वर्षों में आर्थिक उदारीकरण की नीतियां लागू की गयी . आख़िरकार, सरकार द्वारा वादे के मुताबिक़ सब्सिडी न देने, ख़ास तौर से बिजली के मामले में रियायतें न मिलने से भारत में सेमीकंडक्टर के उद्योग को कई चुनौतियों का सामना करना पड़ा.

2007 में उस वक़्त की सरकार ने देश की पहली सेमीकंडक्टर नीति का एलान किया. इसका मक़सद, फैब्रिकेशन  की तीन इकाइयां स्थापित करने के साथ साथ, अगले तीन साल में 24 हज़ार करोड़ का निवेश आकर्षित करना था. इस दौरान, AMD और इंटेल दोनों ने भारत में फैब्रिकेशन की इकाइयां लगाने के बारे में विचार किया. भारत के तकनीकी जानकारों के एक समूह सेमइंडिया ने AMD के साथ लाइसेंसिंग का समझौता भी किया, ताकि एक पानी वाली फैब्रिकेशन इकाई स्थापित की जा सके. इंटेल ने 1988 में ही भारत में अपना कारोबार शुरू कर दिया था. इंटेल ने ऐलान  किया कि वो भारत में एक अरब डॉलर का निवेश करेगी और और शायद एक फैब्रिकेशन की सुविधा भी स्थापित करेगी. हालांकि , कई कारणों से इन दोनों ही मामलों में कोई काम नहीं हुआ. इसमें सेमीकंडक्टर नीति पारित होने में देर और इसके तहत न्यूनतम निवेश की कड़ी शर्तें शामिल थीं. AMD द्वारा अपनी फैब्रिकेशन इकाइयों को एक अलग कंपनी ग्लोबल फाउंड्रीज़ के तौर पर स्थापित करना भी एक वजह रही. इसके साथ साथ पूंजी जुटाने और उत्पादन में देरी जैसी समस्याएं भी आईं.

भारत में सेमीकंडक्टर के इतिहास का आख़िरी अध्याय 2013-14 में लिखा गया, जब सरकार ने सेमीकंडक्टर को बढ़ावा देने की कोशिश की. सरकार ने हिंदुस्तान सेमीकंडक्टर मैन्युफैक्चरिंग  कारपोरेशन  (ST माइक्रोइलेक्ट्रॉनिक्स और सिलटेर्रा मलेशिया Sdn Bhd. की साझा कंपनी) और जयप्रकाश एसोसिएट्स (IBM, टॉवर सेमीकंडक्टर लिमिटेड का गठबंधन) को लेटर ऑफ इंटेंट (LoIs) भी जारी किए. जयप्रकाश एसोसिएट्स ने तो पूंजी के ख़र्च का हवाला देकर 2016 में अपना प्रस्ताव वापस ले लिया. वहीं, HSMC का लाइसेंस सरकार ने ख़ुद 2019 में रद्द कर दिया, क्योंकि HSMC ने दस्तावेज़ी औपचारिकताएं पूरी करने में काफ़ी समय लगा दिया था.

भारत ने क्या सबक़ सीखे?

1970 और 80 के दशक में भारत के सेमीकंडक्टर उद्योग की शुरुआती सफलता में नियमों में ढील देने, निवेशकों को आकर्षित करने और घरेलू कारोबार को बढ़ावा देने के सरकार के प्रयासों ने काफ़ी अहम भूमिका निभाई थी. हालांकि, भारत की अफ़सरशाही आख़िरकार इस तरक़्क़ी में रोड़ा बन गई. क्योंकि इस दौरान सरकार की संस्थाओं और मंत्रालयों के बीच कोई तालमेल नहीं था. नीतियां लागू करने में ढिलाई बरती गई. सरकार की तरफ़ से रियायतों के एलान में देरी और सेमीकंडक्टर उद्योग में सहायक मूलभूत ढांचे की कमी ने भी इस उद्योग के विकास को कमज़ोर किया. इसका नतीजा ये हुआ कि भारत में सेमीकंडक्टर उद्योग काफ़ी पिछड़ गया. सेमीकंडक्टर कंपनियां सरकारों से बिल्कुल अलग टाइमलाइन पर काम करती हैं: नए देशों में सुविधाएं स्थापित करके आपूर्ति श्रृंखला में विविधता लाने के प्रयासों के दूरगामी नतीजे ही देखने को मिलते हैं. और, प्रोत्साहन पैकेज, ज़मीन के आवंटन और निर्माण वग़ैरह में देरी से इन कंपनियों की औसत लागत बढ़ती जाती है. मिसाल के तौर पर अक्टूबर में हुए ताइवान भारत संवाद के मुताबिक़, अमेरिका के एरिज़ोना में TSMC के कारखाने के निर्माण में पहले ही देरी हो रही है. इसीलिए, सेमीकंडक्टर बनाने वाली कंपनियां मौजूदा केंद्रों में ही नए कारखाने लगाती हैं, जहां उनके सप्लायर भी जाने-पहचाने होते हैं.

भारत के तकनीकी जानकारों के एक समूह सेमइंडिया ने AMD के साथ लाइसेंसिंग का समझौता भी किया, ताकि एक पानी वाली फैब्रिकेशन इकाई स्थापित की जा सके. इंटेल ने 1988 में ही भारत में अपना कारोबार शुरू कर दिया था.

उस वक़्त की भारत की सेमीकंडक्टर नीतियां एक प्रमुख सबक़ सिखाती हैं: इस मामले में सरकार के दख़ल को एक तरफ़ सामरिक और ख़ूब सोच समझकर उठाए गए क़दम और दूसरी तरफ़ उद्योग की ज़रूरत के मुताबिक़ सही समय पर लिए जाने के बीच बारीक़ संतुलन क़ायम करना चाहिए. इसमें कोई दो राय नहीं है कि भारत, सेमीकंडक्टर कंपनियों के लिए निवेश का एक आकर्षक ठिकाना है. इसकी वजह सिर्फ़ यही नहीं है कि ये चिप डिज़ाइन का एक बड़ा केंद्र है. भारत सरकार द्वारा दिए जाने वाले दूसरे प्रोत्साहन, राज्य सरकारें और अमेरिका भारत के बीच दस्तख़त किए गए सहमति पत्र (MoU) जैसे तरीक़ों से की गई व्यवस्थाएं भी ऐसे सौदों को सुगम बनाती हैं. फिर भी गति, व्यवस्था और मूलभूत ढांचे का रख-रखाव, आसानी से मंज़ूरी और लाइसेंस की प्रक्रिया के आसान होने जैसी बातें भी देश को वैश्विक सेमीकंडक्टर वैल्यू चेन का अहम हिस्सा बनाने के भारत सरकार के विज़न को साकार करने में महत्वपूर्ण योगदान देगी .

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[1] This piece is adapted from a section of the author’s co-written paper, Cutting-Edge Technologies in DevelopingEconomies: The Case of India’s Semiconductor Industry, Stanford University (May 2023)

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