पिछले शनिवार यानी 23 नवंबर को देश की राजधानी दिल्ली में सैकड़ों छात्र और अध्यापक सड़कों पर उतर आये थे. ये सभी लोग दिल्ली की जवाहर लाल नेहरू यूनिवर्सिटी से थे. इनके समर्थन में कई अन्य विश्वविद्यालयों और दिल्ली के शिक्षण संस्थानों के छात्र भी आये हुए थे. इन छात्रों ने दिल्ली के मंडी हाउस से जंतर मंतर तक अपना विरोध प्रदर्शन निकाला. छात्रों के इस विरोध प्रदर्शन की वजह थी, ड्राफ़्ट हॉस्टल मैन्युअल, जिसके तहत हॉस्टल की फ़ीस में बेतहाशा बढ़ोत्तरी, ड्रेस कोड और हॉस्टल बंदी के नए नियमों का प्रस्ताव है.
छात्रों के इस आंदोलन की अगुवाई जेएनयू छात्र संघ कर रहा है. छात्रों की मांग है कि प्रस्तावित हॉस्टल मैन्युअल पूरी तरह वापस लिया जाए. वहीं, जेएनयू प्रशासन का तर्क ये है कि यूनिवर्सिटी की फ़ीस और हॉस्टल की फ़ीस में पिछले 17 सालों से कोई बदलाव नहीं किया गया है. लेकिन, छात्रों का कहना है कि जेएनयू में पढ़ने वाले 40 प्रतिशत छात्र कम आमदनी वाले परिवारों से ताल्लुक़ रखते हैं. वो फ़ीस में इतनी भारी बढ़ोत्तरी का बोझ नहीं उठा सकते.
हॉस्टल के नए चार्ज के मुताबिक़ छात्रों को हर महीने 1700 रुपए सर्विस चार्ज देना पड़ेगा. पहले ये नहीं लगता था. हॉस्टल के एक कमरे का किराया 20 रुपए से बढ़ाकर 600 रुपए प्रति महीने कर दिया गया है. साझा डबल रूम का किराया 10 रुपए से बढ़ा कर 300 रुपए महीने करने का प्रस्ताव है.
समाज के आम तबक़े के लोगों और कई राजनीतिक दलों के छात्र संगठनों ने जेएनयू के छात्रों के विरोध का समर्थन किया. इस के अलावा आम नागरिकों के एक बड़े तबक़े ने भी जेएनयू के छात्रों के साथ सहानुभूति जताई. जेएनयू के छात्र पिछले तीन हफ़्ते से विरोध प्रदर्शन कर रहे हैं. देश के अन्य शहरों में भी, जेएनयू के संघर्षरत छात्रों के समर्थन में विरोध प्रदर्शन आयोजित किए गए हैं.
वैसे तो जेएनयू के छात्रों के मौजूदा संघर्ष का सीधा ताल्लुक़ प्रस्तावित हॉस्टल मैन्युअल से है. लेकिन, जेएनयू के छात्रों और सरकार के बीच संघर्ष लंबे समय से छिड़ा हुआ है. ख़ास तौर से जब से 2014 में मौजूदा सरकार सत्ता में आई है.
छात्रों की नाराज़गी पक्के तौर पर फ़रवरी 2016 में उस वक़्त सामने आई थी, जब जेएनयू के छात्रों ने संसद पर हमले के मुज़रिम अफ़ज़ल गुरू को 2013 में फ़ांसी दिए जाने के ख़िलाफ़ एक कार्यक्रम आयोजित किया था. इस दौरान विश्वविद्यालय के छात्रों ने सरकार पर आरोप लगाया कि उस ने ‘अफ़ज़ल गुरू की न्यायिक हत्या’ की है. अफ़ज़ल गुरू के समर्थन में एक विरोध प्रदर्शन भी निकाला गया. इसका मक़सद कश्मीर से ताल्लुक़ रखने वाले शरणार्थियों के संघर्ष को भी उजागर करना था.
आरएसएस के समर्थन वाला छात्र संगठन, अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद् जेएनयू में अपना दायरा बढ़ाने में जुटा हुआ है. अफ़ज़ल गुरू के समर्थन में जेएनयू के छात्रों के विरोध प्रदर्शन के ख़िलाफ़ एबीवीपी ने भी एक प्रदर्शन निकाला और यूनिवर्सिटी प्रशासन से अफ़ज़ल गुरू के समर्थन में रैली करने वाले छात्रों को यूनिवर्सिटी से निकालने की मांग की. आरोप लगाए गए कि अफ़ज़ल गुरू के समर्थन में हुए कार्यक्रम के दौरान भारत विरोधी नारे लगाए गए. इस घटना से पूरे देश में राष्ट्रवाद पर एक व्यापक बहस छिड़ गई. इस के बाद से ही मीडिया के एक तबक़े ने जेएनयू को राष्ट्रविरोधी ताक़तों के अड्डे के तौर पर पेश करना शुरू कर दिया.
जेएनयू और दूसरे अकादमिक संस्थानों के इर्द-गिर्द छिड़ा ये संघर्ष एक व्यापक मसले का भी है. युवाओं की विचार प्रक्रिया के निर्माण में शिक्षा के योगदान के महत्व से इनकार नहीं किया जा सकता है.
जेएनयू छात्र संघ के अध्यक्ष कन्हैया कुमार के ख़िलाफ़ देशद्रोह का केस दर्ज कर लिया गया. उमर ख़ालिद जैसे अन्य छात्र नेताओं के ख़िलाफ़ भी अलग-अलग मामलों में मुक़दमे दर्ज कर लिए गए. जेएनयू और दूसरे अकादमिक संस्थानों के इर्द-गिर्द छिड़ा ये संघर्ष एक व्यापक मसले का भी है. युवाओं की विचार प्रक्रिया के निर्माण में शिक्षा के योगदान के महत्व से इनकार नहीं किया जा सकता है. इसीलिए मौजूदा सरकार चाहती है कि युवा मानस के विचारों को ढालने में उसका अहम रोल हो.
सत्ता में आने के बाद से ही मोदी सरकार ने देश की शिक्षा व्यवस्था में कई बुनियादी बदलाव लाने वाले क़दम उठाए हैं. मोदी सरकार का ज़ोर ख़ास तौर से उच्च शिक्षण संस्थानों पर रहा है. इसका नतीजा ये हुआ है कि विश्वविद्यालयों और अन्य शिक्षण संस्थानों में उठा-पटक और संघर्ष छिड़ा हुआ है. इससे उच्च शिक्षण संस्थानों के कैम्पस का सौहार्द भी ख़त्म हो गया है. विश्वविद्यालय अनुदान आयोग यानी यूजीसी के बजट में क़रीब 55 प्रतिशत की कमी कर दी गई है. इसकी वजह से शिक्षण संस्थानों में होने वाले सेमिनार और रिसर्च प्रोजेक्ट पर बुरा असर पड़ा है.
आज केंद्रीय विश्वविद्यालयों में 60 फ़ीसद शैक्षणिक पद ख़ाली पड़े हैं. इनके अलावा, 40 फ़ीसद गैर- अकादमिक पदों पर रिक्तिया हैं. इन्हें भरने के लिए कोई क़दम नहीं उठाए जा रहे हैं.
जेएनयू के साथ साथ बीएचयू, अलीगढ़ मुस्लिम यूनिवर्सिटी और दिल्ली विश्वविद्यालय जैसे संस्थानों के कैंपस में उथल पुथल मची हुई है. उच्च शिक्षा के फंड में भी भारी कटौती की गई है. आज केंद्रीय विश्वविद्यालयों में 60 फ़ीसद शैक्षणिक पद ख़ाली पड़े हैं. इनके अलावा, 40 फ़ीसद गैर- अकादमिक पदों पर रिक्तिया हैं. इन्हें भरने के लिए कोई क़दम नहीं उठाए जा रहे हैं.
सरकार ने हायर एजुकेशन कमीशन ऑफ इंडिया के नाम से एक नया संगठन बनाने का बिल 2018 में संसद में पेश किया था. इसके माध्यम से केंद्र सरकार विश्वविद्यालयों के नियमन में यूजीसी के रोल को ख़त्म करना चाहती है. ताकि शिक्षा क्षेत्र सरकार के नियंत्रण से आज़ाद हो जाए. अगर ये प्रस्तावित बिल संसद के दोनों सदनों से पास हो जाता है और क़ानून बन जाता है, तो 1956 के यूजीसी एक्ट का अस्तित्व ख़त्म हो जाएगा. अकादमिक समुदाय के बीच इस प्रस्तावित क़ानून को लेकर तरह तरह की आशंकाएं हैं. उन्हें लगता है कि इस बिल के क़ानून बनने की सूरत में देश की शिक्षा व्यवस्था का मूल स्वरूप ही बदल जाएगा.
जेएनयू में छिड़े इस मौजूदा संघर्ष को समाज के एक बड़े तबक़े से समर्थन मिल रहा है. इस संघर्ष को उच्च शिक्षा में बदलाव की कोशिश में जुटी सरकार के साथ टकराव के व्यापक संदर्भ में देखे जाने की ज़रूरत है. क्योंकि जेएनयू के प्रशासनिक मामलों में सत्ता पक्ष का हस्तक्षेप साफ़ तौर से दिखता है. तभी तो जेएनयू का प्रशासन आंदोलनकारी छात्रों से बात तक करने को तैयार नहीं है. न ही वो प्रस्तावित हॉस्टल मैन्युअल को लेकर छात्रों से समझौता वार्ता का इच्छुक है.
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