दुनिया के तमाम देशों के मुक़ाबले भारत की आर्थिक प्रगति राष्ट्रीय उत्सव का कारक रही है. इस दौर में संसार के ज़्यादातर राष्ट्र आर्थिक तरक़्क़ी के लिए भारी जद्दोजहद कर रहे हैं. वो मंदी के हालात टालने या आर्थिक सुस्ती से जूझने की जीतोड़ कोशिशें कर रहे हैं. ऐसे में भारत, विकास की दौड़ में निरंतर आगे बढ़ता दिखाई दे रहा है. यहां की आर्थिक विकास दर दुनिया के उच्चतम स्तरों पर है. यक़ीनन भारत के बड़े शहरों और महानगरों ने राष्ट्रीय अर्थव्यवस्था में ज़बरदस्त योगदान दिया है. ऐसे हज़ारों शहरी रिहाइशों में राष्ट्रीय जनसंख्या का तक़रीबन एक तिहाई हिस्सा निवास करता है. हालांकि, भारत के बड़े शहरों में देश की आबादी के हिसाब से अनुपात से बड़े हिस्से की रिहाइश है. भारत के नगरीय विस्तार का राष्ट्रीय जीडीपी में 60 प्रतिशतयोगदान है, जिसका एक बड़ा हिस्सा इन्हीं महानगरों से आता है. ऐसे विशाल नगरों की तादाद लगातार बढ़ती जा रही है, जो देश के लिए शुभ संकेत है. 10 लाख से ज़्यादा आबादी की रिहाइश वाली शहरी इकाइयां बढ़ती जा रही हैं. ज़ाहिर है आने वाले वक़्त में राष्ट्रीय धन का पहले से कहीं बड़ा हिस्सा इन्हीं शहरों से उत्पन्न होगा.
नगरीय क्षेत्र दुनिया भर में राष्ट्रीय आर्थिक विकास के एक बड़े हिस्से को गति प्रदान करते हैं. दुनिया भर के देशों के बड़े शहरों का राष्ट्रीय जीडीपी के निर्माण में प्रमुख हिस्सा है.
ये बदलाव कोई अपवाद नहीं, बल्कि एक वैश्विक रुझान है. नगरीय क्षेत्र दुनिया भर में राष्ट्रीय आर्थिक विकास के एक बड़े हिस्से को गति प्रदान करते हैं. दुनिया भर के देशों के बड़े शहरों का राष्ट्रीय जीडीपी के निर्माण में प्रमुख हिस्सा है. शहरी क्षेत्रों में टोक्यो की जीडीपी दुनिया में सबसे ज़्यादा है. इस शहर का जापान के कुल क्षेत्रफल में हिस्सा महज़ 0.6 प्रतिशत है जबकि देश की कुल जीडीपी में ये 21 प्रतिशत का योगदान देता है. चीन का प्रमुख शहर शंघाई, राष्ट्रीय जीडीपी में तक़रीबन 5 प्रतिशत का योगदान देता है, हालांकि चीन के कुल क्षेत्रफल में इसका हिस्सा महज़ 0.1 प्रतिशत है. अमेरिका का सबसे बड़ा शहर न्यूयॉर्क देश के कुल भूक्षेत्र का 1 प्रतिशत है, लेकिन राष्ट्रीय जीडीपी के 8 प्रतिशत हिस्से का उत्पादन यहीं होता है. यूनाइटेड किंगडम के कुल क्षेत्रफल में ग्रेटर लंदन का हिस्सा क़रीब 0.6 प्रतिशत है, लेकिन ये शहर यूके की अर्थव्यवस्था में 23 प्रतिशत का योगदान देता है. इसी तरह भारत का सबसे बड़ा शहर मुंबई देश के कुल भूक्षेत्र का 0.01 प्रतिशत हिस्सा है, लेकिन राष्ट्रीय जीडीपी के 6.6 प्रतिशत हिस्से का निर्माण यहीं होता है.
हालांकि भारत के बड़े शहरों और महानगरों में धन के इस उत्पादन से इनमें से किसी भी इलाक़े में जीवन की गुणवत्ता के उभार में कोई योगदान नहीं हुआ है. 2022 में रहने योग्य अच्छे शहरों के सूचकांक में भारत के पांच मेगा शहरों को स्थान मिला है. इकोनॉमिक इंटेलिजेंस यूनिट (EIU) दुनिया भर के 173 शहरों में सालाना सूची निर्माण की इस क़वायद को अंजाम देता है. भारत के तमाम शहरों को इसमें काफ़ी निचले पायदान मिलते रहे हैं. देश की राजधानी दिल्ली को 140वीं रैंक मिली. इसके बाद मुंबई को 141वीं रैंक, जबकि चेन्नई और अहमदाबाद को क्रमश: 142वीं और 143वीं रैंकिंग हासिल हुई. भारत के तमाम महानगरों में बेंगलुरु का प्रदर्शन सबसे ख़राब रहा. भारत की IT राजधानी के तौर पर मशहूर इस शहर को 146वीं रैंक हासिल हुआ. ये सूचकांक मोटे तौर पर 5 मुख्य कारकों पर निर्भर करता है: राजनीतिक स्थायित्व, स्वास्थ्य सेवा, संस्कृति और पर्यावरण, बुनियादी ढांचा और शिक्षा. बुनियादी ढांचे में तमाम तरह की सेवाएं शामिल हैं, जिनमें सड़कें, सार्वजनिक परिवहन, अंतरराष्ट्रीय संपर्क, ऊर्जा और संचार के प्रावधान, पानी और आवास शामिल हैं.
जीवन की गुणवत्ता
संयोगवश आवास और शहरी मामलों के मंत्रालय (MoHUA) ने भी ईज़ ऑफ़ लिविंग इंडेक्स (EoLI), 2022 के नाम से एक सर्वेक्षण किया. इसका मक़सद देश भर के 111 प्रतिभागी शहरों की एक समग्र तस्वीर पेश करना था. इसके लिए जीवन की गुणवत्ता, आर्थिक क्षमता, टिकाऊ तौर-तरीक़े और लचीलेपन को आधार बनाया गया. जीवन की गुणवत्ता मापने के लिए कई पैमानों का प्रयोग किया गया. इनमें सस्ती रिहाइश, स्वच्छ जल तक पहुंच, बुनियादी शिक्षा, सस्ती स्वास्थ्य सुविधा, संरक्षा और सुरक्षा, स्वच्छता, ठोस अपशिष्ट प्रबंधन और मनोरंजन के साधनों तक पहुंच शामिल हैं. किसी शहर के टिकाऊपन के आकलन के लिए भी कई मानदंडों को प्रयोग में लाया गया. इनमें हरित घटक, ऊर्जा उपभोग और उसमें कटौती के लिए उठाए गए क़दम, हरित इमारतों और दायरों का प्रोत्साहन, वायु और जल की गुणवत्ता और प्राकृतिक आपदाएं झेल पाने की क़ाबिलियत शामिल हैं.
जीवन की गुणवत्ता मापने के लिए कई पैमानों का प्रयोग किया गया. इनमें सस्ती रिहाइश, स्वच्छ जल तक पहुंच, बुनियादी शिक्षा, सस्ती स्वास्थ्य सुविधा, संरक्षा और सुरक्षा, स्वच्छता, ठोस अपशिष्ट प्रबंधन और मनोरंजन के साधनों तक पहुंच शामिल हैं.
EoLI में बेंगलुरु शीर्ष पर है, जिसे 100 में से 66.70 अंक हासिल हुए हैं. इसके बाद पुणे, अहमदाबाद, चेन्नई, सूरत, नवी मुंबई, कोयंबटूर, वडोदरा, इंदौर और ग्रेटर मुंबई का क्रम आता है. इस सूची में दिल्ली को 13वीं रैंक हासिल हुई है. शीर्ष के 10 नगरों को 57.56 से लेकर 66.70 के बीच के अंक प्राप्त हुए हैं, जबकि राष्ट्रीय औसत इसके काफ़ी नीचे है. ग़ौरतलब है कि वैश्विक रैंकिंग में बेंगलुरु को भारतीय शहरों के बीच निचला दर्जा हासिल हुआ जबकि राष्ट्रीय रैंकिंग में बेंगलुरु को सबसे ऊपर की रैंकिंग दी गई है. इससे ज़ाहिर है कि इनके नतीजे संकेतकों और रैंकिंग तय करने के लिए प्रयोग में लाए गए तंत्र पर आधारित हैं. लिहाज़ा भले ही इनसे शहरों और उनके दर्जों के बारे में मोटी-मोटी समझ हासिल होती है, लेकिन भरोसेमंद जानकारी जुटाने के लिए (ख़ासतौर से जीवन की गुणवत्ता के संदर्भ में) अन्य मानदंडों और घटनाक्रमों पर भी ग़ौर करना ज़रूरी हो जाता है.
इस लेख में शहरी रिहाइशों की आर्थिक तस्वीर पर ग़ौर नहीं किया गया है. बेशक अर्थव्यवस्था नगरों के अस्तित्व की वजह होती हैं, लेकिन वहां के जीवन की गुणवत्ता भी समान रूप से अहम है. ख़ासतौर से उनकी उत्पादकता, आकर्षण, स्वास्थ्य और सेहतमंदी के संदर्भ में ये बेहद महत्वपूर्ण हैं. दरअसल इस लेख में इस बिंदु पर ज़ोर दिया गया है कि शहरों के आर्थिक उभार से वहां जीवन की गुणवत्ता में भी उछाल आनी चाहिए. बदक़िस्मती से ऐसे पर्याप्त संकेत हैं कि भारत की ठोस शहरी आर्थिक उत्पादकता नगरों में निवास के रूप से बेहतर व्यवस्थाओं में परिवर्तित नहीं हो पा रही है.
बहरहाल, हम EoLI द्वारा प्रयोग में लाए गए संकेतकों में से कुछ मापदंडों का चयन करते हैं- सस्ते आवास, ट्रैफ़िक की भीड़भाड़, हवा की गुणवत्ता और किसी शहर की प्राकृतिक आपदाएं झेल पाने की क्षमता. सभी बड़े नगरों में सस्ते आवास के हालात (बिना किसी अपवाद के) त्रासदीपूर्ण हैं. ड्राफ़्ट दिल्ली मास्टर प्लान 2041 में इसकी झलक मिलती है, जिसके आकलन के मुताबिक 85 प्रतिशत निवासियों के पास नियमित रिहाइश का ख़र्च उठाने की क्षमता नहीं है. ये लोग अनधिकृत बस्तियों में रहते हैं. किराए के सस्ते आवासों की भी ऐसी ही किल्लत है. भारत के नगरों में हवा की गुणवत्ता में गिरावट आ रही है. वायु गुणवत्ता की माप और सांस से जुड़ी बीमारियों में बढ़ोतरी से ये बातें रेखांकित होती हैं. हर साल जलवायु परिवर्तन से तक़रीबन सभी बड़े शहरों में बाढ़ के हालात बन जाते हैं और ऐसा लगता है कि देश का कोई भी शहर प्रभावी रूप से इनसे निपटने के लिए तैयार नहीं है.
दबाव में संस्थायें
शहर में जीवन की गुणवत्ता से जुड़ी ज़्यादातर जानकारियां शहरी स्थानीय निकायों (ULBs) द्वारा मुहैया करवाई जाती हैं. कुछ शहरों में सहायक संस्थाएं (parastatals) भी इस तरह की सूचनाएं साझा करती हैं. बहरहाल, शहरों की दौलत में भारी बढ़ोतरी के बावजूद स्थानीय निकायों और सहायक संस्थाओं के राजस्व में बेहद मामूली वृद्धि हुई है, जबकि इन्हीं संस्थाओं के कंधों पर नागरिकों तक अनेक सेवाएं पहुंचाने की ज़िम्मेदारी होती है. GST और आयकर राजस्व से भारत सरकार द्वारा राष्ट्रीय कर संग्रहण में ज़बरदस्त बढ़ोतरी की झलक मिलती है. इस राजस्व को आगे चलकर राज्यों के साथ साझा किया जाता है. बहरहाल राष्ट्रीय जीडीपी के प्रतिशत के तौर पर शहरी निकायों का हिस्सा गिरता जा रहा है. ज़ाहिर है कि राजस्व में बढ़ोतरी के पूरे परिदृश्य में शहरी निकाय काफ़ी पीछे छूट गए हैं. यही वजह है कि ज़्यादातर शहर बॉन्ड बाज़ार की शरण नहीं ले सकते क्योंकि ऋण जुटाने के लिए वो अच्छी क्रेडिट रेटिंग हासिल करने में सक्षम नहीं हो सकेंगे.
आर्थिक उत्पादकता के स्तर में बढ़ोतरी से कई नागरिकों (प्राथमिक रूप से मध्यम वर्ग) के हाथों में उपभोग के लिए और धन आ जाता है. ऐसे में शहरी निकायों से गुणवत्तापूर्ण सेवाएं मुहैया कराने को लेकर इन वर्गों की उम्मीदें और बढ़ जाती है.
अफ़सोस की बात है कि अर्थव्यवस्था में उभार से जीवन की गुणवत्ता मुहैया कराने वाली इन संस्थाओं पर और ज़्यादा दबाव बन जाता है. आर्थिक उत्पादकता के स्तर में बढ़ोतरी से कई नागरिकों (प्राथमिक रूप से मध्यम वर्ग) के हाथों में उपभोग के लिए और धन आ जाता है. ऐसे में शहरी निकायों से गुणवत्तापूर्ण सेवाएं मुहैया कराने को लेकर इन वर्गों की उम्मीदें और बढ़ जाती है. हाथों में व्यय-योग्य आय (disposable income) बढ़ जाने से ऐसे संभ्रांत नागरिकों द्वारा एकदम नई-नई सेवाओं की मांग शुरू हो जाती है. वो बेहतर सड़कों, पार्किंग के लिए ज़्यादा जगहों, पहले से अधिक पैकेज़्ड खाद्य सामग्रियों और मनोरंजन के लिए ज़्यादा अवसरों और स्थानों की मांग करने लगते हैं. ऐसी बुनियादी सेवाओं के लिए ज़्यादा धन की दरकार होती है. बहरहाल, अपने नाकाफ़ी राजस्व आधार के चलते नगरों की सरकारें इनमें से कोई भी मांग पूरी कर पाने में नाकाम रहते हैं. साफ़ है कि तेज़ी से बढ़ती अर्थव्यवस्था समृद्ध नागरिक और निर्धन शहरी निकायों को जन्म देती है.
शहरी क्षेत्रों में ट्रैफ़िक के भीड़भाड़ की माप करने वाली जियोलोकेशन टेक्नोलॉजी क्षेत्र की विशेषज्ञ अगुआ इकाई TomTom इस हालात को बेहतरीन ढंग से प्रस्तुत करती है. 2021 में इसने बेंगलुरु शहर को विश्व का 10वां सबसे भीड़भाड़ वाला शहर बताया था. 2022 में ये नगर इस सूची में दूसरे पायदान पर पहुंच गया. साथ ही पुणे भी विश्व के सबसे भीड़भाड़ वाले शहरों की सूची में पहली बार शुमार हो गया, जिसे दुनिया में छठा पायदान हासिल हुआ. ट्रैफ़िक के व्यस्त समय में इन 2 शहरों में वाहनों की औसत रफ़्तार क्रमश: 18 और 19 किमी प्रति घंटा पाई गई. 24 किमी प्रति घंटा की औसत रफ़्तार के साथ नई दिल्ली और मुंबई भी ज़्यादा पीछे नहीं हैं.
साफ़ है कि राष्ट्रीय स्तर पर आर्थिक तरक़्क़ी से शहरों में निवास के योग्य परिस्थितियों में काफ़ी कम योगदान दिखाई देता है. कुछ बुनियादी सिद्धांतों पर तवज्जो दिए जाने से इन शहरों में निवास योग्य कारकों को ऊंचा उठाने में मदद मिल सकती है. निश्चित रूप से सरकारों को सस्ती रिहाइश पर ध्यान देना चाहिए. अगर हमारी आधी आबादी अनधिकृत बस्तियों में गुज़ारा करने को मजबूर हो तो हम निवास योग्य परिस्थितियों पर परिचर्चा को आगे नहीं बढ़ा सकते. ट्रैफ़िक की बढ़ती भीड़भाड़ का उत्पादकता, पर्यावरण और स्वास्थ्य पर भारी नकारात्मक प्रभाव पड़ता है. सार्वजनिक परिवहन पर लगातार तवज्जो दिया जा रहा है. हालांकि व्यवस्थित रूप से और पहले से ज़्यादा ऊंचे स्तर पर पार्किंग के प्रावधान किए जाने की सख़्त ज़रूरत है. अहम बात ये है कि बड़े नगरों में पार्किंग की उपलब्धता के आधार पर वाहनों के आगमन से जुड़े फ़ैसले को अब आगे और नहीं टाला जा सकता. बड़े महानगरों में आबादी का घनत्व ग़ैर-टिकाऊ रूप से बढ़ रहा है, जिससे पर्यावरण और जलवायु के मोर्चे पर लचीलेपन के लिए समस्याएं पैदा हो रही हैं. शहरी घनत्व पर लगाम लगाने की नीति पर तत्काल चर्चा होनी चाहिए. हालांकि, सबसे अहम बात ये है कि शहरों के पास पर्याप्त कोष होना चाहिए ताकि उनके कंधों पर विशाल और बिना कोष वाली ज़िम्मेदारियां ना रहें.
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