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साल 1998 में अक्टूबर महीने में जमात-ए-इस्लामी (जेआई)– पाकिस्तान में राजनीतिक इस्लाम का अगुवा संगठन– के तत्कालीन अमीर काज़ी हुसैन अहमद ने पहली बार पाकिस्तानी सेना पर उंगली उठाने की हिम्मत की और कहा आर्मी चीफ़ कोर कमांडर नहीं, बल्कि ‘करोड़ कमांडर’ हैं. जमात-ए-इस्लामी प्रमुख का ये व्यंग्यात्मक संबोधन सेना के सबसे ताक़तवर अफ़सरों द्वारा पाकिस्तानी सरकार, समाज और अर्थव्यवस्था पर कब्ज़े की सारगर्भित व्याख्या करता है.‘करोड़ कमांडर’ शब्द पाकिस्तान में काफी जाना-पहचाना है, लेकिन इसका इस्तेमाल आमतौर पर सिर्फ़ बंद दरवाज़ों के पीछे दबी ज़ुबान में किया जाता था. अख़बारों में पाकिस्तानी सेना के शीर्ष अधिकारियों के बारे में किसी ने एक ही बार इस शब्द का इस्तेमाल किया. दो दशक बाद भी शायद ही कुछ बदला है.
एक घोटाला जो अख़बारों और टीवी चर्चाओं में सबसे ज्यादा दिखना जाना चाहिए था, इसके नदारद रहने से गहरी साज़िश की बू आती है, इसे इस तरह छिपा दिया गया मानो कुछ हुआ ही न हो. अगर कहीं इसकी चर्चा की जा रही है, तो सिर्फ़ सोशल मीडिया और ऑनलाइन प्लेटफ़ॉर्म पर है,
क़्वेटा के पूर्व कोर कमांडर और चाइना-पाकिस्तान इकोनॉमिक कॉरिडोर (सीपीईसी) प्राधिकरण के मौजूदा चेयरमैन लेफ्टिनेंट जनरल आसिम बाजवा के क़रीबी पारिवारिक सदस्य – पत्नी और बेटे – की हाल ही में उजागर हुई अघोषित और अथाह संपत्ति को पूरे पाकिस्तान की मुख्य़धारा की मीडिया से एकदम ग़ायब कर दिया गया. एक घोटाला जो अख़बारों और टीवी चर्चाओं में सबसे ज्यादा दिखना जाना चाहिए था, इसके नदारद रहने से गहरी साज़िश की बू आती है, इसे इस तरह छिपा दिया गया मानो कुछ हुआ ही न हो. अगर कहीं इसकी चर्चा की जा रही है, तो सिर्फ़ सोशल मीडिया और ऑनलाइन प्लेटफ़ॉर्म पर है, और यहां तक कि ‘डीप स्टेट’ (सत्ता से इतर सत्ता के प्रतिष्ठान) सोशल मीडिया हैंडल और वेबसाइट्स को, जहां इसकी चर्चा हो रही है, ब्लॉक करने के लिए हर मुमकिन कोशिश कर रहा है. बाजवा और उनके परिवार की प्रतिक्रिया, सरकार में फौज की हर कार्रवाई के समर्थक और पैरोकार, और फ़ौज की ट्रोल भीड़ बता रही है – बाजवा के पाकिस्तान के बिगड़ते राजनीतिक हालात में योगदान के बारे में जब वह इंटर-सर्विसेज़ पब्लिक रिलेशन (आईएसपीआर) के महानिदेशक थे – ज़ाहिर है तयशुदा लाइन के साथ.
बाजवा ने इसे एक “दुर्भावनापूर्ण प्रोपेगेंडा स्टोरी” करार दिया और सचमुच इसका खंडन किए बिना इसका “मज़बूती से खंडन” किया. विदेश मंत्री शाह महमूद क़ुरैशी ने, जो खुद को सेना की जी-हुज़ूरी करते हुए दिखाने जी-तोड़ कोशिश में लगे हैं, स्टोरी की प्रामाणिकता पर सवाल उठा दिया. कुरैशी ने बेहद अजीब तरीके से दावा किया कि ख़बर बिना किसी पुष्टि किए बनाई गई है, हालांकि जिन पत्रकारों ने बाजवा के कारोबार की पड़ताल की थी, उन्होंने अपनी ख़बर की पुष्टि करने वाले दस्तावेज़ी सबूत पेश किए. और फिर ट्रोल आर्मी के सदस्यों ने फ़ौरन इसे सीपीईसी ऑपरेशन के ख़िलाफ़ साज़िश करार दे दिया और इसके पीछे रॉ (रॉ एंड एनालिसिस विंग) का हाथ बताया, वैसे बाजवा के बेटे ने भी यही मुद्दा उठाया था. हालांकि किसी ने भी बाजवा के खिलाफ़ दस्तावेज़ी सबूतों या प्रधानमंत्री के विशेष सहायक के रूप में नियुक्ति के समय बाजवा और उनकी पत्नी की संपत्तियों की गलत जानकारी देने का खंडन नहीं किया. कमोबेश राष्ट्रपति, प्रधानमंत्री, कैबिनेट मंत्री, वरिष्ठ सरकारी अफ़सरों समेत शीर्ष राजनेताओं को अयोग्य घोषित किया और यहां तक कि उनको जेल भी हो चुकी है, लेकिन बाजवा का कुछ नहीं हुआ.
मौजूदा विवाद में पाखंड इस हद तक है कि विपक्ष द्वारा एक को चुनने-एक को छोड़ देने का आरोप लगाने के बाद सरकार हरकत में आई, लेकिन सरकार का अपने घोटाले के मामले में बेहद संरक्षात्मक चरित्र संदिग्ध है, जो पाकिस्तान में एक खुला राज़ है.
यह ढंकना-छिपाना यह एक ऐसी सरकार के मातहत हो रहा है, जो बज़ाहिर सरकार की जवाबदेही की हिमायती और भ्रष्टाचार पर हमलावर है, और इमरान ख़ान के ‘रियासत-ए-मदीना’ मॉडल पर भरपूर ज़ुबानी जमा-ख़र्च करती है. मौजूदा विवाद में पाखंड इस हद तक है कि विपक्ष द्वारा एक को चुनने-एक को छोड़ देने का आरोप लगाने के बाद सरकार हरकत में आई, लेकिन सरकार का अपने घोटाले के मामले में बेहद संरक्षात्मक चरित्र संदिग्ध है, जो पाकिस्तान में एक खुला राज़ है. ज़ाहिर है कि, इमरान ख़ान के लिए भ्रष्टाचार अपने विरोधियों को परेशान करने और राजनीतिक मैदान को साफ करने का साधन मात्र है, ताकि वह अनंतकाल तक शासन कर सकें.
लेकिन आसिम बाजवा कांड जितना चुनिंदा जवाबदेही के बारे में बताता है उतना ही पाकिस्तान की सेना के शीर्ष अफ़सरों में मौजूदा सड़ांध की बानगी पेश करता है, जो पाकिस्तान में ना सिर्फ सबसे बड़ा और सबसे शक्तिशाली राजनीतिक दल है, बल्कि हक़ीक़त में देश का सबसे बड़ा कारोबारी कंपनियों का समूह और ज़मींदार है. ज़्यादातर मामलों में, घोटालों में शामिल सेवारत और सेवानिवृत्त दोनों तरह के शीर्ष सैन्य अधिकारियों के शामिल होने पर मामला दबा दिया जाता है. हर कोई जानता है कि क्या हुआ और किसने किया, लेकिन कोई यह बात खुलकर या सार्वजनिक रूप से नहीं बोलता. फिर भी, अक्सर कोई न कोई घोटाला बाहर निकल आता है और आम हो जाता है. तब भी असल में कोई कार्रवाई नहीं की जाती, जब तक कि इसमें शामिल अफ़सर पसंदीदा नहीं रह जाता या घोटाले को छिपाना मुश्किल नहीं हो जाता है.
बीते दो दशकों में पाकिस्तानी सेना की फूड चेन के शीर्ष पर बैठे लोगों से जुड़े कई गंभीर घोटाले हुए हैं. इन घोटालों से जो इशारा मिलता है वह यह है कि पाकिस्तान के वैचारिक और भौगोलिक सरहदों के संरक्षक होने के अपने सारे ढोंग के बावजूद, टेफ्लॉन कोटेड वर्दी में तने शूरवीर भ्रष्टाचार और घोटाले में गले तक डूबे हैं और पाकिस्तानी सेना के अफ़सर सरकारी पैसा चुराने में अपने नागरिक समकक्षों जैसे ही बेईमान हैं. फ़र्क सिर्फ़ इतना है कि जहां नागरिक अफसरों को मामूली बेईमानी के लिए भी धर लिया जाता है, वहीं सेना के अफ़सर ऐसी किसी भी कार्रवाई से महफ़ूज़ हैं. सेना के सेवारत और सेवानिवृत्त जनरल विदेशी सरकारों से पैसे लेने, विदेशी कंपनियों में नौकरी करने, उनके रुतबे का इस्तेमाल करने के लिए स्थानीय कारोबारियों द्वारा अपने यहां नौकरी देने, संदिग्ध सौदे करने में अपने परिवार के सदस्यों की मदद करने, ख़ासकर संदिग्ध कारोबारियों के कारोबारी सौदों में अपने प्रभाव का इस्तेमाल करने, बलूचिस्तान जैसे अशांत क्षेत्रों में ज़माने से चले आ रहे उगाही और संरक्षण के रैकेट से मिलीभगत रखने, रक्षा सौदों (यहां तक कि चीनियों से भी) में कमीशन खाने में शामिल रहे हैं.
पूर्व सैन्य तानाशाह जनरल परवेज़ मुशर्रफ़ ने दुबई और लंदन में अपार्टमेंट खरीदने के लिए सऊदी अरब के शाह से लाखों डॉलर लिए. एक और पूर्व सेना प्रमुख परवेज़ कियानी पर आरोप है कि जब वह पद पर थे, तब अपने भाइयों के संदिग्ध ज़मीन के सौदों में उनका बचाव किया था. अपनी किताब “बैटिल फॉर पाकिस्तान” में लेखक शुजा नवाज़ ने कियानी के बारे में विशाल रियल एस्टेट पोर्टफ़ोलियो बनाने की अफवाहों का ज़िक्र किया है. कियानी के उत्तराधिकारी राहील शरीफ़ को भारत की सीमा के पास 90 एकड़ बेशकीमती खेत आवंटित किए गए जिसकी क़ीमत पाकिस्तान मुद्रा में 200 से 400 करोड़ रुपये के बीच थी. हालांकि इस भूमि हस्तांतरण पर सांसदों ने सवाल उठाए, लेकिन यह प्रक्रिया के तहत होने की सफाई देकर सेना ने इसका बचाव किया. राहील नौकरी से सेवानिवृत्ति के बाद सऊदी अरब में नई बनी अंतरराष्ट्रीय सेना के प्रमुख बने, जिस पर पाकिस्तान में त्योरी चढ़ाई गई.
पूर्व आईएसआई चीफ़ और ‘महा राष्ट्रभक्त’ अहमद शुजा पाशा ने रिटायरमेंट के बाद दुबई में नौकरी की और सुप्रीम कोर्ट द्वारा सवाल उठाए जाने के बाद कि वह और राहील सरकारी मंज़ूरी के बिना ये नौकरियां कैसे कर सकते हैं, इसके लिए उन्हें एक्स-पोस्ट फैक्टो (बाद की तारीख़ में पहले लागू) मंज़ूरी मिली. पाशा ने बाद में राजनीतिक रूप से सक्रिय एक स्थानीय कारोबारी के यहां एक और काम स्वीकार किया. वस्तुतः देश के लगभग हर क्षेत्र में पाकिस्तानी सेना के दमदार असर को देखते हुए, देश में कारोबारियों ने समझ लिया है कि मोटी तनख़्वाहों पर जनरलों को नौकरी पर रखना काम की मंजूरी हासिल करना, प्रतिद्वंद्वियों और यहां तक कि ग्राहकों को भी धौंस-पट्टी में रखने का सबसे कारगर तरीका है. दिग्गज रियल एस्टेट कारोबारी मलिक रियाज़ जो दावा करते हैं कि उन्हें पता है कि नौकरशाहों के मकड़जाल से निकलने के लिए फाइलों में कैसे पहिये लगाए जाते हैं, शायद इसकी सबसे अच्छा बानगी हैं कि पाकिस्तानी कारोबारियों द्वारा किस तरह सेवानिवृत्त जनरलों की सेवाओं का इस्तेमाल किया जाता है. उन्होंने अपने कारोबारी हितों को आगे बढ़ाने के लिए हाई प्रोफाइल सेवानिवृत्त अफ़सरों के अलावा पूर्व आईएसआई अधिकारियों और आईएसपीआर प्रमुख को काम पर रखा है.
सेवानिवृत्ति के बाद रोज़गार अवैध नहीं है, लेकिन यहां मर्यादा और हितों के टकराव का गंभीर सवाल है, ख़ासकर तब जब जनरल अपने मालिकों के कारोबारी हितों को आगे बढ़ाने के लिए अपने प्रभाव का इस्तेमाल करते हैं. हितों के टकराव से उन जनरलों पर भी सवाल उठता है जो जवाबदेही प्रक्रिया के लिए ज़िम्मेदार थे, दोनों में ही- मुशर्रफ शासन में और उसके बाद बहाल हुए नागरिक शासन में. राष्ट्रीय जवाबदेही ब्यूरो (एनएबी) के दो पूर्व अध्यक्षों, दोनों सेवानिवृत्त थ्री-स्टार जनरल को उस कारोबारी से सेवा के बदले मेवा में एलपीजी कोटा मिला, जिसकी एनएबी द्वारा जांच की जा रही थी. एक पूर्व आईएसआई चीफ़ के साथ थ्री-स्टार जनरल को लाहौर के एक गोल्फ़ क्लब को बेहद मामूली दाम पर पाकिस्तान रेलवे की ज़मीन लीज़ पर देने के लिए आरोपी बनाया गया. केस दर्ज किए जाने के बावजूद मामला सालों से आगे नहीं बढ़ा. जब कमीशन और घूस के लिए नेशनल लॉजिस्टिक्स सेल (एनएलसी) के फंड का पैसा स्टॉक मार्केट में लगा देने पर लगभग 200 करोड़ रुपये का नुक़सान हुआ, तो तीन पूर्व जनरलों के खिलाफ “कदाचार, दुराचार, ग़बन और अनिष्ट” के आरोप लगाए गए. एक सैन्य अदालत द्वारा दो थ्री-स्टार जनरलों को छोड़ दिया गया, जबकि टू-स्टार जनरल को ‘सेवा से बर्ख़ास्त कर दंडित किया गया. बताते चलें कि तीनों काफ़ी समय पहले सेवानिवृत्त हो चुके हैं और उन पर नागरिक अदालत द्वारा मुकदमा चलाने से बचाने के लिए उन्हें सेना में वापस ले लिया गया जिससे कि उन पर सैन्य अदालत द्वारा ही मुकदमा चलाया जा सके.
सेवानिवृत्ति के बाद रोज़गार अवैध नहीं है, लेकिन यहां मर्यादा और हितों के टकराव का गंभीर सवाल है, ख़ासकर तब जब जनरल अपने मालिकों के कारोबारी हितों को आगे बढ़ाने के लिए अपने प्रभाव का इस्तेमाल करते हैं.
जनरलों के लिए अशांत बलूचिस्तान प्रांत या वाणिज्यिक राजधानी कराची में पोस्टिंग ख़ज़ाने की चाबी है– शाब्दिक और आर्थिक रूप से भी. साल 2016 में जब एक थ्री-स्टार और एक टू-स्टार जनरल सहित लगभग एक दर्जन अधिकारियों को भ्रष्टाचार के आरोपों में बर्ख़ास्त कर किया गया तो बलूचिस्तान में सेना के अफ़सरों की कारगुज़ारियों का पर्दाफ़ाश हुआ. थ्री-स्टार और टू-स्टार जनरल दोनों ने फ़्रंटियर कोर के इंस्पेक्टर जनरल (आईजीएफ़सी) के तौर पर काम किया था, और प्रांत में सचमुच अकूत कमाई की थी. थ्री-स्टार जनरल ओबैदुल्लाह खट्टक पर आरोप था कि उसने आईजीएफ़सी के अपने तीन सालों के कार्यकाल में 1500 करोड़ रुपये कमाए. उसके उत्तराधिकारी मेजर जनरल एजाज़ शाहिद को सज़ा के तौर पर 5 करोड़ रुपये सेना मुख्यालय में जमा करने को कहा गया. ज़ाहिर है कि यह राशि जनरल द्वारा आईजीएफ़सी के रूप में की कमाई का बहुत मामूली हिस्सा थी. बलूचिस्तान में जनरलों पर ड्रग्स तस्करी, सामान्य तस्करी में शामिल होने का आरोप था– एजाज़ शाहिद ने अपने बेटे के लिए एक बिना-कस्टम ड्यूटी चुकाए महंगी स्पोर्ट्स कार ख़रीदी थी और इस कार से एक हादसा होने के बाद सामने आया पूरा घोटाला– संरक्षण रैकेट, उगाही, और हर मुमकिन ग़ैरकानूनी गतिविधि के संचालन से परदा उठा. संयोग से, अधिकारियों के ख़िलाफ़ की गई कार्रवाई की ख़बर उसी शख्स ने जनता को बताई थी, जिस पर आज उसकी आय के ज्ञात स्रोतों से ज्य़ादा दौलत इकट्ठा करने का आरोप है – लेफ्टिनेंट जनरल आसिम बाजवा.
जनरलों के लिए अशांत बलूचिस्तान प्रांत या वाणिज्यिक राजधानी कराची में पोस्टिंग ख़ज़ाने की चाबी है– शाब्दिक और आर्थिक रूप से भी. साल 2016 में जब एक थ्री-स्टार और एक टू-स्टार जनरल सहित लगभग एक दर्जन अधिकारियों को भ्रष्टाचार के आरोपों में बर्ख़ास्त कर किया गया तो बलूचिस्तान में सेना के अफ़सरों की कारगुज़ारियों का पर्दाफ़ाश हुआ.
ड्रग्स की तस्करी में पाकिस्तानी जनरलों की संलिप्तता 1980 के दशक से जारी है. तत्कालीन सोवियत संघ के खिलाफ अफ़ग़ान जिहाद के दौरान, हेरोइन तस्करी और गन सप्लाई अफ़ग़ान सीमा के साथ कबायली बेल्ट में सबसे बड़ा धंधा था. एक पूर्व कोर कमांडर और बाद में नार्थ वेस्ट फ्रंटियर प्रॉविंस का गवर्नर बना फ़ज़ले हक़ ड्रग्स तस्करी की धुरी था. 1990 के दशक में तत्कालीन सेना और आईएसआई चीफ़ ने तत्कालीन प्रधानमंत्री नवाज़ शरीफ़ को पाकिस्तान की सेना के गुप्त सैन्य अभियानों की फंडिंग के लिए ड्रग्स के धंधे की आय का इस्तेमाल करने का प्रस्ताव दिया. कराची में काम का तरीक़ा अलग है. कोर कमांडर रातों-रात शेयर बाजार का माहिर बन जाता है. यह इस तरह होता है कि शेयर बाजार के एक या एक से ज़्यादा सबसे बड़े खिलाड़ी (सभी ऊंचे राजनीतिक संपर्कों वाले) नए कोर कमांडर को मामूली रक़म का निवेश करने की पेशकश करते हैं. चंद महीनों के भीतर पैसा तेजी से बढ़ना शुरू हो जाता है और जब तक कार्यकाल पूरा होता है, जनरल अरबपति बन चुका होता है.
जनरलों और दूसरे अफ़सरों का लालच इस तथ्य के बावजूद है कि उन्हें करियर के दौरान और सेवानिवृत्ति के बाद भी शानदार लाभ मिलते हैं. पाकिस्तानी लेखिका आयशा सिद्दीक़ा ने अपनी किताब ‘मिलिट्री इंक’ में अनुमान जताया है कि वरिष्ठ जनरलों की संपत्तियों का बाजार मूल्य तक़रीबन 15-40 करोड़ रुपये के बीच है. यह तब है, अगर बिल्कुल भ्रष्टाचार नहीं करते हैं. लेकिन लालच की कोई सीमा नहीं होती, पाकिस्तानी सेना हर काम में हिस्सा चाहती है, सबसे नया है चाइना पाकिस्तान इकोनॉमिक कॉरिडोर परियोजना जिसे सेना और इसके जनरल अपने संस्थागत और निजी हितों को साधने के लिए दुधारू गाय के रूप में देखते हैं. लेकिन इसके अलावा भी सेना की कारोबारी शाखाएं – बैंक, लॉजिस्टिक्स फर्म, रियल एस्टेट डेवलपमेंट, कंस्ट्रक्शन कंपनियां, बेकरी, मैरिज हॉल, औद्योगिक हित – में कमाई की अपार संभावनाएं है, जो आकर्षक सरकारी ठेके से पूरी होती हैं.
इसलिए यह अकारण नहीं है कि ‘करोड़ कमांडर’ नाम पाकिस्तानी सेना के जनरलों के साथ नत्थी हो गया है. जैसा कि पाकिस्तान में अक्सर मज़ाक में कहते हैं, अगर जनरलों की मर्ज़ी पर छोड़ दिया जाए तो – जिन्हें वहां रियल एस्टेट एजेंट भी कहते हैं – तो वे अपनी आकर्षक डिफेंस हाउसिंग अथॉरिटी (डीएचए) स्कीम का सरहद के पार भारत में भी विस्तार कर देंगे. और इसमें अच्छी बात यह होगी कि डीएचए स्कीम सरहद के क़रीब होने पर, पाकिस्तान सेना का कोई भी जनरल भारत के साथ युद्ध नहीं कर सकेगा. आख़िरकार, वे अपनी प्रॉपर्टी को जोख़िम में नहीं डाल सकते हैं. है ना?
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