हाल के दिनों में चीन की सरकारी मशीनरी का सहयोग पाने वाली तकनीकी कंपनियों, मुकाबला करने की कोशिश करने वाली विदेशी कंपनियों के रास्ते में आने वाली चुनौतियों का काफ़ी ज़िक्र हो रहा है. तकनीकी ‘शीत युद्ध’ के उभार के साथ, भू-राजनीति पर इसका एक अलग तरह का असर देखने को मिल रहा है. इसे डिजिटल गनबोट डिप्लोमैसी या आसान शब्दों में कहें तो ‘टिकटॉक कूटनीति’ कहा जा रहा है.
अब तकनीक का एक राजनीतिक और कूटनीतिक हथियार के तौर पर प्रयोग बढ़ रहा है, क्योंकि वो देश जो कभी तकनीक के उद्योग का नेतृत्व करते थे, उन्हें चीन के हाथों तकनीक के दुरुपयोग की चिंता सता रही है.
अब तकनीक का एक राजनीतिक और कूटनीतिक हथियार के तौर पर प्रयोग बढ़ रहा है, क्योंकि वो देश जो कभी तकनीक के उद्योग का नेतृत्व करते थे, उन्हें चीन के हाथों तकनीक के दुरुपयोग की चिंता सता रही है. तकनीक का राजनीतिकरण कोई नई बात नहीं है. हालांकि, विदेशी प्रतिद्वंदियों के मुक़ाबले चीन द्वारा अपनी घरेलू कंपनियों को बढ़ावा देने की महत्वाकांक्षा ने कई नई चिंताओं को जन्म दिया है.
तकनीकी राष्ट्रवाद (जिसके अंतर्गत राष्ट्रवादी रणनीति में तकनीक के स्पष्ट रूप से उपयोग के तौर पर परिभाषित किया गया है) का लब्बो-लुबाब ये है कि ये दो आधुनिक राष्ट्रों के बीच तकनीकी प्रतिद्वंदिता का मुक़ाबला है. इस परिकल्पना के अनुसार किसी देश की तकनीकी क्षमताएं सीधे तौर पर उसकी राष्ट्रीय सुरक्षा, आर्थिक सफलता और सामाजिक स्थिरता को प्रभावित करती हैं. भू-राजनीति पर तकनीक के बढ़ते प्रभाव को समझने के लिए चीन के राष्ट्रवाद पर एक नज़र डालना उपयोगी होगा.
तकनीकी राष्ट्रवाद का चीनी स्वरूप
चीन ने अपने यहां के तकनीकी उद्योग को, आर्थिक सुधारों का केंद्र बिंदु बनाते हुए, शुरुआत से ही इसे प्राथमिकता दी और बड़े संस्थागत तरीक़े से इसका राष्ट्रीयकरण किया. इससे चीन को फ़ायदा ये हुआ कि आगे चलकर उसे वैश्विक तकनीकी उद्योग के समीकरण अपने हित में साधने में सफलता मिली. चीन ने अपनी तकनीकी प्रगति को एक औज़ार की तरह इस्तेमाल करते हुए विश्व व्यवस्था में स्वयं को आगे बढ़ाया.
बड़ी ताक़तों के हाथों उन्नीसवीं सदी में भयंकर अपमान झेलने के बाद, चीन की कम्युनिस्ट पार्टी ने निर्णय किया कि चीन की सभ्यता में नई जान फूंकने की बुनियादी शर्त आत्मनिर्भर बनना है. ‘तकनीकी राष्ट्रवाद का चीनी स्वरूप’ इस ख़्वाहिश से ताक़त पाता है कि विदेशी तकनीक पर निर्भरता की चिंताओं को दूर करने के लिए स्वदेशी तकनीक का विकास करना ज़रूरी है.
चीन ने लंबी अवधि के लिए ऐसी व्यापक औद्योगिक नीति बनाई, जिससे अंतरराष्ट्रीय स्तर पर मुक़ाबला कर सकने वाली घरेलू कंपनियों का विकास हो सके. उच्च प्राथमिकता के राष्ट्रीय अनुसंधान एवं विकास के कार्यक्रमों और शिक्षा व रिसर्च संस्थानों में निवेश बढ़ाकर चीन ने स्वयं को तकनीकी तौर पर और प्रभावी बनाने की कोशिशें आरंभ कर दीं.
इस सोच का नतीजा ये हुआ कि चीन ने लंबी अवधि के लिए ऐसी व्यापक औद्योगिक नीति बनाई, जिससे अंतरराष्ट्रीय स्तर पर मुक़ाबला कर सकने वाली घरेलू कंपनियों का विकास हो सके. उच्च प्राथमिकता के राष्ट्रीय अनुसंधान एवं विकास के कार्यक्रमों और शिक्षा व रिसर्च संस्थानों में निवेश बढ़ाकर चीन ने स्वयं को तकनीकी तौर पर और प्रभावी बनाने की कोशिशें आरंभ कर दीं.
वर्ष 2015 में बहुत प्रचार प्रसार के साथ घोषित किया गया मेड इन चाइना 2025 प्लान, तकनीक के स्वदेशीकरण का सबसे हालिया उदाहरण है. उच्च तकनीक की क्रांति और औद्योगिक मास्टरप्लान कही जा रही इस योजना का लक्ष्य, चीन को मैन्यूफैक्चरिंग का सुपरपावर बनाने का है. जब अंतरराष्ट्रीय स्तर पर इसकी खोज-बीन बढ़ी तो चीन ने अपने सरकारी प्रचार कार्यक्रमों में बड़ी तेज़ी से ध्यान आकर्षित करने वाली इस औद्योगिक नीति के नाम का ज़िक्र करना ही बंद कर कर दिया. फिर भी ये नीति चीन के इनोवेशन निर्माण के लिए महत्वपूर्ण बनी हुई है. उतनी ही महत्वपूर्ण लेकिन, उतना ध्यान न आकर्षित करने वाली नीतियों जैसे कि नेशनल आउटलाइन फॉर मीडियम ऐंड लॉन्ग टर्म एस ऐंड टी डेवेलपमेंट प्रोग्राम और फाइव ईयर डेवेलपमेंट प्लान भी चीन के आर्थिक मॉडल का केंद्र बिंदु हैं.
तकनीकी स्वतंत्रता या स्वदेशी इनोवेशन के लक्ष्य को प्राप्त करने के लिए चीन ने तकनीक के अधिग्रहण पर अपना ध्यान केंद्रित किया है. इससे अंतरराष्ट्रीय प्रतिद्वंदियों द्वारा चीन के बारे में की जाने वाली शिकायतों की ओर दुनिया का ध्यान आकर्षित किया है.
तकनीकी राष्ट्रवाद से भू-राजनीति में बुनियादी बदलाव की संभावना
वर्ष 2012 में जब चीन की सरकार से भारी मात्रा में सब्सिडी पाने वाली कंपनियों के चीन की सरकार से संबंधों को लेकर चिंताएं जताई गई थीं, तब अमेरिकी सरकार ने चीन की कंपनियां जैसे कि हुवावेई और ज़ेटीई को अपनी राष्ट्रीय सुरक्षा के लिए ख़तरा क़रार दिया था. जैसे जैसे साइबर जासूसी का ख़तरा बढ़ा, वैसे-वैसे चीन की कंपनियों द्वारा बनाए जाने वाले मूलभूत ढांचे के दुरुपयोग और चीन की कंपनियों द्वारा ये जानकारी देने से इनकार करने को लेकर चिंता जताई जाने लगी कि अपनी सरकार से उनके संबंध कितने गहरे हैं. चीन के सरकार केंद्रित पूंजीवाद और पश्चिमी देशों के मुक्त पूंजीवाद के बीच असमानता को देखते हुए तकनीक को लेकर चीन की पर्देदारी वाली सरकारी नीति, उसके राजनीतिक मक़सद और भू-राजनीतिक लक्ष्यों को लेकर चिंताएं और बढ़ गई हैं.
चीन के साथ अमेरिका के व्यापार घाटे में तकनीक का महत्वपूर्ण योगदान है, और इससे दोनों देशों के व्यापार युद्ध में तकनीक पर ध्यान और भी केंद्रित हुआ है. व्यापार कर से बाहर जिन अन्य विषयों पर तनाव बढ़ा है, उनमें चीन को उच्च तकनीक के निर्यात पर प्रतिबंध और अमेरिका के USTR एंटिटी लिस्ट में चीन की सौ से अधिक तकनीकी कंपनियों को शामिल करना भी है.
ट्रंप प्रशासन द्वारा हुवावेई और इससे जुड़ी कंपनियों पर पूरी तरह से प्रतिबंध लगाना और अन्य देशों को हुवावेई की 5G तकनीक का इस्तेमाल न करने के लिए राज़ी करने के कारण वैश्विक राजनीति की मोर्चेबंदी में तकनीक की अहमियत अभूतपूर्व ढंग से बढ़ गई है.
चीन की इन कंपनियों को लेकर जो चिंताएं जताई गई हैं, वो इस प्रकार हैं: बाज़ार तक पहुंच के एवज़ में तकनीक प्रदान करने का दबाव बनाना, बौद्धिक संपदा के अधिकारों की चोरी और जासूसी. हाल ही में अमेरिका ने 24 और चीनी कंपनियों को अपनी एंटिटी लिस्ट में ये आरोप लगाते हुए शामिल कर लिया था कि इनके माध्यम से चीन में सैन्य इस्तेमाल में उपयोग आने वाली चीज़ों की ख़रीद को बढ़ावा दिए जाने का जोखिम है. ट्रंप प्रशासन द्वारा हुवावेई और इससे जुड़ी कंपनियों पर पूरी तरह से प्रतिबंध लगाना और अन्य देशों को हुवावेई की 5G तकनीक का इस्तेमाल न करने के लिए राज़ी करने के कारण वैश्विक राजनीति की मोर्चेबंदी में तकनीक की अहमियत अभूतपूर्व ढंग से बढ़ गई है.
चीन और अमेरिका के बीच तनाव का असर तकनीकी क्षेत्र पर पड़ने के कई कारण हैं. तकनीक के विकास और मैन्यूफैक्चरिंग में चीन का लगातार बढ़ता प्रभुत्व वैश्विक व्यापार व्यवस्था में उलट-फेर कर सकता है, जिससे तकनीक के क्षेत्र में अमेरिकी बढ़त कमज़ोर पड़ने का डर है. चीन पर आरोप लग रहे हैं कि वो अपनी तकनीकी बढ़त और दूसरे देशों की तकनीकी जासूसी के माध्यम से ‘चीन केंद्रित विश्व व्यवस्था’ के निर्माण में जुटा हुआ है. इसी वजह से चीन की तकनीकी महत्वाकांक्षाओं को लेकर पूरी दुनिया में अविश्वास बढ़ रहा है.
टिकटॉक को लेकर दुनिया भर में निजता और कंटेंट की सेंसरिंग को लेकर जताई गई चिंताओं ने एक बार फिर चीन की बड़ी तकनीकी कंपनी के राजनीतिकरण पर ध्यान केंद्रित किया है, जिसे ‘टिकटॉक कूटनीति’ का नाम दिया गया है.
चीन और अमेरिका के हित एक दूसरे से बिल्कुल विपरीत होने के कारण आने वाले समय में विश्व में नए गठबंधनों का निर्माण हो सकता है, और दुनिया चीन समर्थक व अमेरिका समर्थक गुटों में बंट सकती है. जहां तक दक्षिणी पूर्वी एशियाई देशों का सवाल है, तो उनके लिए चीन की ओर झुकाव का प्रतिकार कर पाना मुश्किल होगा. ऐसे में अमेरिका, विकासशील देशों को वित्तीय मदद देकर इस बात के लिए राज़ी कर सकता है कि वो चीन के दूरसंचार उपकरणों से दूरी बनाएं. हुवावेई कंपनी का दुनिया के तमाम देशों द्वारा विरोध इस बात का प्रमाण है कि अमेरिका, किस तरह से दुनिया के तमाम देशों को चीन के ख़िलाफ़ करने का प्रयास कर रहा है. चीन की तकनीकी कंपनियों को निशाना बनाने वाले इस संघर्ष का फिलहाल कोई अंत नहीं दिख रहा है.
टिकटॉक कूटनीति का युग?
हुवावेई के बाद अब दुनिया का ध्यान, चीन की बाइटडांस कंपनी के मालिकाना हक़ वाली वायरल वीडियो सेवा टिकटॉक पर केंद्रित है. बाइटडांस की स्थापना वर्ष 2012 में हुई थी. ये कंपनी, चीन की अन्य विशाल तकनीकी कंपनियों जैसे कि अलीबाबा, बायडू और टेनसेंट से मुक़ाबला करने वाले मोबाइल ऐप्स बनाती है. बाइटडांस को सबसे अधिक शोहरत उसकी छोटे वीडियो, न्यूज़ और कंटेंट ऐप्स वाले ऐप्स से मिली है. बाइटडांस के बेहद लोकप्रिय ऐप टिकटॉक के कारण आज सुरक्षा कारणों से उसकी बहुत अधिक पड़ताल की जा रही है. पहले बाइटडांस पर आरोप लगा था कि वो टिकटॉक और इसके चीनी अवतार डोऊयिन पर चीन के शिन्जियांग प्रांत में रि-एजुकेशन कैंप से जुड़े कंटेंट को सेंसर कर रही है. पूरी दुनिया में टिकटॉक के क़रीब 60 करोड़ यूज़र हैं, जिनके कारण तकनीक के तानाशाही मक़सद से इस्तेमाल की चिंता बढ़ गई है. टिकटॉक द्वारा कुछ राजनीतिक मुद्दों पर ‘शैडो बैन’ लगाने के आरोप के बाद इसके यूज़र्स की प्राइवेसी को लेकर भी तब चिंताएं जताई गई थीं, जब बाइटडांस पर आरोप लगा कि वो अपने यूज़र्स की निजी जानकारियां चीन की सरकार को दे रही है और ग़लत सूचनाओं का प्रचार कर रही है. टिकटॉक को लेकर दुनिया भर में निजता और कंटेंट की सेंसरिंग को लेकर जताई गई चिंताओं ने एक बार फिर चीन की बड़ी तकनीकी कंपनी के राजनीतिकरण पर ध्यान केंद्रित किया है, जिसे ‘टिकटॉक कूटनीति’ का नाम दिया गया है.
अगस्त 2020 में अमेरिका के राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप ने टिकटॉक और काफ़ी अधिक इस्तेमाल किए जाने वाले चीन के मैसेजिंग ऐप वीचैट के ख़िलाफ़ कार्यकारी आदेश पर हस्ताक्षर किए थे. इन मोबाइल ऐप्स पर चीन की कम्युनिस्ट पार्टी का ‘मुख़पत्र’ बनने और चीन की कम्युनिस्ट पार्टी के एजेंडे को आगे बढ़ाने की प्रतिबद्धता रखने के आरोप लगाए गए थे. ट्रंप प्रशासन ने इन चीनी ऐप्स को अमेरिका की राष्ट्रीय सुरक्षा के लिए ख़तरा घोषित कर दिया है. ट्रंप द्वारा जारी किए गए आदेश से अमेरिका के न्यायिक क्षेत्र में कारोबार करने वाली किसी कंपनी के इन दोनों ऐप्स के मालिकों के साथ किसी भी तरह का कारोबार करने पर भी प्रतिबंध लगा दिया गया था.
अमेरिका से पहले भारत ने, चीन के साथ सीमा पर तनाव का हवाला देते हुए टिकटॉक समेत चीन के मालिकाना हक़ वाले 117 ऐप्स पर पाबंदी लगा दी थी. अपनी संप्रभुता और राष्ट्रीय सुरक्षा की चिंताओं के हवाले से भारत द्वारा लगाए गए इन प्रतिबंधों को सीमा पर चीन के आक्रामक रुख़ के ख़िलाफ़ ‘डिजिटल स्ट्राइक’ कहा गया था. भारत के प्रतिबंधों से चीन को कितना नुक़सान हुआ, ये तो स्पष्ट नहीं है. लेकिन इस क़दम को भारत द्वारा अपने यहां के डिजिटल क्षेत्र में आत्मनिर्भर बनने की दिशा में उठाए गए क़दम के रूप में देखा गया था. पिछले कई वर्षों से भारत को चीन की निजी कंपनियों के निवेश का लाभ मिलता रहा है, इनमें बाइटडांस भी शामिल है. अब चीनी ऐप्स पर भारत के प्रतिबंध का असर चीन और भारत के बीच उस मज़बूत तकनीकी संबंध पर पड़ना तय है, जिसे दोनों देशों ने लगातार आगे बढ़ाने का प्रयास किया है. इससे भारत में घरेलू रोज़गार के अवसरों पर भी विपरीत प्रभाव पड़ने की आशंका है. इन बातों से इतर, ऐप बाज़ार में चीन के प्रभुत्व से डेटा सुरक्षा को लेकर गंभीर चिंताएं पैदा हुई हैं, जिसके चलते कई देशों ने अपनी घरेलू तकनीक और सुरक्षा संबंधी हितों को प्राथमिकता देने पर मजबूर किया है.
अमेरिका द्वारा टिकटॉक पर प्रतिबंध लगाने की कोशिशों को चीन ने ‘राजनीतिक दबाव’ क़रार दिया है. अमेरिका के ही तर्क का इस्तेमाल करते हुए, चीन ने दावा किया कि अमेरिका अपनी सरकारी ताक़त का इस्तेमाल करके ग़ैर अमेरिकी कारोबारों को दबाने, दादागीरी करने और राजनीतिक में जुटा हुआ है. मोटे तौर पर कहें तो, यूज़र्स के निजी डेटा के दुरुपयोग की चिंताएं पूरी तकनीकी दुनिया में बिल्कुल वाजिब ही हैं.
चीन के तकनीकी राष्ट्रवाद का वैश्विक विस्तार, उसके संस्थागत प्राथमिकता के ज़रिए स्वदेशी तकनीक का विकास और एक शक्तिशाली तकनीकी उद्योग के विकास की राष्ट्रीय नीति का नतीजा है.
ऐसा नहीं लगता कि टिकटॉक, फ़ेसबुक से अधिक यूज़र डेटा जमा करता है. लेकिन, जब बात चीन की सरकार द्वारा डेटा के दुरुपयोग की आती है तो बड़ी सामरिक और राजनीतिक चिंताओं की भूमिका बढ़ जाना स्वाभाविक है. इससे एक नई तरह की तकनीकी कूटनीति केंद्र बिंदु में आ जाती है. अमेरिका और चीन के बीच चल रहे टकराव के बीच में फंसी बाइटडाइंस की चीन में इसलिए आलोचना की जा रही है कि वो अपने अमेरिकी कारोबार को बचाने के लिए अमेरिका से वार्ता कर रही है. अपनी जड़ों की अनदेखी करने के लिए पलटवार होने की आशंका को देखते हुए, आइंदा से चीन की कंपनियां इस तूफ़ान में अधिक सावधानी और कूटनीतिक तरीक़े से आगे बढ़ने का प्रयास करेंगी.
चीन के तकनीकी राष्ट्रवादी विस्तारवाद का मुक़ाबला कैसे हो?
इस समय अमेरिका के राष्ट्रपति ट्रंप द्वारा अराजक तरीक़े से टिकटॉक और वीचैट पर प्रतिबंध लगाने की कोशिश असफ़ल रही है. अमेरिकी अदालतों ने देश में इन ऐप्स को पूरी तरह से प्रतिबंधित करने पर प्राथमिक तौर पर रोक लगा दी है. हालांकि, इसका अर्थ ये नहीं है कि तकनीक के राजनीतिकरण का अंत हो गया है. ये प्रक्रिया चीन की प्रगति के साथ-साथ जारी रहेगी. चीन की कम्युनिस्ट पार्टी और वहां का सरकारी मीडिया लगातार चीन की कंपनियों के क़ानूनी अधिकारों और हितों की रक्षा में जुटे हैं. इसमें चीन द्वारा हाल ही में बनाई गई अपनी भरोसा न करने लायक़ एंटिटी लिस्ट और निर्यात नियंत्रण संबंधी क़ानून शामिल हैं.
चीन के तकनीकी राष्ट्रवाद का वैश्विक विस्तार, उसके संस्थागत प्राथमिकता के ज़रिए स्वदेशी तकनीक का विकास और एक शक्तिशाली तकनीकी उद्योग के विकास की राष्ट्रीय नीति का नतीजा है. चीन द्वारा वैश्विक तकनीकी मानक प्रभावित करने की क्षमता (जो पहले पश्चिमी देश तय किया करते थे) अब पश्चिमी देशों को इस बात के लिए मजबूर करेंगी कि वो इस चुनौती का सामना करने के लिए खड़े हों और चीन से मुक़ाबला करें. ये पश्चिम के हित में ही होगा कि वो नियम आधारित तकनीकी अंतरराष्ट्रीय व्यवस्था की स्थापना करें. इसमें चीन के प्रति एक स्पष्ट नीति और चीन से तकनीकी और आर्थिक तौर पर अलगाव के क़दम शामिल होंगे. ये दोनों ही लंबी प्रक्रियाएं हैं, जिन्हें लागू करने में कई तरह की समस्याएं आएंगी. जो बात साफ़ है वो ये है कि मौजूदा राजनीतिक माहौल में ‘तकनीक’ ध्रुवीकरण का मैदान बन गई है. आज तकनीक और राजनीति दोनों ही एक दूसरे के क्षेत्र में पैठ बना रही हैं. ऐसे में हम एक बात को लेकर निश्चिंत हो सकते हैं कि भू-राजनीति में स्थायी तौर पर बदलाव आने वाला है.
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