क्या प्रियंका गांधी वाड्रा अपनी सियासी ज़मीन बचाने की कोशिश में जुटी कांग्रेस के लिए पुराने अच्छे दिन वापस ला सकती हैं? इस पर पंचों की राय पूरी तरह बंटी है। कांग्रेस नेताओं और दशकों पुरानी इस पार्टी से हमदर्दी रखनेवालों को लगता है कि प्रियंका गांधी वाड्रा एक करिश्माई व्यक्तित्व हैं और उनमें उनकी दादी इंदिरा गांधी की झलक दिखती है। साथ ही प्रियंका में नरेंद्र मोदी की अगुवाई वाली नेशनल डेमोक्रेटिक अलायंस (NDA) को चुनौती देने के लिए पर्याप्त मौखिक हथियार यानी बोलने की कला है। वहीं, विरोधियों और संशयवादियों को लगता है कि सक्रिय राजनीति में प्रियंका गांधी की औपचारिक एंट्री में काफ़ी देर हो गई। वे यह भी मानते हैं कि इस समय में इंदिरा गांधी से समानता या फिर स्वाभाविकता जाति, उप जाति, सिद्ध प्रशासनिक कौशल और राजनीतिक चतुरता की बाधाओं से पार पाने के लिए पर्याप्त नहीं हैं। उदाहरण के लिए, इस बात की कम ही उम्मीद है कि पहली बार वोट दे रहे मतदाता किसी ऐसी शख़्सियत के प्रभाव में आएंगे जिसने सार्वजनिक रूप से या फिर अपने प्रोफ़ेशनल करियर में कभी कोई ज़िम्मेदारी भरा पद या दफ़्तर नहीं संभाला हो।
पति रॉबर्ट वाड्रा के ख़िलाफ़ भ्रष्टाचार के आरोप प्रियंका गांधी के लिए एक अतिरिक्त समस्या है। वह इन आरोपों को “राजनीति से प्रेरित” करार देने के लिए अपनी पूरी ताक़त झोंक सकती हैं। लेकिन “दाग़ी नेताओं” के प्रति मध्यम वर्ग की उदासीनता को देखते हुए शिक्षित वर्ग, युवाओं और महिलाओं का विश्वास जीतना वास्तव में उनके लिए बहुत ही दुरुह और चुनौती भरा है।
एक और ज़ाहिर सी समस्या है कि प्रियंका गांधी के सामने चुनौतियों का अंबार है। रॉबर्ट वाड्रा पर भ्रष्टाचार के पेचीदा मुद्दे पर स्टैंड लेने के अलावा नई कांग्रेस महासचिव से लगातार फ़ायर फ़ाइटिंग मिशन पर जुटे रहने की उम्मीद है। उम्मीद की जा रही है कि कुशलता और साधन संपन्न बीजेपी से मुक़ाबले के लिए प्रियंका गांधी वाड्रा सोशल मीडिया वॉरियर (योद्धा) बनेंगी, ट्विटर पर दिन-रात सक्रिय रहेंगी और अपने फ़ायदे के लिए 24X7 टेलीविज़न न्यूज़ पर नज़र बनाए रखेंगी। कांग्रेस में वैसे नेताओं की कमी नहीं है जो प्रियंका को पूर्वी उत्तर प्रदेश से बाहर भी स्टार प्रचारक के रूप में देखना चाहते हैं — महाराष्ट्र, तमिलनाडु, पश्चिम बंगाल, गुजरात, पंजाब और समूचे देश में।
मुश्किल दिखनेवाले इन कामों के अलावा प्रियंका गांधी के काम को थोड़ा कम कर आंकने की या संतुलित तरीक़े से पेश करने की ज़रूरत होगी ताक़ि उनके भाई राहुल गांधी के कांग्रेस अध्यक्ष पद की कुर्सी का महत्व फीका न पड़ जाए। ये एक ऐसा मुद्दा है जहां किसी राजनीतिक संकटमोचक, प्रोफ़ेशनल या पार्टी नेताओं के पास सलाह देने या रणनीति बनाने की बहुत ही कम गुंज़ाइश है। भाई और बहन का रिश्ता ऐसा है कि किसी तीसरे शख़्स (शायद मां सोनिया गांधी को छोड़ कर) के लिए हस्तक्षेप या मार्गदर्शन की जगह बहुत कम है।
मुश्किल दिखनेवाले इन कामों के अलावा प्रियंका गांधी के काम को थोड़ा कम कर आंकने की या संतुलित तरीक़े से पेश करने की ज़रूरत होगी ताक़ि उनके भाई राहुल गांधी के कांग्रेस अध्यक्ष पद की कुर्सी का महत्व फीका न पड़ जाए।
प्रियंका गांधी के जीवन पर एक सरसरी निगाह डालने से पता चलता है कि क्यों उन्हें उम्मीदों और वादों का प्रतिरूप माना जाता है, कम से कम कांग्रेस के दायरे में। 1999 में, उन्होंने नेहरू-गांधी परिवार के क़रीबी कैप्टन सतीश शर्मा के ख़िलाफ़ चुनाव मैदान में उतरे बीजेपी प्रत्याशी और अपने चाचा अरुण नेहरू की खटिया अकेले ही खड़ी कर दी थी। तब एक जनसभा को संबोधित करते हुए उन्होंने हिंदी में कठोर टिप्पणी करते हुए वोटरों से कहा था कि: “मुझे आप से एक शिकायत है। मेरे पिता के मंत्रिमंडल में रहते हुए जिसमे गद्दारी की, भाई की पीठ में छुरा मारा, जवाब दीजिए, ऐसे आदमी को आपने यहां घुसने कैसे दिया? उनकी यहां आने की हिम्मत कैसे हुई?”
भीड़ स्तब्ध होकर सुन रही थी और प्रियंका गांधी बोलती जा रही थीं। आगे उन्होंने कहा: “यहां आने से पहले मैंने अपनी मां से बात की थी। मां ने कहा कि किसी की बुराई मत करना। मगर मैं जवान हूं, दिल की बात आप से ना कहूं तो किसके पास कहने जाऊं?”
प्रियंका गांधी की टिप्पणियां इतनी धारदार थीं कि अटल बिहारी वाजपेयी जैसे शानदार वक्ता भी उसे कुंद करने में नाकाम हो गए। प्रियंका गांधी के भाषण के एक दिन बाद तब के प्रधानमंत्री वाजपेयी जी रायबरेली पहुंचे। अपने ख़ास अंदाज़ में प्रियंका गांधी पर कटाक्ष करते हुए उन्होंने कहा कि, वो रायबरेली आने से डर रहे थे क्योंकि यह किसी और का इलाक़ा है। लेकिन तब तक बहुत देर हो चुकी थी। अरुण नेहरू की क़िस्मत का फ़ैसला पहले ही हो चुका था, वो चुनाव हार गए। तब कांग्रेस समर्थकों के लिए ये ज़्यादा महत्वपूर्ण था कि प्रियंका गांधी परिवार की एक ऐसी सदस्य हैं जो इस तरीक़े से बोल सकती हैं।
सोनिया गांधी ने कांग्रेस को एक के बाद एक 2004 और 2009 में लगातार सफलता दिलाई। अब प्रियंका गांधी और राहुल गांधी पर कांग्रेस के “पुराने अच्छे दिनों” को लौटाने का दारोमदार है।
दूसरा एक उदाहरण तमिलनाडु का है, जहां उन्होंने कहा: “एलोरम कांग्रेसिक्कु वोट पोडंगल (आप सब कांग्रेस को वोट दीजिए)।” प्रियंका ने सिर्फ़ यही लाइन कही और भीड़ दीवानी हो गई। माना जा रहा था कि श्रीपेरुम्बुदूर सोनिया गांधी के राजनीतिक करियर के पदार्पण का गवाह बनेगा। लेकिन 11 जनवरी 1998 को प्रियंका गांधी ने पूरी तरह अपनी मां के प्रभाव को फीका कर दिया। प्रियंका की रेड और ऑरेंज साड़ी उनकी मां की ग्रीन और मरून साड़ी से ज़्यादा चमक रही थी और उनकी स्माइल भी। घबराहट और हिचकिचाहट वाली सोनिया गांधी के विपरीत प्रियंका गांधी भीड़ के साथ आश्वस्त, संजीदा और सहज थीं। पूरे देश में कांग्रेस खेमे में उल्लास भर गया। उनके पास एक की बजाय दो भीड़ जुटानेवाले चेहरे थे। प्रियंका गांधी की अपील व्यापक स्तर पर दिखी, लेकिन कांग्रेसी उस समय तुरुप के इस पत्ते को बाद के लिए संजो कर रखना चाह रहे थे। उनमें से कुछ जो सबसे सीनियर थे, वो जल्दी से आगे आए और घोषणा कर दी कि “अगले 50 साल तक कांग्रेस को नेतृत्व की दिक़्क़त नहीं होगी। सोनिया गांधी कम से कम 20 साल तक पार्टी का नेतृत्व करेंगी और उसके बाद हमारे पास प्रियंका गांधी होंगी।” बीस साल बाद, ये शब्द कुछ हद तक भविष्यवाणी साबित हुए। सोनिया गांधी ने कांग्रेस को एक के बाद एक 2004 और 2009 में लगातार सफलता दिलाई। अब प्रियंका गांधी और राहुल गांधी पर कांग्रेस के “पुराने अच्छे दिनों” को लौटाने का दारोमदार है।
प्रियंका में जोश की ये झलक 20 साल पहले 1998-1999 में दिखी। अब एक वाज़िब सवाल उठ रहा है कि क्या वो अमेठी और रायबरेली से बाहर उत्तर प्रदेश के बाक़ी इलाक़ों में अपना जादू बरक़रार रख पाएंगी। हालांकि, 2012 और 2017 के यूपी विधानसभा चुनावों में अमेठी और रायबरेली सीट पर प्रियंका गांधी का फ़ोकस शानदार नतीजे नहीं दिला सका था।
भारत की आज़ादी के बाद के 72 साल के इतिहास में, गांधी परिवार ने 59 साल तक कांग्रेस की अगुवाई की है। सभी तबके के कांग्रेसी गांधी परिवार के सदस्यों को निर्विवाद नेता मानते हैं और बदले में चुनावी सफलता और सत्ता इत्यादि की चाहत रखते हैं। जवाहर लाल नेहरू से लेकर इंदिरा गांधी, राजीव गांधी और सोनिया गांधी तक गांधी परिवार का कोई भी सदस्य राजनीति में विफल नहीं हुआ और न ही किसी ने एकाएक राजनीति से किनारा कर लिया। नतीजतन, कांग्रेस नेता आंख मूंद कर उनका अनुसरण (फ़ॉलो) करते हैं और गांधी परिवार से परे (अलग हटकर) नहीं देखना चाहते हैं। राहुल और प्रियंका गांधी को भव्यता के इस भ्रम के साथ जीना होगा और कांग्रेसियों की राजनीतिक प्रवृत्ति को सही साबित करना होगा।
जवाहर लाल नेहरू से लेकर इंदिरा गांधी, राजीव गांधी और सोनिया गांधी तक गांधी परिवार का कोई भी सदस्य राजनीति में विफल नहीं हुआ और न ही किसी ने एकाएक राजनीति से किनारा कर लिया। नतीजतन, कांग्रेस नेता आंख मूंद कर उनका अनुसरण करते हैं और गांधी परिवार से परे नहीं देखना चाहते हैं।
इसलिए अगला आम चुनाव प्रियंका गांधी और राहुल गांधी दोनों के लिए ही लिटमस टेस्ट है।
1950 के दशक की इंदिरा गांधी, राजीव गांधी और फिर सोनिया गांधी की तरह प्रियंका गांधी भी राजनीति में आने को लेकर बेहद अनिच्छुक रही हैं। वास्तव में कुछ साल पहले पत्रकार बरखा दत्त के साथ इंटरव्यू में प्रियंका गांधी ने कहा था कि: “सच कहूं तो मुझे यक़ीन नहीं कि क्यों, लेकिन इतना साफ़ है कि मैं राजनीति में नहीं आना चाहती। मैं अपने तरीक़े से जीवन जीते हुए ख़ुश हूं और मुझे लगता है कि राजनीति के कुछ पहलू ऐसे हैं जिनके लिए मैं उपयुक्त नहीं हूं।”
उस दिन के बाद से, कांग्रेसी नेता इस बात को लेकर आश्वस्त नहीं थे कि प्रियंका गांधी अपने बयान पर अडिग रहेंगी। इस साल जनवरी महीने के आख़िरी हफ़्ते में जब प्रियंका गांधी को औपचारिक तौर पर कांग्रेस महासचिव और पूर्वी उत्तर प्रदेश का प्रभारी बनाए जाने का एलान हुआ तो उनके चेहरे पर आत्म संतुष्टि की मुस्कान छा गई। ऐसे समय में जब लोकसभा चुनाव मुश्किल से तीन महीने दूर हैं, प्रियंका गांधी को ज़िम्मेदारी सौंपने की यह घोषणा सत्तारूढ़ भाजपा-एनडीए और कांग्रेस के समर्थन से अपनी सफलता की कहानी गढ़ने की कोशिश में लगे तीसरे मोर्चे की कवायद को झटका देने के लिए एक मनोवैज्ञानिक हथियार की तरह है।
तो प्रियंका के लिए स्टोर में आगे क्या है?
दस साल के यूपीए शासन (2004-2014) में राहुल गांधी का राजनीतिक क़द नहीं बढ़ा। बल्कि, इस दौरान एक होनहार नेता की जगह एक भ्रमित, अनिच्छुक, उदासीन और अक्सर ग़ैर संजीदा कैरेक्टर बना दिया। इस तरह, सत्ता जाने के बाद राहुल गांधी के सामने ख़ुद को एक विश्वसनीय, 24X7 (हमेशा तैयार रहनेवाला) राजनेता, पार्टी के सहयोगियों से सम्मान हासिल करना और बीजेपी को हराने की अपनी क़ाबिलियत साबित करने की ज़िम्मेदारी थी। 11 दिसंबर 2018 को राहुल गांधी को ये अवसर मिला जब कांग्रेस ने अपनी ख़ुद की ताक़त के बदौलत बीजेपी को छत्तीसगढ़, मध्य प्रदेश और राजस्थान विधानसभा चुनाव में पटखनी दी।
लोकसभा में वाराणसी का प्रतिनिधत्व कर रहे प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और गोरखपुर से आने वाले उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ के राजनीतिक लय को बिगाड़ना 2019 के लिए प्रियंका गांधी का सबसे अहम टास्क होगा। अगर इन दो बड़े चेहरों को पूर्वी उत्तर प्रदेश में उलझा दिया जाए तो चुनाव प्रचार के आख़िरी महत्वपूर्ण पड़ाव में देश के दूसरे हिस्सों में बीजेपी इन दो स्टार प्रचारकों से वंचित रह जाएगी। यूपी में कांग्रेस के लिए अच्छे संकेत बीजेपी के लिए बुरी ख़बर होगी जो कि देश की सबसे बड़ी आबादी और राजनीतिक रूप से सबसे महत्वपूर्ण राज्य में सबसे ज़्यादा बढ़त हासिल करने की उम्मीद कर रही है।
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