पिछले कुछ दशकों में महासागरों से प्राकृतिक संसाधनों का दोहन करने की दौड़ में बहुत तेज़ी आई है. इस दृष्टि से देखें तो भारत-प्रशांत क्षेत्र एक महत्वपूर्ण समुद्री क्षेत्र के रूप में उभरा है. ये ऊर्जा और गैस के मामले काफ़ी समृद्ध है. यही वज़ह है कि इस क्षेत्र में प्रमुख हितधारकों की रुचि बढ़ रही है, लेकिन इसका एक दुष्परिणाम ये हुआ है कि प्राकृतिक संसाधन निकालने को लेकर इस क्षेत्र के देशों और उन बड़ी महाशक्तियों के बीच तनाव भी पैदा हो रहा है, जो इस इलाके से भौगोलिक रूप से नहीं जुड़ी हैं. चीन की कोशिश हिंद-प्रशांत क्षेत्र में विवादित क्षेत्रों पर नियंत्रण पाने की है. अपने इस संकल्प को लेकर चीन के आक्रामक रुख़ की वज़ह से इस क्षेत्र के कुछ देशों के तटरक्षक बलों के साथ चीन का सीधा टकराव हुआ है, जबकि कुछ देशों ने चीन को पीछे धकेलने के लिए अंतर्राष्ट्रीय न्यायिक संस्थानों का रुख़ भी किया है.
लिंगशुई 36-1 गैस क्षेत्र क्या है?
चीन की तीसरी सबसे बड़ी राष्ट्रीय तेल कंपनी चाइना नेशनल ऑफशोर ऑयल कॉरपोरेशन (CNOOC) ने हाल ही में लिंगशुई 36-1 गैस क्षेत्र में गैस की खोज की पुष्टि की है. इसे एक बहुत महत्वपूर्ण घटनाक्रम माना जा रहा है क्योंकि लिंगशुई 36-1 गैस क्षेत्र में 100 बिलियन क्यूबिक मीटर से ज़्यादा गैस होने का अनुमान है. ये बहुत गहरे पानी में दुनिया का पहला बड़ा अल्ट्रा शैलो गैस क्षेत्र है. महत्वपूर्ण बात ये है कि लिंगशुई 36-1 गैस क्षेत्र दक्षिण चीन सागर में विवादित जल सीमा के भीतर आता है. इस बात में कोई शक नहीं है कि साउथ चाइना सागर भारत-प्रशांत क्षेत्र में सबसे विवादित सामरिक क्षेत्रों में से एक है. चीन काफ़ी मुखर होकर इस क्षेत्र पर अपने नियंत्रण का दावा करता है लेकिन इस क्षेत्र के दूसरे देश, जैसे कि फिलीपींस, मलेशिया, वियतनाम और ताइवान समेत दूसरे देश, भी इस पर अपना दावा ठोंकते हैं. ज़ाहिर है दावों और प्रतिदावों की वज़ह से लिंगशुई 36-1 गैस क्षेत्र की खोज से दक्षिणी चीन सागर में क्षेत्रीय विवादों के और तेज़ होने की आशंका है.
चीन की कोशिश हिंद-प्रशांत क्षेत्र में विवादित क्षेत्रों पर नियंत्रण पाने की है. अपने इस संकल्प को लेकर चीन के आक्रामक रुख़ की वज़ह से इस क्षेत्र के कुछ देशों के तटरक्षक बलों के साथ चीन का सीधा टकराव हुआ है, जबकि कुछ देशों ने चीन को पीछे धकेलने के लिए अंतर्राष्ट्रीय न्यायिक संस्थानों का रुख़ भी किया है.
हालांकि दक्षिण चीन सागर में क्षेत्रीय विवाद की एक बड़ी वज़ह इसकी भौगोलिक स्थिति भी हो सकती है. रणनीतिक रूप से ये क्षेत्र बहुत ही महत्वपूर्ण जगह पर स्थित है. ऐसे में इस क्षेत्र के तनाव को ना सिर्फ भू-रणनीतिक क्षेत्र के रूप में इसके महत्व से ढाला जा सकता है, बल्कि विभिन्न क्षेत्रीय हितधारक भी अपने राष्ट्रीय हितों को आगे बढ़ाना चाहते हैं. इससे भी इस क्षेत्र की रणनीतिक अहमियत बढ़ जाती है. ऐसे में अब लिंगसुई 36-1 गैस क्षेत्र की खोज से दक्षिण चीन सागर और पूरे इंडो-पैसिफिक के रणनीतिक इस्तेमाल करने की दौड़ और तेज़ होने की संभावना है. इससे भविष्य में इस क्षेत्र की भू-राजनीति में नई जटिलताएं पैदा हो सकती हैं. अगर भौगोलिक दृष्टि से देखें तो इस क्षेत्र के देश रणनीतिक साझेदारी के नेटवर्क का विस्तार करके अपनी लोकेशन का फायदा उठाने की मांग कर सकते हैं. अगर भारत-प्रशांत क्षेत्र के संदर्भ में देखें तो दक्षिण पूर्व एशियाई देशों के लिए ये बिंदु एक महत्वपूर्ण मामला है. कई दक्षिण पूर्व एशियाई देशों का चीन के साथ लंबे समय से विवाद रहा है, खासकर दक्षिण चीन सागर के मुद्दे को लेकर. हालांकि ये देश अपनी सैन्य क्षमताओं, आर्थिक शक्ति और बैंडविड्थ के मामले में चीन से बहुत पीछे हैं, लेकिन उन्हें अमेरिका, भारत, जापान और अन्य समान विचारधारा वाले देशों से समर्थन मिलता रहता है. इससे उन्हें चीन का मुकाबला करने की हिम्मत मिलती है. वो अपने क्षेत्रीय हितों की रक्षा करने की सोचते हैं. ऐसे में अगर ये देश सामरिक इस्तेमाल के लिए महत्वपूर्ण भौगोलिक क्षेत्रों के रूप में समुद्री स्थानों पर ध्यान केंद्रित करते हैं तो फिर इनके धैर्य और स्थिरता पर पुनर्विचार ज़रूरी हो जाता है. हालांकि, इस बात से इनकार नहीं किया जा सकता कि ये नज़रिया रणनीतिक साझेदारी और सहयोग के क्षेत्र में समुद्री सुरक्षा और शासन के तौर-तरीकों को आकार देने में महत्वपूर्ण रहेगा.
दक्षिण चीन सागर पर विवाद क्यों?
दक्षिण चीन सागर में लंबे समय से चल रहे क्षेत्रीय विवादों ने रणनीतिक दृष्टि से काफ़ी ध्यान आकर्षित किया है, विशेष रूप से भारत-प्रशांत में व्यापक सुरक्षा के आर्किटेक्चर और उनके संभावित घातक प्रभावों के नज़रिए से. अब जबकि बहुत गहरे पानी में काफ़ी उथले क्षेत्र में लिंगशुई 36-1 गैस क्षेत्र की खोज हुई है, ऐसे में ये तय माना जा रहा है कि इस क्षेत्र में प्राकृतिक संसाधनों का पता लगाने के अभियानों में और तेज़ी आएगी. दूसरे देश भी संसाधनों की खोज के लिए अभियान चलाएंगे. ये ऊर्जा संसाधनों की बढ़ती मांग और वैश्विक तनावों की वज़ह से आपूर्ति में होने वाली बाधाओं को एक-दूसरे से जोड़ती है. चीन के लिए ये खोज इसलिए महत्वपूर्ण है कि हिंद महासागर से गुजरने वाली संचार की समुद्री लाइनों (एसएलओसी) को अगर कभी नाकाबंदी करके बाधित भी कर दिया जाता है तो वो आंशिक रूप से इस पर काबू पा सकता है. इस स्थिति को चीन की अपनी ऊर्जा मांगों को पूरा करने के लिए 'मलक्का दुविधा' के रूप में भी जाना जाता है. ऐसे में लिंगशुई 36-1 गैस क्षेत्र की खोज से उत्साहित होकर चीन अपनी बढ़ती ऊर्जा मांगों को पूरा करने के लिए और अधिक रास्ते तलाशने की कोशिश करेगा. यही वजह है कि वो अपनी समुद्री परिधि और उससे आगे के क्षेत्रों में भी प्राकृतिक संसाधनों की खोज के अपने अभियानों को जारी रखने के लिए तैयार है. ज़ाहिर कि अगर चीन ऐसा करता है तो फिर इस क्षेत्र के दूसरे देशों के साथ उसका तनाव और ज़्यादा बढ़ने की संभावना है.
समुद्र में जो खाली स्थान हैं, उन्हें अब रणनीतिक इस्तेमाल के नज़रिए से देखा जाएगा. समुद्री स्थान बहुत विशाल और जटिल होते हैं. ऐसे में ये ज़रूरी हो जाता है कि हम महासागरों पर नियंत्रण की धारणा को समुद्र के उपयोग से अलग करके ना देखें.
हिंद महासागर और भारत के लिए क्या निहितार्थ?
दिलचस्प बात ये है कि भारत दक्षिण चीन सागर क्षेत्र में भू-राजनीति और क्षेत्रीय विवादों पर अपने विचारों को ज़्यादा मुखर रूप से व्यक्त करता दिख रहा है. भारत के विदेश मंत्री एस. जयशंकर हाल ही में क्वाड विदेश मंत्रियों की बैठक के लिए टोक्यो की यात्रा पर थे. इस बैठक में उन्होंने दक्षिण चीन सागर में चीन के लगातार आक्रामक रुख़ के ख़िलाफ सक्रिय रूप से चिंताओं को व्यक्त करने की भारत की इच्छा को ज़ाहिर किया. इससे भी महत्वपूर्ण बात ये है इस क्षेत्र में प्राकृतिक संसाधनों की खोज के चीन के अभियानों से भारत भी अछूता नहीं रहेगा. ऐसा कहना बढ़ा-चढ़ाकर दावा करना नहीं है. हाल ही में दो ऐसे घटनाक्रम हुए, जिससे इस धारणा को मज़बूती मिलती है. पहला, पीपुल्स लिबरेशन आर्मी नेवी (पीएलएएन) से जुड़े चीन के रिसर्च वेसल्स तेज़ी से हिंद महासागर में प्रवेश कर रहे हैं, जबकि ये इलाके अनुसंधान और सर्वेक्षण के लिए भारत के प्राथमिक हित क्षेत्र के भीतर हैं. अतीत में हम ये देख चुके हैं कि श्रीलंका जैसे भारत के महत्वपूर्ण पड़ोसी देश ने चीन के इन जहाजों को अपने बंदरगाहों पर डॉक करने की अनुमति दी थी. ऐसे में भारत को और ज़्यादा सतर्क रहने की ज़रूरत है क्योंकि भारत की समुद्री परिधि के भीतर चीन अपने खोजी अभियान चला सकता है. दूसरा महत्वपूर्ण घटनाक्रम ये है कि चीन ने 2022 से हिंद महासागर क्षेत्र में एक क्षेत्रीय बहुपक्षीय मंच बनाने की कोशिश शुरू कर दी थी. चीन-हिंद महासागर मंच नाम के इस प्लेटफॉर्म में इस क्षेत्र के प्रमुख देश शामिल हैं, लेकिन भारत को इससे बाहर रखा गया है. चीन ब्लू इकोनॉमी (समुद्री जीव-जंतुओं से जुड़ा व्यापार) के पहलुओं से अवसरों का दोहन करने पर बहुत ज़ोर दे रहा है. हिंद महासागर के ज़्यादातर तटवर्ती देश समुद्री संसाधनों पर निर्भर हैं. इसे देखते हुए ये कहा जा सकता है कि चीन द्वारा अपने समर्थित समूह की आड़ में हिंद महासागर से प्राकृतिक संसाधन निकालने की कोशिश की जाएगी. भारत को इससे पैदा होने वाले ख़तरों को नज़रअंदाज़ नहीं करना चाहिए.
वास्तव में ये कहा जा सकता है कि लिंगशुई 36-1 गैस क्षेत्र की खोज होना एक महत्वपूर्ण घटनाक्रम है. ये निश्चित रूप से ऊर्जा खरीद के पारंपरिक स्रोतों में संकट के बीच समुद्री क्षेत्र में संसाधनों की तलाश की कोशिशों को बढ़ावा देगा. हालांकि इसका एक तात्कालिक परिणाम ये होगा कि पहले से ही अस्थिर दक्षिण चीन सागर में तनाव बढ़ने की संभावना और तेज़ होगी. हालांकि, ये एक बड़ी प्रवृत्ति की तरफ भी इशारा करता है. समुद्र में जो खाली स्थान हैं, उन्हें अब रणनीतिक इस्तेमाल के नज़रिए से देखा जाएगा. समुद्री स्थान बहुत विशाल और जटिल होते हैं. ऐसे में ये ज़रूरी हो जाता है कि हम महासागरों पर नियंत्रण की धारणा को समुद्र के उपयोग से अलग करके ना देखें. ऐसे में इस बात पर पुनर्विचार करना महत्वपूर्ण हो जाता है कि भारत-प्रशांत क्षेत्र में विभिन्न हितधारक किस हद तक महासागरों का इस्तेमाल करना चाहते हैं. वो इससे कितना जुड़ना चाहते हैं.
सायंतन हलदर ऑब्ज़र्वर रिसर्च फाउंडेशन के स्ट्रैटजिक स्टडीज़ प्रोग्राम में रिसर्च असिस्टेंट हैं.
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