साल 2004 से 2012 तक सर्बिया के राष्ट्रपति और अब क्लब डे मैड्रिड के फुल मेंबर बोरिस तादिच ने ऑब्ज़र्वर रिसर्च फाउंडेशन के चेयरमैन संजय जोशी से रवांडा की राजधानी में हुए किगाली ग्लोबल डायलॉग के मौक़े पर बातचीत की. हम यहां उनसे हुई बातचीत पर आधारित ये आर्टिकल और वीडियो लिंक अपने पाठकों के लिए शेयर कर रहें हैं:
संजय जोशी: यूरोप में कुछ हो रहा है. जब आप राष्ट्रपति थे, तब सर्बिया ने यूरोपीय संघ की सदस्या के लिए आवेदन दिया था. उसके 6 साल बाद यूरोप में कुछ बुनियादी तौर पर बदल गया है, आप इसके मौजूदा हालात पर क्या कहेंगे?
बोरिस तादिच: मैं सिर्फ इतना ही कह सकता हूं कि आज का यूरोप, 6 या 15 साल के यूरोप से अलग है. इसके बावजूद अगर आप लोगों की सुरक्षा, अभिव्यक्ति की आज़ादी और इंसानों के लिए जो दूसरी आज़ादी मायने रखती है, उस लिहाज़ से देखें तो यह अभी भी खुशनुमा जगह है. लेकिन इसेक साथ यह भी मानना होगा कि चीजें सही दिशा में आगे नहीं बढ़ रही हैं. 6 साल पहले चीन दुनिया की इतनी बड़ी आर्थिक शक्ति नहीं था. हमारा सामना तब ब्रेग्जिट या यूरोप के लोकप्रिय आंदोलनों से नहीं हुआ था. यहां तक कि हमारे देश में भी तुर्की को लेकर एक आंदोलन चल रहा है, जिसने यूरोपीय संघ में दरार डाल दी है और इससे कई यूरोपीय देशों की मुश्किल बढ़ गई है. आजकल पॉप्युलिस्ट होना बहुत ही आसान है, ख़ासकर प्रवासी संकट के मामले में. पश्चिमी देशों में यूरोप सबसे ताकतवर नहीं है. उसमें कई कमियां हैं. सिर्फ 50 लाख़ प्रवासी यूरोप आने की कोशिश कर रहे हैं, जबकि यहां 50 करोड़ लोग रहते हैं. इसका मतलब है कि कुल आबादी के सिर्फ़ एक प्रतिशत प्रवासियों ने यूरोप को अस्थिर कर दिया है. यहां तक कि संस्थाएं भी अस्थिर हो गईं हैं. आख़िर यह कमज़ोरी नहीं तो क्या है. प्रवासियों को लेकर यूरोप में कई ग़लत सोच और मान्यताएं हैं. मैं उम्मीद करता हूं कि यूरोपीय संघ के नई पीढ़ी के नेता प्रवासियों के मामले में इस घिसी-पिटी सोच को ख़त्म करने के लिए गंभीर प्रयास करेंगे. वे ऐसा यूरोपीय संघ बनाएंगे, जो नई पहल को स्वीकार करने के लिए तैयार हो. माइग्रेशन या प्रवास, वैश्विक राजनीति का स्वाभाविक नतीजा है. यूरोप को आज बाहरी लोगों की ज़रूरत है, लेकिन वह यहां आने वाले लोगों को रोक रहा है. यह विवादास्पद मामला है. लगता है कि कुछ नहीं, बहुत कुछ ग़लत है.
जोशी: क्या आपको लगता है कि यूरोपीय संघ से फायदा हुआ है? अभी जो स्थिति है, क्या उसमें इसका हिस्सा बनना ठीक होगा?
तादिचः मेरी पीढ़ी के नेताओं का यह राजनीतिक सपना था. मैंने सर्बिया को यूरोपीय संघ के करीब लाने की हर कोशिश की थी. जब मैं राष्ट्रपति था, तब हम कैंडिडेट स्टेटस के करीब पहुंच गए थे. इससे मेरे देश को कई संसाधन मिले. हालांकि, आज हम हर एक चैप्टर पर मोलभाव कर रहे हैं, जिससे पूरी प्रक्रिया सुस्त पड़ गई है और इसका बहुत फायदा नहीं दिख रहा है. फ्रांस के राष्ट्रपति मैक्रां ने यह तक कहा कि यूरोपीय संघ का नेतृत्व कौन करेगा, इस पर हमारे बीच सहमति नहीं बन पा रही है. इस तरह के बयान खतरनाक हैं. इससे पता चलता है कि मैक्रां यूरोपीय संघ की तुलना में अपने देश के बारे में ज्यादा सोच रहे हैं. बेशक, आप ऐसी राय दे सकते हैं, लेकिन इससे भविष्य में फायदा नहीं होगा. हमारी तो अजीब स्थिति हो गई है. हम यूरोपीय संघ के करीब और बेहद करीब आ रहे हैं, लेकिन हमें अभी तक सदस्य देश का दर्जा नहीं मिला है. यह यूरोपीय संघ के सदस्यों को सूट करता है, जो इसमें अधिक देशों के जुड़ने से ऊब चुके हैं. उन्हें इस बारे में अपने देश में भी सफाई भी नहीं देनी पड़ेगी, लेकिन ज़रा हमारे बारे में सोचिए. सर्बिया कई संघर्ष झेल चुका है. हम तुर्की, एशिया को यूरोपीय संघ से जोड़ते हैं. मुझे लगता है कि यूरोपीय संघ में रणनीतिक सोच रखने वालों की कमी है. यह सवाल पश्चिमी बालकन और यूरोप की पहचान से जुड़ा है. यूरोप तुर्की, रूस, चीन और भारत से कैसे रिश्ते रखना चाहता है, यह उसका भी मामला है. यह सिर्फ़ अमेरिका के साथ उसके रिश्तों की बात नहीं है.
जोशी: आप कह रहे हैं कि यूरोप से एशिया के बीच सर्बिया गेटवे है. यूरोप कितना गंभीर है? पहले वह अमेरिका के काफ़ी करीब जा रहा था. चीन भी उसके दरवाज़े तक पहुंच चुका है. चीन को लेकर काफी आशंकाएं हैं. वहीं, सर्बिया 16+1 का हिस्सा है. आप चीन की भूमिका को कैसे देखते हैं?
तादिच: यूरोपीय संघ में इस मामले में अलग-अलग राय है. कुछ चीन को तोड़ने वाली ताकत मानते हैं तो कुछ जोड़ने वाली. वह पूर्वी और मध्य यूरोप के कुछ क्षेत्रों को पश्चिमी दुनिया की तरह बनने में मदद कर रहा है. मैं चीन की भूमिका को सकारात्मक मानता हूं. जो लोग चीन पर यूरोपीय देशों को बांटने का आरोप लगा रहे हैं, वे संतुलित राजनीति और अपने लिए निवेश चाहते हैं. हालांकि, इस तरह की दलीलों से फायदा नहीं होता. पांच साल पहले कोई चीन के बारे में बात नहीं करता था, लेकिन आज सबकी ज़ुबान पर उसका नाम है. सर्बिया में 1991 में चीन की एंबेसी में बम धमाके हुए थे. आज कोई ऐसी कल्पना तक नहीं कर सकता. विकास के मामले में चीन के पीछे-पीछे भारत चल रहा है, लेकिन यूरोप में किसी की भी उस पर नज़र नहीं है. यह अजीब बात है क्योंकि अगले दशक में वह वैश्विक ताकत बन चुका होगा. वैश्विक राजनीतिक और आर्थिक संबंध आख़िर में किस तरफ बढ़ेंगे, इसे समझना बहुत ज़रूरी है. यूरोप का झुकाव पहले अमेरिका की तरफ था. नेटो बुनियादी तौर पर एक सुरक्षा संगठन है, लेकिन अब हालात बदल रहे हैं. कोई भी नहीं जानता कि अगले 5 या 10 साल में यूरोपीय संघ के देशों का भविष्य क्या होगा. इस बारे में कोई भी अनुमान लगाना मुश्किल हो गया है.
जोशी: आज एक व्यापार युद्ध छिड़ा हुआ है. अमेरिका और चीन के बीच टेक्नोलॉजी वॉर भी चल रही है. अलग-अलग देशों से सवाल किया जा रहा है कि वे कैसी वैश्विक और तकनीकी व्यवस्था चाहते हैं. इस बारे में आपकी क्या राय है?
तादिच: हम खुद को पूरब और पश्चिम के बीच परिभाषित करते हैं. ऐतिहासिक तौर पर सर्बिया एशिया का द्वार रहा है, भले ही वहां के देशों के साथ हमारे संबंध कैसे भी रहे हों. हम यूरोपीय संघ का सदस्य बनना चाहते हैं, लेकिन इसका मतलब यह नहीं है कि हम चीन, रूस और भारत के साथ अच्छे रिश्ते नहीं रख सकते. हमारा रुख़ तो यही है. मेरे बाद भी सर्बिया में जो सरकार बनी, वह इसी नजरिये पर चल रही है. मैंने चीन के साथ 2009 में एक रणनीतिक समझौता किया था. अब मुझे उसका फायदा दिख रहा है. आज हम 17+1 के उस क्लब में शामिल हैं, जहां चीन इंफ्रास्ट्रक्चर में निवेश कर रहा है. यह अच्छा ट्रेंड है. चीन दूसरे देशों के मामलों में टांग नहीं अड़ा रहा है. वह सभी पार्टनर देशों के लिए वन बेल्ट वन रोड इनिशिएटिव में निवेश कर रहा है. यूरोपीय संघ में चीन की भूमिका को लेकर कई नेताओं के मन में पूर्वाग्रह है, लेकिन मैं उसकी पहल के कामयाब होने की उम्मीद करता हूं. सर्बिया भारत सहित सभी देशों के साथ सामान्य रिश्ते चाहता है और हम यूरोपीय संघ में भी शामिल होना चाहते हैं.
जोशी: यूरोप के सुरक्षा ढांचे पर काफी बात हो रही है. क्या आप जिन सुधारों की बात कर रहे हैं, यह भी उसका हिस्सा है?
तादिच: जब मैंने पूछा कि क्या इसे नेटो के मुक़ाबले में खड़ा किया जा रहा है तो उन्होंने कहा कि इसका तो सवाल ही पैदा नहीं होता. उन्होंने कहा कि वे नेटो के साथ इसे जोड़ने की सोच को लेकर काम कर रहे हैं. भविष्य में यह बात सच होगी या नहीं, इसका जवाब मेरे पास नहीं है. यूरोपीय संघ में 50 करोड़ लोग रहते हैं और उनके पास अपनी कोई सेना नहीं है. सैन्य ताकत और खासतौर पर नौसेना के बग़ैर आप वैश्विक शक्ति नहीं बन सकते. ब्रेग्जिट के बाद दूसरे देश भी अलग हो सकते हैं. यूरोप के कई देश वैश्विक बाज़ार में मुकाबला नहीं कर पाएंगे. यहां तक कि यूरोप की सबसे मजबूत अर्थव्यवस्था जर्मनी की राह भी आसान नहीं होगी. 8 करोड़ की आबादी वाला जर्मनी भारत, चीन और अमेरिका का मुकाबला नहीं कर पाएगा. अगर आप मुझसे यह पूछ रहे हैं कि क्या यूरोपीय संघ को सैन्य ढांचा मजबूत करना चाहिए, तो मैं शायद इसके हक में हूं. यूरोप के कुछ देशों के रूस के साथ आर्थिक और राजनीतिक रिश्ते बिल्कुल अलग हैं. रूस में यूरोपीय संघ की हजारों कंपनियां काम कर रही हैं. पेट्रोलियम प्रॉडक्ट्स के मामले में यूरोपीय संघ एक हद तक रूस पर आश्रित है. इसका विकल्प ढूंढना आसान नहीं होगा. इसलिए हमें ज़मीनी सच्चाई को ध्यान में रखना होगा. अमेरिका के राष्ट्रपति डॉनल्ड ट्रंप पिछले कुछ साल से जो कह रहे हैं, आप उस पर विचार करें तो उसका रणनीतिक अर्थ आपके सामने आ जाएगा. आज दुनिया में व्यापार युद्ध छिड़ा हुआ है. ईरान के साथ तनाव बढ़ रहा है. हम एक असुरक्षित दुनिया में रह रहे हैं. हर कोई भविष्य को सुरक्षित करने की कोशिश में जुटा हुआ है.
ट्रांसक्रिप्शन और फ़ोटो: निखिला नटराजन.
The views expressed above belong to the author(s). ORF research and analyses now available on Telegram! Click here to access our curated content — blogs, longforms and interviews.